समाज

पहाड़ में लखनऊ का ‘टाइगर’

प्रिय टाइगर,

लगभग एक महीना हो गया है आपको गये हुए, अभी भी लगता है काश मैं वापस उस दिन, उस समय में जाकर उसे बदल सकती और आपको वापस ला पाती, पर कुछ फैसलों के लिए हमारे पास अफ़सोस करने के आलावा कोई विकल्प नहीं होता.     

टाइगर, हमारे परिवार का सबसे ख़ास सदस्य था (लगभग एक महीने से वह लापता है, हमें शक है कि उसे तेंदुआ खा गया. हमने अपनी आँखों से कुछ देखा नहीं, इसलिए उम्मीद है शायद वह वापस आये, दिल तो यही कहता और चाहता है) जिसके बिना घर के किसी सदस्य का न तो दिन शुरू होता था न ख़त्म. उसने अपने प्यार और आदतों से इस कदर हमारे दिलों में घर कर लिया कि वह हमारी जिंदगी का एक हिस्सा बन गया.       

कुछ साल पहले की बात है, मैं दिल्ली में रहती थी, घर पर मम्मी पापा से बात करके पता चला कि भाई लखनऊ से कुत्ता(जर्मन शेफर्ड) खरीदकर ला रहा है. मम्मी पापा और मेरी प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं थी, हम सोच रहे थे इतनी दूर से (और इतना महंगा) कुत्ता क्यों लाया जा रहा है, वो यहाँ पहाड़ों में किस काम का, न तो बन्दर भगाएगा और न ही कुछ और काम आएगा, ऊपर से उसकी देखभाल की जिम्मेदारी और बढ़ जायेगी.

मेरी बहुत ही धुंधली सी याददाश्त है कि टाइगर को लखनऊ से लाया कैसे गया, उसका बचपन कैसा था क्योंकि मैं उससे मिली नहीं थी, मम्मी पापा से फ़ोन पर थोड़ी बहुत बात उसके बारे में भी हो जाया करती होगी पर मेरी कोई खासी रूचि नहीं होती इसलिए ठीक से कुछ याद भी नहीं. इस महीने उसके जाने के बाद मैंने दीदी से पूछा तो उन्होंने बताया कि टाइगर मार्च 2017 में हमारी जिंदगी में आया था, तब वह 2-3 महीने का होगा जब उसे लखनऊ में दीदी के घर लाया गया, फिर उसी साल जून में दीदी और भाई उसे घर(पहाड़) लेकर आये.  

टाइगर जब लखनऊ से आया था तो मम्मी पापा बताते थे कि वह ठीक से चल नहीं पाता था क्योंकि वह पहली बार पहाड़ आया था, उसके लिए ये पहाड़ी रास्ते बड़े दुर्गम थे, लेकिन धीरे–धीरे उसने इन रास्तों से दोस्ती कर ली और फिर जिस स्पीड से वह बन्दर और लंगूर भगाने भागता, लोग देखकर हैरान रह जाते. एक बार बन्दर भगाने गया तो काँटों में कूद गया और चोट लग गयी, उसके शरीर में एक लकड़ी घुस गयी जिसकी जानकारी मम्मी पापा को तब लगी जब उसकी चोट से मवाद निकलने लग गया और उसकी हालत बहुत खराब हो गयी, फिर उसका इलाज किया गया और वो ठीक हो गया.

एक बार पता चला कि टाइगर पर तेंदुवे ने हमला किया, वह जैसे तैसे बच गया (शायद उस दिन हमारी किस्मत अच्छी थी). पापा घर से 15 किलोमीटर दूर, हॉस्पिटल से दवा लाये, समय लगा लेकिन वह इस दर्द से भी उबर गया. यह सारी सूचनाएं मुझे फ़ोन पर मिलती रहतीं, बुरा तो लगता था पर कभी उसका वो दर्द महसूस नहीं हुआ, शायद इसलिए क्योंकि तब तक टाइगर और मेरी वो दोस्ती नहीं हुयी थी, क्योंकि तब मैं मुश्किल से साल में एक बार ही घर आती और तभी टाइगर से भी मुलाकात होती.

मुझे यह भी याद नहीं कि टाइगर से पहली बार मैं कब मिली और यह मुलाकात कैसी थी, टाइगर और मेरा साथ मुझे दिसंबर 2018 के बाद से याद है जब मैं दिल्ली से अपने दोस्तों के साथ घर आई थी, तब भी कुछ दशेक दिन रहकर वापस चली गयी. बीच में फिर एक दो बार आई फिर वापस चली गयी.

अगस्त 2019 में, मैं दिल्ली से वापस आ गयी, तब शुरू हुआ टाइगर और मेरा दोस्ताना. टाइगर मुझे देखकर ही भागकर आता, प्यार और उत्सुकता से मेरे ऊपर कूदने लगता इसलिए मैं उसको डराने के लिए लकड़ी लेकर आती ताकि वो मेरे ऊपर कूदकर मुझे गिरा न दे. फिर टाइगर चूं चूं की आवाज निकालकर आगे पीछे मडराता रहता जब तक कि उसको खाने को कुछ न मिले. कुछ मिल जाता तो खाकर एक जगह जाकर बैठ जाता, उसका नाम लेकर बात करो तो पूंछ हिलाकर आगे-पीछे घूमने लगता.

फिर मैंने घर के पास ही काम करना शुरू किया, मैं अक्सर महीने में दो से तीन बार घर चली जाती, घर जाते हुए मुझे किसी बात की इतनी ख़ुशी नहीं होती जितनी टाइगर से मिलने की, आंखिर हो भी क्यों न, घर से 300 मीटर ऊपर मंदिर की जब मैं घंटी बजाती तो टाइगर भागा- भागा मिलने आता, वह मुलाकात इतनी आत्मीय होती कि शब्दों में बयान नहीं की जा सकती. मुझसे मिलने पर टाइगर से ज्यादा खुश शायद ही कोई हुआ हो, और टाइगर का यह प्यार सिर्फ मेरे लिए नहीं बल्कि घर के सभी सदस्यों के लिए था.

सुबह आप चैन की नींद नहीं सो सकते क्योंकि सुबह होते ही टाइगर कभी चिड़िया तो कभी लोगों को देखकर भौंकना शुरू कर देता (तेंदुवे के हमले के बाद शायद थोड़ा- थोड़ा डर में भी भौंकता) . जैसे ही आप उठकर बाहर आओ तो दरवाजे पर ही मिलने आ जाता. कभी दरवाजा खुला मिल गया तो बिस्तर में आकर उठाने लगता.   

हम कहीं जाएँ, टाइगर पीछे-पीछे न आये ऐसा हो ही नहीं सकता, उसको हर जगह रहना होता. मम्मी जैसे ही घास काटने जाने के लिए तैयार होती, वो रास्ते में बैठ जाता. मम्मी के साथ जाकर थोड़ी देर ऊपर नीचे वहीँ घूमता, फिर वापस घर आ जाता, मम्मी को देरी हो जाती तो फिर वापस उनको देखने जाता. मम्मी हमेशा कहती टाइगर मेरे साथ रहता है तो मुझे किसी का डर नहीं रहता.

पापा सुबह से शाम तक टाइगर को डाँटते रहते, मानो जैसे किसी इंसान पर गुस्सा कर रहे हों, अगर वो बोल पाता तो दिन भर इनका महाभारत चलता रहता. पापा गुस्सा तो करते थे लेकिन सबसे ज्यादा प्यार भी टाइगर से वही करते थे, सुबह – सुबह टाइगर कहीं न कहीं पॉटी करके आता, पापा ही उसकी पॉटी साफ़ करते, बन्दरों के पीछे भागता और पास के गधेरे में मिट्टी या कीचड में लोट पोट होकर आ जाता तो नहलाते भी पापा ही थे, बीमार हो गया तो दवाई भी पापा ही लेकर  आते और न जाने कैसे – कैसे तरीके ढूंढ़कर टाइगर को दवाई खिलाई जाती.      

हमारा कोई भी काम टाइगर के बिना तो होता ही नहीं था. उसको कुछ होता तो हम सब परेशान हो जाते और दिन भर उस पर गुस्सा किये बिना भी चैन नहीं आता. अपने बर्तन को छोडकर किसी भी बर्तन से पानी पीने लगता इसलिए मैं गुस्सा करती रहती, रास्ते में कहीं पॉटी कर आता इसलिए पापा गुस्सा करते क्योंकि साफ़ वही करते. खाना खाते समय मुझे खाने में उसी के बाल मिलते इसलिए नीचे बैठकर खाना नहीं खाती थी, पिछले साल अचार के लिए आम काटकर सुखाने डाले तो उसमें भी टाइगर के बाल चिपक गये. अब टाइगर नहीं है तो सोचती हूँ काश वो होता, भले ही हर जगह उसके बाल होते, किसी भी बर्तन से पानी पी लेता, कहीं भी पॉटी कर लेता, सुबह- सुबह भौंककर नींद से जगा देता, मुझे कोई शिकायत नहीं होती. उस अचार में, अपने खाने में, मैं अभी भी उसके बाल ढूढती हूँ.

टाइगर हम सबके खाने के बाद खाना खाता था, अब जब हम खाना खा लेते हैं तो लगता है अभी टाइगर को भी तो खाना देना है, रोटी बनाते हुए लगता है अभी आंखिरी में टाइगर के लिए मोटी- मोटी रोटी बनानी है, और फिर उसके होने का भ्रम टूटता है और हम वापस सच्चाई से रुबरु होते हैं  कि वो तो है ही नहीं.    

टाइगर आपको उस दिन के बाद हमने देखा तो नहीं है न ही हम यह जानते हैं कि आप इस दुनिया में हो भी या नही लेकिन नजरें अभी भी आपको ढूंढती हैं. मुझे ऐसा लगता है कि आप कहीं से दौड़कर आओगे और मेरे ऊपर कूदने लगोगे और तब मैं अपनी सारी शिकायतें आपसे करुँगी कि कितना मुश्किल हो रहा था आपके बिना रहना, कैसे रोये हैं हम सब लोग. सबसे ज्यादा परेशान तो बन्दर और लंगूर करते हैं जो आपके रहते घर के आस – पास भटकते भी नहीं थे.    

बहुत मुश्किल है हम सबकी जिंदगी आपके बिना खासकर मम्मी और पापा की, इसलिए जब भी याद आये वापस चले आना हमारे पास, हम यहीं मिलेंगे.  

आपके इंतज़ार में…

-उमा कापड़ी                

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उमा के इस लेख को भी पढ़ें: बचपन की यादों का पिटारा घुघुतिया त्यार

उमा कापड़ी

1 फरवरी 1993 को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के बलगड़ी गांव में जन्मीं उमा कापड़ी (हालांकि सरकारी प्रमाणपत्रों में यह 10 अगस्त 1993 दर्ज है) ने पुरानाथल से दसवीं तक पढ़ाई की. उसके बाद वे नोएडा आ गईं और वहीं से उन्होंने 11वीं और 12 वीं की पढाई की. दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान की स्नातक उमा ने कुछ समय तक ‘जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय’ (NAPM) से जुड़कर काम किया . वर्तमान में उन्होंने वापस अपने गाँव आकर कुछ करने का फैसला किया है. पिछले एक महीने से वे अपने गाँव में ही रह रही हैं.

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