समाज

रोपाई से जुड़ी परम्पराओं पर एक महत्वपूर्ण लेख

आज भले ही हमारे खेत बंजर हो रहे हैं. हम गुणी-बानरों की बात कहकर खेती छोड़ रहे हों पर एक समय वह भी था जब खेती के लिए लोग नौकरी छोड़कर घर आ जाते थे. मैंने कई लोग देखे हैं कि तीन भाई हों तीनों की सरकारी नौकरी बाहर लग गयी तो एक भाई घर खेती के लिए नौकरी छोड़ देता. खेती हमारी रीढ होती थी. पहले लोग मजाक करते कि चाहे पिताजी किसी भी नौकरी में हों पहाड़ के बच्चे विद्यालय के फार्म में उनका व्यवसाय कृषि ही लिखा करते. यह मजाक नहीं है जनाब, यह खेती की महत्ता थी कि उसके आगे सब व्यवसाय फीके थे. आधार तो कृषि ही था.
(Ropai Traditional Cultivating Rice Uttarakhand)

खेती और खेती से जुड़े काम हमारी दिनचर्या से इस कदर जुड़े थे कि हम उसके लिए खाना-पीना तक छोड़ देते थे. बच्चे, बूढे, जवान, महिला, पुरुष सभी अपने अपने हिसाब से अपनी भूमिका तय कर लिया करते थे. मुख्य कर्ता-धर्ता महिला ही होती थी, उसी के जिम्मे खेती का काम था.

पहाड़ में दो प्रकार के खेत होते हैं- तलाऊ और उपरांऊ (उपांण). तलाऊ यानी जहां पानी उपलब्ध हो या न होने पर भी बरसात का पानी गूल द्वारा पहुंचाया जा सके. उपरांऊ यानी जहां पानी नहीं हो असिंचित खेत.

तलाऊ खेतों का बड़ा महत्व होता था. धान की फसल के लिए ये उपयुक्त थे. इन्हीं खेतों पर रोपाई लगाई जा सकती थी. रोपाई पहाड़ में काफी मेहनत का काम होता है. इसके लिए किसान को पर्यावरण से लेकर मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी होना अति आवश्यक होता था हालांकि लगभग हर पहाड़ी वयस्क और बुजुर्ग इसे अपने अनुभव और विरासत में मिले ज्ञान से हासिल कर लेता था और निपुण भी होता था. कब तक बारिस होगी? कितनी बारिस के आसार हैं, कहीं तेज बारिस से खेत की मिट्टी बहेगी तो नहीं, इन सभी पूर्वानुमानों से ही रोपाई का कार्य सम्पन्न किया जाता था.
(Ropai Traditional Cultivating Rice Uttarakhand)

पहाड़ में भी अन्य जगहों की तरह सीधे जमीन में धान बो देना और रोपाई तो होती ही थी तीसरा तरीका भी होता था जिसे साई धरना या सै धरना बोलते थे. रोपाई में बोये जाने वाली धान की किस्में- थापचीनी, कौपार्, लाल काली और सफेद जमाई और खजिया प्रमुख हैं. बिना रोपाई सीधे बोये जानी वालों में- चायनाचार, मुठमण, छोट्टिया, नानधानि, कत्यूरी, झडू, जिरुलि, बमकू, बिन्दुलि (खुशबूदार होता है) हैं.

साई में वही धान बो सकते हैं जिनकी रोपाई लगती है उपरोक्त धान के नाम पहाड़ी में जो बोलते हैं वही लिखे हैं इनके हिन्दी नाम कुछ और हो सकते हैं.

थापचीनी मोटा चावल है पर होता स्वादिष्ट और बढिया है लेकिन मान्यता है कि इसे देव और पितृ कार्यों में प्रयोग नहीं करते. जमाई धान के खाज्, सिरौले और च्यूड़ अच्छे बनते हैं. काली जमाई खीर के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, इसकी खीर लसपसी और स्वाद बनती है.देव कार्यों जैसे सीक चढाना (नये चावल भगवान को अर्पित करना) में प्रयोग चावलों को ताजा कूटकर ले जाने की परम्परा है. यदि समयाभाव के कारण पहले दिन कूट कर रख भी लिए तो अगले दिन ओखली में ले जाकर दो चार मूसल चलाकर उसे रखा जाता है इसे चावल साजि करना यानी ताजा करना कहते हैं. इन चावलों को कूटते समय यह ध्यान रखना होता है कि चावलों को ओखली में बटोरते समय पैर न लगे.
(Ropai Traditional Cultivating Rice Uttarakhand)

पहाड़ में बैसाख के महिने में रोपाई के लिए चावल की पौध तैयार करने के लिए धान की नर्सरी तैयार की जाती है जिसे बिन धरना कहते हैं और धान की नर्सरी को बिन. बिन धरने की शुरुआत से ही मेहनत शुरू हो जाती है. बिन ऐसी जगह पर रखे जाते थे जहां पानी सुलभ हो. चूकि बैसाख में बारिस नहीं होती इलसिए गाड़-गधेरे जहां बारोंमास पानी हो वहां एक ताल बना ली जाती है. ताल से गूल द्वारा पानी बिन तक पहुंचाते थे. बिन के खेत की जुताई कर पानी डाला जाता है और खूब गोबर की खाद डाली जाती है. बिन को लगभग कीचड़ सा बना दिया जाता है और उसमें धान की बीज छिड़क दिया जाता है वो भी खूब घना-घना. बिन को लगभग तीन-चार दिन के अन्तराल में पानी से खूब तर करते रहना पड़ता है.

बिन में बोने के लिए धान के बीज को एक बड़ी तौली में भिगोकर कुछ दिन के लिए रखा जाता है जब अंकुरित हो जाय तब वह बिन में बोने के लिए तैयार माना जाता है लेकिन बिन के लिए धान को अंकुरित करने का एक पुराना तरीका भी हुवा करता था. एक बड़ा सा डोका लिया जाता था इसका आकार तीस-चालीस नाली तक भी होता था. डोके में बीज का धान भरकर एक टोकरी से बन्द कर दिया जाता था. बीच रखने के इस डोके को बिनार या ब्यूनार डोका कहते थे. इसके अलावा गोबर की खाद ढोने वाले डोके को पोरसौल्ली डोका और इन्हीं की तरह के एक बड़े डोके जिसमें पात पतेल सुतर लाते थे या तैयार फसल की बालियां जमा करते थे, को ब्यान कहते थे.

बिंयार डोके में बीज भरकर गांव के नजदीक एक सामुहिक तालाब में ये डोके डाल दिये जाते थे. तालाब में न पानी कम हो न ज्यादा, डोका एक विशेष स्थिति में गीला होता रहे. इस तालाब को ब्यूखाव या बींखाव कहा जाता था. इस बींखाव की विशेष देखभाल की जाती थी. पानी कम हो तो इस तक पानी पहुचाना ज्यादा हो तो पानी तोड़ देना और यदि कभी तेज बारिस के आसार बने तो बीज के डोके बाहर सुरक्षित रख देना ताकि बीज के डोके अतिवृष्टि से बह न जाये. इसी बींखाव में पहाड़ लोगों की सामुदायिकता और परस्पर भाईचारे की मिसाल भी देखने को मिलती थी.

इस बीज के तालाब का रखरखाव गांव का कोई भी आदमी जाकर कर देता था, किसी का डोका ठीक स्थिति में करना हो या तालाब का पानी कम ज्यादा करना हो या बरसात की आशंका पर बीज सुरक्षित रखना हो. यह नहीं कि अपना डोका ठीक किया और बाकियों का सड़े मेरी बला से या मेरा बच जाय किसी का बहे तो बहे. कभी किसी के डोके का बीज चोरी हो जाय, यह तो सोचना भी नहीं हुआ. पहाड़ हुआ साहब यूं ही यहां की ईमानदारी के बारे में थोड़े की लोग बोलते हैं.

कुछ दिन बाद इन तालाब यानी खाल में रखे बीजों के नथुर फूट जाते थे (अंकुरित हो जाते थे) तो डोके के छेदों से अंकुर बाहर निकलने लग जाते तो ये बीज बिन में बोये जाने को तैयार हो जाते थे. बिन के लिए ये बीज भिगाकर अंकुरित करने की समयावधि धान के प्रकार और प्रजाति पर निर्भर होती थी. जैसे- बैसाख में जमाई, जेठ में थापचीनी, कौपार आदि के बिन रख लिए जाते थे. कुछ धान के बीज पन्द्रह दिन में ही रोपाई को तैयार हो जाते थे लिहाजा ये रोपाई से पन्द्रह दिन पहले बिन में बोये जाते थे.

बिन के समय कुछ जगहों पर गांवो में पानी की समस्या रहती थी इसलिए पानी के स्त्रोत या गाड़-गधेरे के खाल से आई गूल को तोड़कर पानी अपने बिन में डालना और पानी के लिए आपसी खींचतान या कई बार गावा-गाव मैका-मैक भी हो जाया करती थी. कई जगह पानी के लिए बारी भी लगती, रात की बारी में कोई पानी तोड़ न दे इसलिए रात को पहरेदारी भी की जाती थी.

बिन में पौंध तैयार होने पर रोपाई की तैयारी की जाती थी. यह काम आषाड़ के महिने में मुख्यत: शुरू हो जाता था. तब तक बरसात भी होने लग जाती थी तो रोपाई के लिए पानी सुलभ हो जाता था. गाड़-गधेरों या स्त्रोतों का पानी भी बढ जाता था. जैसे ही गांव के किसी खेत में पहली रोपाई लग जाय उस दिन को पांग पड़ना कहते थे. इस दिन से मन्दिरों में पूजा पाठ वर्जित हो जाती थी. इसका कारण यह भी हो सकता है कि सब रोपाई में व्यस्त हो जाते थे तो मन्दिर जाने का टैम किसको?
(Ropai Traditional Cultivating Rice Uttarakhand)

रोपाई का काम पहाड़ में बिलकुल पहाड़ जैसा होता है. इसके लिए आपको हर विभाग के लिए कुशल आदमी या महिलाएं चाहिये होती हैं. रोपाई की तुलना आप किसी मकान में डल रहे लिंटर से कर सकते हैं. हर काम समय पर और परफैक्ट होना चाहिये चूंकि रोपाई का सीजन हुआ तो गांव में किसी न किसी के खेत में रोपाई चलती रहती है इसलिए आदमियों का इन्तजाम एक मशक्कत ही हुई. हल जोतने वाला, खेत के ओने-कोने खोदने वाला खेत की गीली मिट्टी को बराबर या समतल करने वाला जिसे बौस्सी कहते हैं, रोपाई में बीज रोपने वाले जिन्हें पुत्यार कहते हैं और बिन से बीज उखाडने वाले जिन्हे बिनार कहते हैं प्रमुख होते हैं.

इसके अलावा पानी की गूल सही करना, बिन से खेत तक पौंध पहुचाने वाले, घर से चाय पानी लेकर आने वाले लोग भी चाहिये होते हैं. पुत्यारों की जरूरत ज्यादा होती है. पुत्यारों की संख्या खेत के आकार पर निर्भर करती है. जिसके खेत में रोपाई हो उसका पूरा परिवार ही कुछ न कुछ करता ही रहता है.

पहले से अगझाव करके गोबर की खाद डालकर तैयार खेत में पानी की गूल छोड़ी जाती है. फिर उसमें हल चलाने वाला जिसे हलिया कहते हैं खेत की जुताई शुरु कर देता है. इसी के साथ काम शुरू हो जाता है बौस्सी का जो कि खेत के कोने जहां हल की फाल (नस्यूड़) न पहुंचे वहां बड़े कुदालनुमा यन्त्र जिसे बौस कहते है से खोदता है. बौस चलाने के कारण ही उसे बौस्सी कहते हैं. बौस्सी की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि बौस्सी को खाने में अन्य सब के अतिरिक्त दो रोटी ज्यादा देते हैं जिसे बौस्सी बान् कहा जाता है हालांकि भोजन तो सबको पेटभर ही मिलेगा पर यह सम्मानस्वरूप या उसकी मेहनत की कद्र करने का एक तरीका मान सकते हैं. बौस्सी हल चलने के साथ बौस से पानी सब जगह पहुँचाने के लिए खेत के बीच ही छोटी गूल से बनाता है ताकि पानी बराबर पहुंचे.

बौस्सी लिंटर की ढाल सही करते कागीगर की तरह खेत का ढलान समतल करता है. कहीं अगर पुरानी फसल की जड़ें मिल जाय उन्हें किनारे करता है. खेत की मेढ तैयार करता है. खेत बड़ा हो तो मेढ बनाकर बराबर भाग बनाता है ताकि खेत समतल रहे और बाद में सिचाई में परेशानी न हो.

इसी बीच दूसरी तरफ बिन में पौंध उखाड़कर उनके छोटे गठ्ठर जिन्हें आंठ कहते है बनाने की प्रक्रिया चल रही होती हैं. यह काम बिंयार करती हैं फिर उन पौंध के आंठे को ढोकर खेत तक पहुचाने वाले डलिया, डोके या सुयांठ से खेत तक पहुंचाते हैं. यहां पर भी पूरा सिस्टम होता है. सुयांठ यानि लकड़ी के एक आदमकद से लम्बे मजबूत डन्डे में रस्सी यानी ज्यौड़ की मदद से विशेष दक्षता के साथ पौधे माला सी पिरोकर सारे जाते हैं. एक सुयांठ में लगभग साठ-सत्तर पौधे आते हैं जो कि एक नाली खेत के लिए पर्याप्त माने जाते हैं. अगर बीज कम या ज्यादा पड़ जाय तो बिनार खेत तक खबर पहुंचाती है ताकि पुत्यार लोग बीज (पौंध) को एडजस्ट कर सकें. अगर कम हो तो फिर डेढ सुयांठ में तीन नाली लगाते हैं.

हलिया पहले हल से जोतकर फिर एक लकड़ी के यन्त्र जिसे मय या मौय कहते हैं खेत समतल करता है. रोपाई का मौय अलग तरह का होता है. यह बैलों के कन्धे पर रखे जू तक एक रस्सी जिसे मैलड़ कहते हैं, की मदद से बांधा जाता है. खेत की गुड़ाई यानी दन्याव वाला मौय डन्डेनुमा चीज से जुड़ा होता है. बौस्सी एक लकड़ी पर फट्टा जैसे लगी चीज से खेत की गीली मिट्टी को बराबर करता है जिसे तुल्यूण कहते हैं.

उधर तैयार खेत पर पुत्यारी बीज रोपने लग जाती हैं. पानी का ध्यान रखा जाता है कि खेत ज्यादा गीला पतला न हो. तेज बारिस के आसार हों और बारिस के पानी से खेत की मिट्टी बहने का अंदेसा हो तो खेत कम गीला करते हैं. खेत की तैयार मिट्टी बहने का मतलब हुआ सारे पोषक तत्व और खाद का बह जाना जो कि रोपाई के लिए बिलकुल सही नहीं इसलिए मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी होनी जरूरी है. मौसम विभाग तब इतनी डिटेल नहीं दे पाता था गांवो तक इसलिए गांव वालों का अनुभव की काम आता था.

रोपाई शुरु होने यानी पुत्यारियो के पौध रोपने जिसे पुत डालना कहते हैं पर एक अनोखी परम्परा कुमाऊं में देखने को मिलती है. जिसे हुडकिया बौल कहते हैं. यह पहाड़ की काम के साथ मनोरंजन की अनूठी चीज है. चूंकि ये संगीतमय चीज है इसलिए और भी आकर्षक होती है.

गीले कीचड़युक्त खेत में आगे-आगे उल्टा एक या दो आदमी हुड़का बजाकर लोकगीतों का गायन करते हैं, दूसरी तरफ पुत्यारिने गीत की लाइन भी दोहराऐगी और पूते भी डालती जाऐगी. यह गीत-संगीत ऐसा असर करता है कि झुकी कमर से दिन भर पूते डालने पर भी पुत्यारिने अपनी थकान भूल जाती हैं. कुछ लोग तो ये हुड़किया बौल सुनने को ही खेतों तक चले आते थे. लाइन से बराबर दूरी पर पूते डालना पुत्यारिनों का एक कमाल ही है.

धान बोने का एक तरीका इस रोपाई से मिलता-जुलता है जिसे सै या साई धरना कहते हैं तरीका रोपाई जैसा है खेत ऐसे ही तैयार होता है बस बीज अंकुरित होने पर सीधे रोपाई जैसे तैयार खेत में छिड़क दिया जाता है, बिन में पौध तैयार नहीं करते.

रोपाई वाले दिन खेत स्वामी दिन में चाय के साथ सै (साई), एक पहाड़ी पकवान जो चावल के आटे दही और चीनी से बनता है, सबको खिलाता है. रोपाई एक शुभ-काम जैसा है इसलिए रात को घर पर हलवा बनाते हैं जिसे तै लगाना कहते हैं.

रोपाई वाले खेत की मेढ जो कच्ची होती है, में कुछ दिन बाद उड़द यानी मांस बोये जाते हैं. यहां एक मजेदार प्राकृतिक चीज होती है. जैसे ही आपने मेढ के किनारे किनारे मांस बोये एक चीज उसके आसपास उग आती है ये मधुमक्खी के छत्ते की एक छोटी टोकरी जैसी होती है जिसके अन्दर बीज से दिखते हैं जिसे स्थानीय भाषा में कहते हैं- बुढिया ने मांस भिगाने डाल दिये. यह तभी उगते हैं जब आपने उड़द बोने को जमीन में दबा दिये हो.

सावन के बाद घ्यूत्यार के आस-पास जब खूब बरसात हो जाती है तब खेत की मेढ तोड़कर पानी बहा दिया जाता है अगर ऐसा न किया तो धान बुसी (खराब) जाते हैं. रोपाई के बाद उखर उपांण का ध्यान रखना जरूरी हुआ. पहाड़ में एक कहावत है कि घ्यूत्यार पर कुल टुटिबेर गाड और चेलि टुटिबेर मैत. यानी घ्यूत्यार पर कुल यानि गूल टूटकर गधेरे चली जाती है और लड़की अपने मायके चली जाती है.

रोपाई एक खेती का तरीका ही नहीं है यह तो पहाड़ के लिए सामुदायिकता की एक मिसाल भी है क्योंकि यह बिना अन्य लोगों के सहयोग के असंभव है. पहाड़ की महिलाओं की सबसे बड़ी परीक्षा भी रोपाई का सीजन ही होता है. लगातार पानी के सम्पर्क में रहने पर हाथ पैरों में कांधूं हो जाती है और ग्वाईछीन पड़ जाती है. दोनों रोग एक प्रकार के हाथ-पैरों को गला सा देते हैं पर इसके लिए शायद ही कोई महिला अस्पताल गयी हो. कांधू पर पध्योड़ नामक एक पौधे के पत्तों का रस और ग्वाईछीन में पन्यांण से जूठे भात के सीते लगाकर ही सफल इलाज कर लिया जाता था.

रोपाई लगने के दिन पांग पड़ने के बाद सावन के महिने में पूरनमांसी के बाद नागपंचमी को मन्दिर में पाठ पंचामृत के बाद पांग छोड़ा जाता है. इस दिन के बाद कोई रोपाई नहीं लगाता. चाहे वह रोपाई लगा पाया हो या नहीं. वैसे ऐसा होता नहीं है, यह परम्परा मैं अपने क्षेत्र काण्डा-कमस्यार की बता रहा हूं और जगह भी ऐसी ही या भिन्न हो सकती है.

रोपाई से जुड़ी एक परम्परा यह भी है कि रोपाई के लिए तैयार बिन यानी पौधे हर हाल में सराने होते हैं. अगर कभी अबरखंण हो गया यानि सूखा पड़ जाय, गाड़-गधेरों से भी पानी न मिल पाये या किसी हारी बीमारी के चलते परिवार रोपाई न लगा पाय तो बिन के पौध को काट देते हैं. बिन का वैसा ही रह जाना या बिन में भी बाली आ जाना अपशगुन समझा जाता है. कभी किसी को बद्दुवा देते हुए कहा भी जाता है- तेर बिन पसिक जौ.

बिन न सरा पाने के कारणों में एक कारण जो मैंने हारी-बिमारी बताया उससे बिन सराना रह जाय यह न के बराबर ही होता है. ऐसी स्थिति में गांव के लोग मिलकर बिमारी वाले घर के खेत में रोपाई लगा देते थे. मदद के इस तरीके को हतौल करण कहते थे. रोपाई का महत्व पहाड़ में आप ऐसे भी लगा सकते है कि तब लोग अपनी रिश्तेदारी में पत्र लिखने पर लिखा करते थे- रोपाई अच्छी तरह से लग गयी है. आपके यहां भी लग गयी होगी.
(Ropai Traditional Cultivating Rice Uttarakhand)

विनोद पन्त

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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

इसे भी पढ़ें: असौज का नाम आते ही पहाड़ में बुतकार लोगों की बाजुएं फड़कने लगती हैं

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