यह आलेख हमें हमारे पाठक कमलेश जोशी ने भेजा है. यदि आप के पास भी ऐसा कुछ बताने को हो तो हमें kafaltree2018@gmail.com पर मेल में भेज सकते हैं.
उत्तराखण्ड राज्य की माँग को लेकर खटीमा सड़कों पर उतरे आंदोलनकारियों पर 1 सितम्बर 1994 को गोलियॉं बरसायी गई जिसमें 7 आंदोलनकारी शहीद हुए और 165 घायल हुए. तब से हर वर्ष 1 सितम्बर शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है लेकिन असल सवाल ये है कि शहीदों की शहादत के बाद एक अलग राज्य तो हमें मिला पर क्या वो राज्य कभी उन शहीदों के सपनों का राज्य बन पाया? कहॉं तो सपना था कि उत्तर प्रदेश की उपेक्षाओं का शिकार हिमालयी क्षेत्र अलग राज्य के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाएगा और विकसित राज्यों की तुलना में सबसे अग्रणी होगा, परन्तु हुआ ठीक इसका उल्टा.
राज्य निर्माण के तुरन्त बाद राजनीतिक बंदरबाँट शुरू हो गई. खनिज, वन संपदाओं से धनी राज्य में माफियाराज आरम्भ हुआ और राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण में माफियाओं ने ख़ूब मलाई खाई. जंगल माफिया, रेत माफिया, भू माफिया, लीसा माफिया, मिट्टी माफिया, पत्थर माफ़ियाओं ने राज्य में ख़ूब तबाही मचाई. पहाड़ों के विकास के नाम पर राज्य का गठन हुआ और सारा का सारा विकास देहरादून, हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर और नैनीताल के मैदानी क्षेत्र तक सिमट के रह गया. देहरादून को अस्थाई राजधानी के रूप में स्वीकार्यता मिली और तय किया गया कि बाद में राजधानी गैरसैंण स्थापित की जाएगी लेकिन राजधानी स्थानांतरण के लिए राज्य आंदोलनकरी आजतक संघर्षरत हैं.
राज्य को बने 18 वर्ष भी नहीं हुए और अब तक हम 8 मुख्यमंत्री देख चुके हैं. स्थिर सरकार में 18 वर्ष की समयावधि पर क़ायदे से 4 मुख्यमंत्री ही बन सकते हैं. नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री अपने 5 साल का कार्यकाल तक पूर्ण नहीं कर पाया ऊपर से राज्य दो बार राष्ट्रपति शासन तक देख चुका है.
राजनीतिक अस्थिरता, नेताओं की अकर्मण्यता और लोगों की चुप्पी ने राज्य को ऐसे मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहॉं अगस्त्यमुनि जैसे क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे व उत्तरकाशी में बलात्कार जैसी घटनाओं को खुले में अंजाम दिया जाने लगा है.
पहाड़ों को विकास के नाम पर विनाश की ओर ढकेला जा रहा है. जहॉं सतत विकास की ज़रूरत है वहॉं अंधाधुँध पेड़ों व पहाड़ों की कटाई की जा रही है. पलायन का हाल ये है कि दिल्ली को आप ‘छोटा उत्तराखंड’ कह सकते हैं. हज़ारों गॉंव ख़ाली हो चुके हैं. पलायन पर कभी मैंने एक कविता लिखी थी जो वर्तमान परिस्थिति में सटीक बैठती है:
पहाड़ों में घर हैं लेकिन,
घरों में लोग नहीं.
बंद दरवाज़े, उनमें ताले,
गहन सन्नाटा, शोर नहीं.
सूना आँगन, बंजर ज़मीं,
ख़ाली खेत, कोई पौर नहीं.
सिकुड़ते गॉंव, दरकते घर,
ख़बर नहीं, कोई खोज नहीं.
नारंग, पूलम, काफ़ल के पेड़,
हैं लेकिन, खाने को लोग नहीं.
कुछ घर खुले हैं, बुज़ुर्गों के दम पर,
कब बंद हों जाएँ, कोई गौर नहीं.
आख़िर क्यों है ये सब पहाड़ों में,
कि कोई अपनी ठौर नहीं.
पलायन ने यूँ क़हर बरपाया कि,
पहाड़ वीरान हुए कुछ और नहीं.
कुल मिलाकर राज्य आंदोलनकरायों के सपनों का उत्तराचंल हम नहीं दे पाए. राज्य की अकर्मण्य सरकारों के ख़िलाफ़ हम सबको आवाज़ उठानी होगी तब जाकर सम्पन्न, समृद्ध और लोकहितकारी राज्य का निर्माण हम कर पाएँगे.
खटीमा गोलीकांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों को नमन
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बहुत सुन्दर लाइने लिखी है भाई