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सिनेमा : इश्क़ की कोई उम्र नहीं होती

2007 में इजरायल, अमरीका और फ्रांस के सहयोग से बनी कथा फ़िल्म बैन्ड्स विज़िट संगीत से उपजे प्रेम की एक ऐसी कहानी है जो हर धड़कते हुए दिल में कभी न कभी जरूर उमड़ती है. यह अलग बात है कि प्रेम कहानियों को फार्मूले की तरह अपनानेवाले हमारे अपने फिल्म उद्योग में ऐसी कहानी पर किसी निर्माता का दिल नहीं आता. यह आठ पुरुष सदस्यों वाले कलाकारों का बैंड है जो सब पुलिस के महकमे से जुड़े हैं. यह बैंड भी है और पुलिस का भी है. इसलिए इस बैंड में संगीत होने की वजह से थोड़ा रस है और चूंकि यह पुलिस के महकमे का है इसलिए यह थोड़ा नीरस भी है. पूरी फ़िल्म इस नीरस के रस में बदलने की ही कहानी है.

यूं तो यह दल मिस्र से इजरायल में प्रदर्शन के लिए आया है लेकिन उनके आयोजकों के खस्ताहाल का अंदेशा उनके हवाई अड्डे पर उतरने से ही पता चल जाता है जब बहुत देर तक उन्हें लेने कोई गाड़ी नहीं आती. जैसे तैसे करके वे बीच के एक शहर में पहुंचते हैं जहाँ के एक रेस्त्रां की अधेड़ मालकिन का दिल पुलिस बैंड के मनहूस बुजुर्ग लीडर पर आ जाता है. यहाँ आँखों ही आँखों में प्यार होने का मुआमला शुरू हो जाता है. अधेड़ मालकिन खासी कमसिन और दिलफेंक है, इस नाते बैंड का एकदम युवा भी अपनी पींगें बढ़ाने की कोशिश करता है.

दिन भर की थकान के बाद बैंड के लोग दीना के रेस्त्रां की बीयर और उसकी मुस्कराहट से सुरूर में आने शुरू होते हैं. बैंड का नेता यानि बूढ़ा खूसट भी अब धीरे–धीरे थिरकता हुआ दिखता है. एक पहेली की तरह से प्रेम दीना, बैंड के बूढ़े नायक और युवा दिलफेंक के बीच घटता दिखाई देता है. दीना के लिए भी आठ संगीतज्ञों का यह दल उसके नीरस जीवन में व्यतिक्रम की तरह घटता मालूम देता है. मालूम हो कि बैंड के इस दल को कुछ देर के लिए ही इस रेस्त्रां में रुकना था लेकिन दीना के प्रस्ताव करने पर वे सहज ही वहीं रुक जाने को तैयार हो जाते हैं. शायद इसलिए भी क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं था और इसलिए भी क्योंकि उन्हें वहां अच्छा लगने लगा. अब पूरा दल सुकून के साथ पार्टी में झूमने लगा. इसदिल फेंक अधेड़ औरत कीव जह से बूढ़ा फ़िल्म में पहली बार किसी म्यूजिक बैंड के उस्ताद जैसा दिख रहा था. सारी रात प्रेम की चुहल में गहराती रही और सुबह बिना किसी नाटकीय अंत के वे चुपचाप एक कशिश लिए विदा हो गए.

संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.

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Sudhir Kumar

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