कला साहित्य

भारतीय किसान गोदान के ‘होरी’ से आज कितने बेहतर हैं?

मुंशी प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) पर विशेष Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

वर्तमान परिदृश्य में यदि नीति- नियन्ताओं की मानें तो भारत कई दृष्टि से मजबूत व ऐतिहासिक फैसले लेने में समर्थ तथा  वैश्विक पटल पर इन दिनों चर्चित देशों में  शुमार है, इसलिए यह देखना बड़ा जरूरी है कि किसानों के हालात में इधर के सालों में कितने क्रांतिकारी बदलाव आये हैं? चूँकि भारत की संपूर्ण अर्थव्यवस्था की धूरी में किसान की गरिमामयी मौजूदगी से भला कौन अंजान है?

वर्तमान में  अखबार  व सोशल मीडिया में किसान- केंद्रित विषयों में बड़ी बड़ी बहसें, चर्चाएं हो रही हैं जिनमें  किसान संगठन के नेताओं, जानकारों की ‘पीड़ा व हुँकार’ सुनने को मिल रही है. लाख टके का सवाल यह है कि जमीनी स्तर पर भारतीय कृषि नीति में किसानों के हित किस हद तक पूरे हुए या हो रहे हैं? Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

उनकी आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता की जमीनी पड़ताल मुंशी प्रेमचंद के गोदान के होरी के बहाने आज कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.

प्रेमचंद की ३१ जुलाई को जयंती के अवसर पर यह यक्ष प्रश्न सामने है कि उनके साहित्य में किसान की दयनीय दशा के लिए सरकारी तंत्र से लेकर जमींदार , महाजन व उसके कारिन्दे  सभी किस तरह का जुल्म ढा रहे थे. Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

इस जुल्मी मनोविज्ञान के कारक तत्वों को समझना होगा.

मुंशी जी गोदान रचना से पहले कुछ कहानियाँ और उपन्यासों का अध्ययन करके बाकायदे अपने वक्त के किसानों की यथार्थ दशा से भलीभाँति परिचित हो गये थे. इन परिस्थितियों को भाँपकर उन्होंने गोदान जैसा बड़ा ग्रंथ लिखना जरूरी समझा. गोदान लिखने के करीब बीस साल पहले  जमाना अखबार के लेख में उन्होंने कहा था- ‘आगे आने वाला जमाना किसानों और मजदूरों का है.’ चूँकि उन्हें मालूम था कि भारत की सम्पन्नता व समृद्धि किसान के श्रम से ही संभव है.  गौरेतलब है खुद प्रेमचंद जिस निम्न मध्यवर्गीय परिवेश से आते हैं वहाँ इन मुसीबतों का जाल बिछा होना सामान्य बात थी. इसी नाते जब वे गोदान लिखने बैठे तो किसानों की जिंदगी से जुड़ी सारी मुश्किलात उनके सामने उभर आयीं .

होरी, जो गोदान का नायक है ,शोषण के धुँए में भटकता मिल जायेगा. वह कर्ज से दबा, निर्बल और थोड़ा रूढ़िवादी किसान है.वह पीढ़ियों ऋण में पिसने को अभिशप्त है. उसके अलावा धनिया, शोभा, झुनिया, गोबर के माध्यम से प्रेमचंद ने जिस हिंदुस्तानी गाँव की शक्ल तैयार की है , वह सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं , पूरे देश की सच्ची तस्वीर है, तो वहीं दूसरी तरफ नौकरशाही के हथकंडे व नये नये तरीकों की जिक्र है. सामंतशाही के उजले चेहरे, दारोगा , सिपाही, चौकीदार और दलालों की अंतहीन श्रृंखला के मकड़जाल में फँसा होरी मानो आतंक के ज्वालामुखी के मुहाने पर बेबस खड़ा है.

प्रेमचंद जिस किसान को देवता जैसे पूजनीय मानते हैं वह काफी हद तक अपनी धर्मभीरूता का भी शिकार है. कोरोना से भी खतरनाक इस  लक्षण से आज के किसानों को अछूता नहीं कहा जा सकता. निहायत ईश्वरवादी, अंधभक्ति का शिकार, टोने-टोटके में भरोसा करने में होरी बहुत आगे था. मातादीन पंडित,नोखेराम और लाला पाटेश्वरी के छल-पाखंड में फँसे बेचारे होरी को  छटपटाते दिखाकर मुंशी जी ने अच्छी खबर ली है. Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

धर्म और पूजापाठ के छल की चरम परिणति होरी के देहावसान के समय त्रासदी बन जाती है , जब उसकी पत्नी धनिया पंडित जी से कहती है–महाराज, मेरे घर में न गाय है न बछिया, यही बीस आने हैं, यही इनका गोदान है. धर्मपालकों काफिर भी  मन नहीं पसीजता वे कर्जा लेकर क्रिया-कर्म की प्रेरणा देने से नहीं चूकते, खैर मुंशी जी की होरी के बहाने किसानों की यथास्थितिवादी जीवनचर्या को सामने लाकर जिस तरह से पेश किया है वह अभूतपूर्व है.

आज आजादी के सत्तर साल बाद भी किसानों की कसमकश में कमी जरूर आई है परंतु अन्नदाता के सामने दुश्वारियाँ कम नहीं हैं.आज भी कर्ज के बोझ से कराहते किसान के पास विकल्प सीमित हैं. अक्सर आत्महत्याओं की खबरों सुनकर दिल दहल जाता है. किसान के उत्पाद संबंधी वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं. पेट्रोल- डीजल के दाम में इजाफा का ग्राफ किसी से छिपा नहीं है. बिचौलिये मजे मार रहे. छोटे किसान खासकर सब्जी और फल से संबंधित सरकार की ओर आस लगाये बैठे हैं, तो फसल की बेहतरी के लिए कुछ किसान आसमान की ओर टकटकी लगाये हैं. Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

कुछ प्रतिशत संपन्न किसानों को छोड़कर बकिये आज तक खेती की नयी तकनीक व संसाधनों के मामले में पीछे हैं.वे आज भी पानी के लिए बादल से गुहार लगाते मिल जायेंगे. किसानों की आत्महत्या वाली गुत्थी अभी अनसुलझी है. हाँ, इतना अवश्य है कि मौजूदा सरकार की वित्तमंत्री सीतारमण ने किसानों की दशा-दिशा बदलने के लिए ग्यारह प्रमुख बिन्दुओं पर बीस लाख करोड़ का पैकेज दिया है, जिसमें दसवाँ और ग्यारहवाँ बिंदु क्रमश: किसान अपनी मर्जी व सुविधानुसार अपने उत्पाद को कहीं भी बेंच सकते हैं तथा  फसल की गुणवत्ता के मानकीकरण के मुताबिक उन्हें एक निश्चित आमदनी देने पर विचार किया गया है.

देखने वाली बड़ी बात अब यही है कि किसानों के लिए हर सरकारों की औपचारिक घोषणाओं की तरह इसका भी यही हश्र तो कहीं नहीं होगा?

प्रेमचंद वास्तव में युगद्रष्ट्रा साहित्यकार थे. उनके संपूर्ण साहित्य के केंद्र में उपयोगितावाद और नीतिवाद अहम पक्ष है. जन के वास्तविक  उत्थान में ही, साहित्य व  देश के उत्थान मुंशी जी के साहित्य का  भरत- वाक्य है. गोदान जैसे ग्राम्यजीवन के अनूंठे महाकाव्य की मूल चेतना में जो मानवतावादी स्वर सर्वत्र विद्यमान है वही प्रेमचंद को विश्वस्तरीय कथाकार सिद्ध करने को पर्याप्त है. गोदान के अनेक पात्रों की रचना -सृष्टि इस उपन्यास को हर किसान  का जीवन- आख्यान है. असल में प्रेमचंद होरी और धनिया के जीवनजंजाल मे बदलाव की जो उत्कंठा-आकांक्षा पाले थे कि दोनों सुखी व सम्पन्न-समृद्धि जीवन जियें , वह अधूरा ही रह गया.  होरी के बहाने देश के हर एक किसान को संतापरहित व उच्चगामी देखने की लालसा पाले वह दुनिया से विदा हो गये. यह अपने आपमें  प्रेमचंद को विराट कथाशिल्पी की पहचान दिलाने  के लिए पर्याप्त है.उन्हें शत्- शत् नमन. Remembering Munshi Prem Chand on his Anniversary

यह भी पढ़ें: मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे: लता सुर-गाथा

लेखक

इस लेख के लेखक संतोषकुमार तिवारी प्रेमचंद साहित्य के अध्येता हैं. पेशे से अध्यापक व दो कविता संग्रह के रचनाकार संतोष नैनीताल के रामनगर में रहते हैं.

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