Featured

जब लता मंगेशकर को 500 रुपये मिलते थे, के. आसिफ ने उन्हें एक गाने के 25000 रुपये दिए थे

पटियाला घराने के खलीफा गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब का जन्म आज ही दिन यानी 2 अप्रैल 1902 को ब्रिटिश भारत की पंजाब रियासत के कसूर नामक स्थान पर हुआ था. विभाजन के बाद कसूर पाकिस्तान का हिस्सा हो गया था. उनके पिता अली बख्श खान अपने समय के विख्यात गवैये थे.

उस्ताद ने कुल सात साल की आयु में सारंगी बजाना सीखने के अलावा अपने चाचा काले खान से गायन सीखना शुरू किया. तीन साल तक चले इस प्रशिक्षण के बाद उस्ताद ने क़ानून के नाम से जाने जाने वाले संगीत उपकरण को अपने गायन के लिए ढाला और उसे स्वरमंडल का नाम दिया जो बाद में उनकी गायकी का ट्रेडमार्क बना.

जब वे इक्कीस साल के हुए, वे बनारस चले आये जहाँ उन्हिएँ ज़ाराबाई नामक एक गायिका के साथ सारंगी बजाना शुरू किया और सार्वजनिक समारोहों में भाग लेना शुरू किया.

हालांकि उन्होंने महिला गायकों के साथ सांगत करने से अपना करियर शुरू किया था, कभी कभार वे अपने चाचा से सीखी बंदिशें भी गा लिया करते थे. वे पटियाला गायकी के दो बड़े उस्तादों – उस्ताद अख्तर हुसैन खान और उस्ताद आशिक अली खान – के शागिर्द भी थे. कलकत्ता में अपनी पहली कंसर्ट के बाद उन्होंने लोकप्रियता अर्जित करनी शुरू कर दी थी.

उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब ने चार परम्पराओं को बखूबी एक साथ निभाया – उनकी अपनी पटियाला-कसूर गायकी, ध्रुपद की बहराम खान वाली परम्परा, जयपुर की ले और ग्वालियर के बहलावे.

उनकी आवाज़ का दायरा बहुत बड़ा था और वे तीन औक्टेव्स तक पहुँच सकते थे. परंपरा के बरखिलाफ उनकी रागों की रचनाएं संक्षिप्त होती थीं. वे मानते थे कि भारतीय शास्त्रीय संगीत का सौन्दर्य रागों को आराम से इम्प्रोवाइज करने में निहित होता है लेकिन उनका यह भी यकीन था कि श्रोताओं को लम्बे आलाप पसंद नहीं आते और चूंकि उन्हें लोगों के लिए गाना था इसलिए ज़रूरी था कि वे श्रोताओं की पसंद का ध्यान रखते हुए अपने संगीत में वांछित बदलाव करें.

विभाजन के बाद वे अपने घर पाकिस्तान चले गए लेकिन जल्द ही वापस भारत लौट आये और मृत्युपर्यंत यहीं रहे. वे विभाजन के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने एक बार कहा था : “अगर हर परिवार के एक बच्चे को भारतीय शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो देश का बंटवारा नहीं होता!”

1957 में मोरारजी देसाई की मदद से उन्हें भारतीय नागरिकता हासिल हुई और वे बंबई के मालाबार हिल के बंगले में रहने लगे. इसके अलावा वे लाहौर, कलकत्ता और हिदाराबाद में भी रहे.

बहुत लम्बे समय तक उस्ताद ने असंख्य अनुरोधों के बावजूद बंबई की फ़िल्मी दुनिया से दूरी बनाए रखी लेकिन 1960 में के. आसिफ ने अपनी क्लासिक फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में गाने के लिए उन्हें मना ही लिया. इस फिल्म में उन्होंने राग सोहनी और राग रागश्री में कम्पोज किये गए दो गाने गाये. फिल्म का संगीत नौशाद ने दिया था. कहा जाता है कि के. आसिफ को टालने की नीयत से उन्होंने यह सोच कर कहलवा दिया था कि वे एक गाने के पच्चीस हज़ार रुपये लेंगे क्योंकि उन दिनों मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर जैसे गायकों को एक गाने के पांच सौ रुपए मिलते थे.

उन्हें 1962 में पद्म भूषण की पदवी से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान भी मिला.

1968 में लम्बी बीमारी के बाद हैदराबाद के बशीरबाग पैलेस में उनका देहांत हुआ.

वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

14 hours ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

4 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

4 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

4 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

4 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

5 days ago