मल्ला दानपुर के सुंदरढूंगा घाटी का प्रवेश द्वार है जातोली गांव. हिमालय की तलहटी में मल्ला दानपुर के गांव कब बसे इस बारे में बुजुर्ग भी कयास ही लगाते रह जाते हैं. इतिहास खंगालने पर यह तो पता लगता है कि सातवीं से तेरहवीं शताब्दी तक यहां कत्यूरी राजवंश ने शासन किया. बाद में कत्यूरी राजवंश का अवसान हो गया. 1565 में राजा बालो कल्याण चंद ने पाली, बारामंडल, गंगोली के साथ ही इस इलाके को भी अपने कुमाऊं राज्य में शामिल कर लिया. 1602 के आसपास तत्कालीन राजा लक्ष्मी चंद ने बागनाथ के साथ-साथ कुछ और मंदिर समूहों का पुनर्निर्माण किया. तब तक कुमाऊं की राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा आ चुकी थी. 1790 में नेपाल के गोरखाओं ने कुमाऊँ हमलाकर उसे अपने कब्ज़े में ले लिया और 24 साल तक यहां निर्मम शासन किया. तत्पश्चात 1815 में दिल्ली की अंग्रेज़ सत्ता ने गोरखाओं को कुमाऊँ से बाहर खदेड़ कर इसे अपने अधीन कर लिए.
(Roop Singh aka Roopda Bageshwar)
अंग्रेजी काल में बागेश्वर को परगने का दर्जा हासिल हुआ. अंग्रेजी राज में कुमाऊं के दूसरे और अत्यंत चर्चित प्रशासक जार्ज विलियम ट्रेल को अनजानी जगहों में घूमने का बहुत शौक था. उस जमाने में यहां कुली बेगार प्रथा प्रचलन में थी. जहां साहब ने चलने का इशारा किया, मुफ़्त के कुली सामान लादकर चल पड़ते. यूं किंवदंतियों में ट्रेल साहब को भला साहिब बताया जाता है. इस बीच उन्हें पता चला कि मल्ला दानपुर और जोहार-दारमा के बीच काफी व्यापार होता है. व्यापारियों का पिंडारी ग्लेशियर के दर्रे को पार कर आना-जाना लगा रहता था. बाद में ग्लेशियर में दरारें बढ़ जाने से यह रास्ता बेहद जोखिमभरा हो गया और इसका व्यापारिक इस्तेमाल भी बंद हो गया. इस बात का पता लगने पर ट्रेल ने इस दर्रे को खोलने का मन बनाया ताकि व्यापार को दोबारा चालू किया जा सके.
यह बात अप्रैल 1830 के आसपास की है. ट्रेल अपना लाव-लश्कर लेकर मल्ला दानपुर की ओर निकला. पिंडारी ग्लेशियर में पड़ी हिम दरारों ने उनका रास्ता रोक दिया. ट्रेल के आदेश पर पेड़ों को काटकर तख्ते बनाए गए और उन्हें हिम दरारों के उप्पर डालकर पिंडारी दर्रे को पार करने की कोशिश की. मौसम साफ था और ऐसा लगने लगा था मानो सूर्य भी उनके दुस्साहस को देखने के लिए कुछ नीचे उतर आया हो. सूरज की तेज किरणों से पैदा हो रही बर्फ की चमक से ट्रेल की आंखों ने देखना बंद कर दिया और वह आगे नहीं बढ़ सका.
दल के एक सदस्य सूपी निवासी 45 वर्षीय मलक सिंह टाकुली अकेले ही दर्रे को पार करने में कामयाब रहे और मुनस्यारी होते हुए वापस घर लौटे. कुछ दिनों में ट्रेल की आँखें भी दुरुस्त हो गईं. उन्होंने मलक सिंह को बुलाया और उन्हें ‘बूढ़ा’ (वरिष्ठ) की उपाधि से सम्मानित किया. मलक सिंह को पटवारी, प्रधान और मालगुजार नियुक्त करने के साथ ही पिंडारी के बुग्यालों में चुगान कर वसूलने का भी हक दिया गया . मलक सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र स्व. दरबान सिंह बूढ़ा को ये अधिकार हासिल हुए. यद्यपि आजादी के साथ ही अंग्रेज़ी राज की यह व्यवस्था खत्म कर दी गई. अलबत्ता इस कहानी में दर्रे को पार करने वाले आम जन में मलक सिंह आखिरी व्यक्ति थे.
(Roop Singh aka Roopda Bageshwar)
मलक सिंह के तो क़िस्से ही सुने थे लेकिन उनके जैसा ज़ज्बा लिए हमारे दौर के एक और शख्स हैं – सुंदरढूंगा घाटी के प्रवेशद्वार जातोली गांव के रूप सिंह. रूप सिंह से मेरी मुलाकात 1998 के आसपास हुई, जब वह बागेश्वर में जीवन गांधी की दुकान में आलोक साह से बात कर रहे थे. आलोक साह उर्फ राजदा ने रूप सिंह से मेरा परिचय कराया. ‘नमस्कार सैपज्यू.’ आधा झुककर हाथ जोड़ने वाले और करीब पांच फुट के श्रम से तपे बदन वाले शख्स की तनिक पतली आवाज़ सुनकर मैं हकबका सा गया. बाद में राजदा ने खुलासा किया कि बहुत साल पहले जब उन्होंने भी पहली बार रूप सिंह की आवाज सुनी तो वह भी चौंक पड़े थे. रूप सिंह के जाने के बाद राजदा ने उनकी जीवटता के कई किस्से सुनाये. बाद में रूप सिंह उर्फ रूपदा से अकसर मुलाक़ात होते रहती थी. उनकी मासूम मुस्कुराहट के साथ-साथ कोकिल कंठ वाली आवाज हर किसी को अपनी ओर खींच लेती थी. उनकी आवाज़ पर चौंक पड़ने वाले अनजान लोगों के सम्मुख वह हाथ जोड़ लेते और चेहरे में बाल सुलभ मुस्कान ले आते .
“आज तक क्या कुछ किया हिमालय में?” यह सवाल पूछने पर मासूम चेहरे के साथ शर्माते हुए वह बोले, “सैपज्यू मैं तो अनपढ़ ठैरा. बस किसी तरह अपना नाम लिखना सीख लिया. शायद जून का महीना था, 1956 का. तब मेरा जन्म हुआ था बल. तब जातोली गांव में कुल सातेक परिवार ही रहने वाले हुए. अब तो चौबीस मवासे हो गए हैं. बचपन में स्कूल के वजाय गोरू-बाछी, बकरियों को जंगल ले जाना ही मेरा काम होने वाला ठैरा. सोलह साल की उम्र में टूरिस्टों के साथ कुलीगिरी में लग गया. उससे ठीक-ठाक पैसा मिल जाता था तो घर वालों ने इस काम को ठीक ही समझा. बाद में टूरिस्टों का सामान बोकने के साथ-साथ गाइड का काम भी शुरू कर दिया. सुंदरढूंगा से पहले कठहलिया में हमारी जमीन हुई. 1975 में वहां एक पांच कमरों की कुटिया बना डाली. बाद में वहां कुछ बर्तन-बिस्तर के साथ ही जरूरी सामान भी रख लिया. शुरू-शुरू में उस कुटिया में बकरवाल और गांव वाले ही रहते थे बाद में टूरिस्ट भी रात बिताने लगे. सैपज्यू! सबके लिए वह कुटिया फ्री ठैरी! पैसे कैसे मांग सकता था किसी से. कोई-कोई टूरिस्ट ज़िद करते और अपने मन से कुछ पैसा दे जाने वाले हुए तो मना भी नहीं करता था. उनका भी तो सम्मान रखना हुआ. परदेशी आदमी प्यार से कुछ दे तो मना भी तो नही हो सकने वाला हुआ हो. सैपज्यू अब तो बहुत कुछ बदल गया ठैरा. ईमानदारी वाली बात तो जैसे सपना हो गई है लेकिन हमने अपना ईमान जो क्या बेच देना हुआ. चल ही रहा है. आगे भी चलता ही रहेगा. अब तो गांव में और लोग भी गाइड-पोर्टर के काम में लगे हैं. टूरिस्ट भी खूब आते हैं. लेकिन सैपज्यू गांव से आगे डूंगियाढॉन के पास जो रास्ता 2013 में खत्म हो गया था वह आज तक ठीक नही हो पाया है. सरकारी आदमी ऊपर बुग्यालों को खोद रास्ता बना रहे हैं लेकिन जो मुख्य रास्ता है उस पर कुछ भी नही हो रहा है. अब सरकार से लड़ जो क्या सकने वाले हुए हम गांव वाले. चल रहा है. आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा.”
रूपदा की बातें दिल को छू लेने वाली होती थीं. उनकी बात जायज है. पर्यटन के नाम पर सरकार पूरी दुनिया में ढोल पीटने में लगी है लेकिन जमीनी हकीकत बहुत ही भयावह है. इन क्षेत्रों में जो शख्स पहली बार ट्रैकिंग के लिए आता है वह फिर दोबारा आने की हिमाकत नही करता है. भ्रष्टाचार के दीमक ने हिमालयी रास्तों को भी निगल लिया है.
(Roop Singh aka Roopda Bageshwar)
‘रूपदा आपने अब तक कितनी हिमालयी चोटियां चढ़ीं.’ पूछने पर वह कुछ सोचते हुए बताते हैं, “भानूटी, दुर्गाकोट, टैंटपीक, मैकतोली, नंदाखाट, बल्जूरी, ट्रेलपास दर्रा…. गढ़वाल में भी तीन चोटियों पर पहुंचा लेकिन उनका नाम भूल गया.. एक बार तो पिंडारी के ऊपर अल्पाइन क्लाइम्बिंग में तो दो बंगालियों के साथ मैंने एक रस्सी के सहारे ही रात काटी. तीन सौ मीटर की रोप फिक्स कर रखी थी, मौसम खराब हो गया था जबकि समिट बस सौ मीटर आगे था. नीचे उतरने में भी खतरा था. रात भर बंगाली साथियों को दिलासा देते रहा कि सब ठीक हो जाएगा. दूसरे दिन जब हमने समिट पूरा किया तो वे दोनों गले लगकर रोने लगे थे. सैपज्यू बाकी तो याद नही हां 84-85 में भारी बर्फबारी में टूरिस्टों को कनकटा पास भी पार करवाया सैपज्यू. पूरी उम्र बीत गई इस हिमालय में तो. अब लड़का, चामू भी इसी काम में लग गया है. ठीक ही ठैरा हो. वैसे भी यहां टूरिस्टों को घुमाने के अलावा और क्या होने वाला ठैरा.?”
अड़सठ वर्ष की दहलीज पर पहुंच चुके रूपदा के नाटे किन्तु गठीले शरीर को देखकर शायद ही कोई यकीन करे कि यह वही शख्स है जिसने अपने लड़कपन से अब तक न जाने कितने पर्वतारोहियों और पथारोहियों की जान बचाई है. पर्वतारोही भुवन चौबे बताते हैं, “अक्टूबर 2009 में उनका एक ग्रुप बल्जूरी चोटी की क्लाइम्बिंग पर था. तब रूपदा बतौर मुख्य गाइड साथ में थे. कैंप वन पहुंचे तो रात भर भारी बर्फबारी होते रही. सारी रात तम्बुओं के ऊपर गिर रही बर्फ को वो हटाते रहे. सुबह जब बर्फबारी थमी तो आगे का नजारा देख लगा कि अब तो बल्जूरी चोटी पर चढ़ना मुश्किल ही है. कैंप टू के आगे समिट कैंप का रास्ता ताज़ी बर्फ से पटा हुआ था. रूपदा ने नंदाखाट शिखर की तलहटी में पसरे ग्लेशियर से चढ़ने का सुझाव दिया. रूपदा का कहना था कि इस पुराने रूट में ताजी बर्फ से कैरावास बर्फ से ढक गए होंगे, इस पर जाने में जान का जोखिम होगा. रूपदा अनुभवी हुए तो उनकी राय को सर्वसम्मति से मान लिया गया. आगे-आगे रूपदा और उसके पीछे हमारी टीम चल पड़ी. ग्लेशियर की ताजा बर्फ में चलना मुश्किल हो रहा था और उधर रूपदा कस्तूरी मृग की तरह कुलांचे भरते हुए हमें जल्दी आने का इशारा करते थे. उस वक्त रूपदा न होते तो शायद हम कैंप वन से ही वापस लौट आते, लेकिन रूपदा की वजह से हमारा अभियान संभव हो पाया.”
(Roop Singh aka Roopda Bageshwar)
भुवन चौबे बताते हैं कि, ‘वर्ष 2013 की आपदा में पिथौरागढ़ का एक दल कोर्स के तहत पिंडारी गया था. तब द्वाली में पैदल पुल आपदा की चपेट में आ बह गए थे. तब द्वाली में बच्चों के साथ ही कई पर्यटक भी फस गए. भारी बारिश से हवाई रेस्क्यू अभियान भी नही हो पा रहा था. इधर राशन खत्म होने पर रूपदा अपने साथ दोएक साथियों को ले पिंडारी में स्वामी धर्मानंद की कुटिया में मदद के लिए पहुंचे. स्वामीजी ने भी दिल खोल कर उन्हें राशन दिया. लेकिन तीनेक दिन में ही राशन जब खत्म होने लगा था और मौसम खुलने पर रूपदा ने वहां फसे लोगों को समझाया कि यहीं फसे रह भूखे मरने से तो अच्छा है कि कुछ किया ही जाए. मजबूत तने वाले लंबे पेड़ों को काट पिंडर नदी के किनारे तक पहुंचाने में बच्चों से लेकर हर किसी ने मदद की. अपने अनुभव से रूपदा ने पिंडर नदी में एक जगह पर एक पेड़ को रस्सियों की मदद से नदी के एक छोर से दूसरे छोर पर रख खुद ही उसमें घोड़े में सवारी करने के तरीके की तरह उफनती नदी को पार कर लिया. दूसरी छोर से फसी टीम पेड़ों को रस्सियों के सहारे दूसरे छोर में डालती रही और कुशल कारीगर की तरह रूपदा उन्हें पुल की शक्ल में डालते चले गए. अंधेरा होने से पहले सभी लोगों ने पिंडर नदी को पार कर लिया था. मौसम साफ था तो अगले दिन हैली द्वाली की परिक्रमा कर आया और रास्ते में कुछेक राशन के पैकेट गिरा कर उपनी ड्यूटी कर चलते बना. वो राशन के पैकेट भी घने जंगलों में अटके रहे. रूपदा के नेतृत्व में सभी खाती गांव की ओर बढ़ रहे थे. खाती गांव से पहले पिंडर नदी में बना पुल भी बह गया था. रेस्क्यू में आए आर्मी के जवानों ने वहां पेड़ के तनों से अस्थाई पैदल पुल बना दिए थे. सभी सुरक्षित खाती गांव पहुंचे तो उन्होंने रूपदा को कांधों में बिठा लिया.’
छोटा बच्चा हो या सयाना, जान-पहचान वाले हर किसी के लिए वह रूपदा ही हुए. “आजकल जब टूरिस्ट नहीं होते हैं तब क्या करते हैं?” इस पर रूपदा मासूमियत से बताते हैं, “सैपज्यू कुछेक खच्चर-घोड़े ले रखे हैं. सामान ढोने का काम कर लेता हूं. घर का खर्चा निकल जाता है और कुछ बचत भी हो जाती है.”
हिमालय की गोद में सदियों पहले पूर्वजों द्वारा शुरू की गई कठिन जीवन की अपनी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले ऐसे जीवट लोग विरले ही होते हैं. ऐसे ही बेमिसाल हिमालय पुत्रों में से एक रूप सिंह भी हैं.
(Roop Singh aka Roopda Bageshwar)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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