आशीष ठाकुर
आशीष मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं.फिलहाल पिछले 15 वर्षों से मुंबई में रहते हैं. पहले एडवरटाइजिंग, फिर टेलीविज़न और अब फ्रीलांसिंग करते हुए मीडिया से जुड़े हुए हैं. फिल्मों और साहित्य से गहरा जुड़ाव रखते हैं और फिलहाल इसी क्षेत्र में कुछ बेहतर करने के लिए प्रयासरत है.
दी पास्ट , असग़र फरहादी का मैजिक
असग़र फरहादी के यहाँ ऑब्वियस कुछ भी नहीं. जो दिखता है उससे कहीं बहुत ज्यादा मिलता है. फरहादी का सिनेमा ज़िन्दगी का सिनेमा है. यहाँ परत है, परत के नीचे परत है. रिश्तों को खोदते चले जाओ, इंसान के अंदर उतरते चले जाओ. फरहादी के सिनेमा की ख़ासियत ये है वो ऊँगली पकड़ के साथ तो चलता है
लेकिन आप उस पर भरोसा करने लगते हो, वो अचानक से आपको गहरी खाई में धकेल देता है. यहाँ नाखून से खुरच-खुरच कर रिश्तों और इंसान को खोदा जाता है.
यहाँ सिले-सिले से ज़ख्म हैं जो गीली लकड़ियों की तरह जलते रहते हैं. “दी पास्ट ” का कैनवास कुछ ऐसा ही है. “अहमद ” चार सालों के बाद फ्रांस वापस आता है अपनी पत्नी “मैरी “को तलाक़ देने को. “मैरी ” अब तक एक अरब “समीर” के साथ रहने लगी है और उसके बच्चे कि माँ बनने वाली है. “समीर” जो कि पहले ही एक बच्चे का पिता है. उसकी पहली पत्नी सुसाइड करने की कोशिश में कोमा में जा चुकी है. “लुसी ” मैरी के सबसे पहले पति से हुई बेटी है जो कि मेरी और समीर के रिश्तें के ख़िलाफ़ है. रिश्तों के इस पेचीदा जंगल में हर कोई अपनी ख़ुशी चुनना चाहता है , अपनी ज़िन्दगी को सुलझाना चाहता है लेकिन हर चॉइस के बाद ज़िन्दगी और उलझती चले जाती है. यहाँ हर कोई मोरल डाइलेमा में है. सही और गलत की रेखा बहुत धुँधली हो चुकी है. सार्त्र ने कहा था ” हम जो चुनते हैं वही बन जाते हैं ”
लेकिन चुनाव की ये स्वतंत्रता क्या वाकई में इंसान को मिली है या वह मजबूर है चुनने के लिए. और अगर ये स्वंतत्रता मिली भी है तो क्या गारंटी कि वो जो चुनेगा सही ही चुनेगा. क्या इंसान अपने अतीत को छोड़ सकता है या अतीत ने इंसान को पकड़ रखा है. ऐसी कई सारी पेचीदगियों , कई उतार-चढ़ाव के बाद “दी पास्ट ” हमें एक ऐसे चौराहे पर छोड़ देती है जहाँ इंसान को अपना रास्ता चुनने कि आज़ादी तो है, लेकिन यह पहले से तय है कि उसे किस रस्ते पर चलना है. और उसके इस दुविधामय , कठोर प्रेजेंट के पीछे हाथ में तलवार लेकर खड़ा है उसका “दी पास्ट
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