समाज

जब गिर्दा ने अपनी गठरी चुराने वाले को अपनी घड़ी देकर कहा – यार मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है

गिर्दा में अजीब सा फक्कड़पन था. वह हमेशा वर्तमान में रहते थे, भूत उनके मन मस्तिक में रहता था और नजरें हमेशा भविष्य पर. बावजूद वह भविष्य के प्रति बेफिक्र थे. वह जैसे विद्रोही बाहर से थे कमोबेश वैसा ही उन्होंने खासकर अपने स्वास्थ्य व शरीर के साथ किया. इसी कारण बीते कई वर्षों से शरीर उन्हें जवाब देने लगा था लेकिन उन्होंने कभी किसी से किसी प्रकार की मदद नहीं ली वरन वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरों पर अपने ज्ञान के साथ जो भी संभव होता लुटाने से परहेज न करते. ऐसा ही एक वाकया लखीमपुर खीरी में हुआ था जब एक चोर उनकी गठरी चुरा ले गया तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौंप दी थी कि ‘यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है.’
(Girda the Poet of the People)

गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया और लोनिवि मे वर्कचार्ज कर्मी विद्युत निगम में क्लर्क के साथ ही आकाशवाणी से भी संबंद्ध रहे. पूरनपुर (यूपी) में उन्होंने नौटंकी भी की और बाद में सन् 1967 से गीत व नाटक प्रभाग भारत सरकार में नौकरी की और सेवानिवृत्ति से चार वर्ष पूर्व 1990 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली.

वर्ष 1945 में अल्मोड़ा जनपद के हवालबाग के निकट ज्योली गांव में हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही है कि उत्तराखंड के एक एक गांव की छोटी से छोटी भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारी के जीवित इनसाइक्लोपीडिया होने के बावजूद उन्हें अपनी जन्म तिथि का ठीक से ज्ञान नहीं था.

1977 में केंद्र सरकार की नौकरी में होने के बावजूद वह वनांदोलन में न केवल कूदे वरन उच्चकुलीन होने को बावजूद हुड़का बजाते हुए सड़क पर आंदोलन की अलख जगाकर औरों को भी प्रोत्साहित करने लगे. इसी दौरान नैनीताल क्लब को छात्रों द्वारा जलाने पर गिर्दा हल्द्वानी जेल भेजे गए.

इस दौरान उनक फक्कड़पन का आलम यह था कि वह मल्लीताल में नेपाली गजदूरों के साथ रहते थे. उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम चलता फिरता रेडियो बन गए. वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का नैनीताल बुलेटिन तल्लीताल डांठ पर पढ़ने लगे. उन्होंने हिंदी, उर्द, कुमाऊँनी व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया.

वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये. जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में उत्तराखंड एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे. जहाँ नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी.
(Girda the Poet of the People)

उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था. प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय बृजेंद्र लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ‘मेरी विरासत का वारिस गिर्दा है.‘ उनके निधन पर संस्कृतिकर्मी प्रदीप पांडे ने ‘अब जब गिर्दा चले गए हैं तो प्रदेश की संस्कृति का अगला वारिस ढूढना मुश्किल होगा. आगे हम संस्कृति और आदोलनों के इतिहास को जानने और दिशा-निर्देश लेने कहां जाएंगे.‘

गिर्दा, आदि विद्रोही थे. वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए. प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया. उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया. होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया.

उनका फलक बेहद विस्तृत था. जाति, धर्म की सीमाओं से ऊपर वह फैज के दीवाने थे. उन्होंने फैज की गजल ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन जिसका वादा है’ से प्रेरित होकर अपनी मशहूर कविता ‘ओ जैंता एक दिन त आलो, उ दिन य दुनी’ में तथा फैज की ही एक अन्य गजल ‘हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मागेंगे..’ से प्रेरित होकर व समसामयिक परिस्थितियों को जोड़ते हुए वाकरणका ‘हम कुल्ली कबाड़ी ल्वार ज दिन आपण हक मागूलो’ जैसी कविता लिखी. वह कुमाऊनी के आदि कवि कहे जाने वाले ‘गौर्दा’ से भी प्रभावित थे. गौर्दा की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने वनांदोलन के दौरान ‘आज हिमाल तुमके धत्यूछौ, जागो जागो हो मेरा लाल.’ लिखी.
(Girda the Poet of the People)

गिर्दा का कई संस्थाओं से जुड़ाव था. वह नैनीताल ही नहीं प्रदेश की प्राचीनतम नाट्य संस्था युगमंच के संस्थापक सदस्यों में थे. युगमंच के पहले नाटक ‘अंधा युग’ के साथ ही ‘नगाड़े खामोश हैं’ व ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ उन्हीं ने निर्देशित किये. महिलाओं की पहली पत्रिका ‘उत्तरा’ को शुरू करने का विचार भी गिर्दा ने बाबा नागार्जुन के नैनीताल प्रवास के दौरान दिया था. वह नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र-पत्रिकाओं से भी संबद्ध रहे. दुर्गेश पंत के साथ उनका ‘शिखरों के स्वर’ नाम से कुमाऊनी काव्य संग्रह, ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ नाम से होली संग्रह, ‘उत्तराखंड काव्य’ व डा. शेखर पाठक के साथ ‘हमारी कविता के आखर’ आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई.
(Girda the Poet of the People)

यह लेख श्री नंदा स्मारिका 2011 से साभार लिया गया है.

नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago