हिंदी भाषा के सबसे बड़े रचनाकार के रूप में आज भी प्रेमचंद की ही मान्यता है. हिंदी गद्य को आधुनिक रूप देकर उसे आम जन के बीच लोकप्रिय बनाने का काम उनका बहुत ख़ास है. प्रेमचंद ने न सिर्फ विविध विधाओं में लिखकर हिंदी गद्य को विकसित किया बल्कि भाषा के जरिये समाज और राजनीति को भी प्रभावित किया. भाषा के महत्व को समझते हुए उम्र के एक पड़ाव के बाद वे सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह भाषा और साहित्य के होलटाइमर बन गए. बकायदा एक प्रिंटिंग प्रेस खोला, प्रकाशन शुरू किया और ‘हंस’ नाम से मासिक पत्रिका भी शुरू की. सिनेमा के महत्व को जानकार वे मौका लगते ही बम्बई भी गए और बहुत सी महत्वपूर्ण फ़िल्मों को तैयार होने में जरुरी भूमिका निभाई.
1980 में जब हिंदी समाज अपने तरीके से प्रेमचंद की जन्मशती मना रहा था तब हिंदी के युवा कवि और प्रखर ब्रॉडकास्टर कुबेर दत्त ने दूरदर्शन में नौकरी करते हुए प्रेमचंद पर 47 मिनट की एक दस्तावेज़ी फ़िल्म का निर्माण किया. इस फ़िल्म में प्रेमचंद संबंधी बहुत सी जरुरी सूचनायें हैं मसलन वे कहाँ पैदा हुए , उनका बचपन, शिक्षा –दीक्षा वगैरह. लेकिन जो बात इस दस्तावेज़ी फ़िल्म को महत्वपूर्ण दस्तावेज़ का दर्जा देती है वह है इस फ़िल्म का शुरुआती हिस्सा जब दूरदर्शन का कैमरा प्रेमचंद के पैत्रक गावं लमही पहुँचता है. प्रेमचंद के घर की दुर्दशा को कुबेर कई कोणों से दिखाने की कोशिश करते हैं. कुबेर प्रेमचंद के घर की दुर्दशा के बहाने असल में उनकी स्मृति को आम जन द्वारा और सरकार द्वारा न संजो सकने की कहानी कहने की कोशिश कर रहे थे. 1980 के बाद आज 2017 में इस स्मृतिविहीनता के मायने अच्छी तरह समझ में आने लगे हैं जब पब्लिक डोमेन में किसी भी तरह का संवेदन और तार्किक विचार बच नहीं सका है. हाल ही में धर्म के नाम पर एक पखवाड़े तक चली कांवड़ यात्रा समाज में व्याप्त अविवेक का सटीक उदहारण है.
यह इसलिए भी जरुरी फ़िल्म है क्योंकि यह बार –बार प्रेमचंद के महत्व को रेखांकित करने की कोशिश करती है. इस सन्दर्भ में लमही में रिकार्ड किया एक बुजुर्ग ग्रामवासी का इंटरव्यू मानीखेज है. बुजुर्ग ग्रामवासी प्रेमचंद की सादगी और शब्दों के प्रति उनके गहरे विश्वास को बहुत सहज तरीके से रेखांकित करते हैं. इसी तरह उस समय बनारस में रह रहे वयोवृद्ध कला मर्मज्ञ रायकृष्ण दास का इंटरव्यू भी ख़ास है जिसमे वे प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के संबंधों पर टिप्पणी करते हैं उनके अंतर का फ़र्क समझाते हैं.
फ़िल्म समाज में कलाकार की जिस दुर्दशा की तरफ इशारा करती है खुद भी उसका शिकार है. संभवत यह फ़िल्म दूरदर्शन में नए बने आर्काइव के संचालकों की वजह से पब्लिक डोमेन में उपलब्ध हो सकी. उपेक्षा में पड़े रहने के कारण इसके कई हिस्से बहुत मुश्किल से समझ में आते हैं. लेकिन फिर भी यह एक जरुरी दस्तावेज़ है. इसे अगर हम अपने बच्चों को बार –बार दिखाएँगे और खुद भी देखेंगे तब ही शायद हम किसी विवेकसम्मत समाज की रचना कर सकें .
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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