एक पखवाड़े के भीतर उत्तराखण्ड के लोक संगीत को दूसरा बड़ा झटका रविवार 21 जून 2020 को लगा, जब यहॉ के लोकसंगीत के एक आधार स्तम्भ जीत सिंह नेगी का 94 साल की उम्र में देहरादून में निधन हो गया. इससे पहले गत 13 जून को प्रसिद्ध कुमाउनी लोकगायक हीरा सिंह राणा भी ह्रदयाघात से चल बसे थे. अभी लोग राणा जी की मौत के सदमे से उबरे भी नहीं थे कि जीत सिंह नेगी जी के जाने से दूसरा आघात लगा है. नेगी जी ने अपने गीत / संगीत से गढ़वाली लोकगीतों को एक नई ऊँचाई दी. उन्होंने उस दौर में यहॉ के लोक संगीत को देश भर में एक नई पहचान दिलवाई, जब रेडियो भी बहुत कम लोगों के पास होते थे. आज की तरह टीवी की तो कब कोई कल्पना तक नहीं थी.
(Remembering Folk Singer Jeet Singh Negi)
नेगी जी उस दौर में उत्तराखण्ड के ऐसे पहले लोक गायक थे, जिनका एलपी रिकार्ड ( ग्रामोफोन ) 1949 में बन गया था. उस समय ऐसे रिकार्ड हिन्दी गानों व फिल्म के गीतों के ही बनते थे. लोक संगीत में एलपी रिकार्ड बनना एक तरह से अनोखी घटना थी. इससे पता चलता है कि नेगी जी का गायन उस दौर में कितना उच्च कोटि का रहा होगा. गढ़वाली लोकगीतों को एक नई पहचान देने वाले जीत सिंह नेगी का जन्म 2 फरवरी 1927 को पौड़ी जिले के पट्टी पैडल्स्यूँ के गॉव अयाल में हुआ था. उनकी मॉ का नाम रुप देवी नेगी और पिता का नाम सुल्तान सिंह नेगी था. उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा कण्डारा ( पौड़ी ) के बेसिक स्कूल से पूरी की. उनके पिता चूँकी समय ब्रिटिश सेना में थे और वे म्यामार ( तब बर्मा ) में तैनात थे. पॉचवी तक की शिक्षा गॉव में ही ग्रहण करने के बाद उनके पिता उन्हें अपने साथ म्यामार ले गए और उन्होंने मिडिल तक की शिक्षा मेमियो ( म्यामार ) से पूरी की. उसके बाद उनके पिता का तबादला लाहौर हो गया और उन्होंने मैट्रिक की शिक्षा जुगल किशोर पब्लिक स्कूल, लाहौर से पूरी की. बाद में वे फिर इपने गॉव चले गए और जीत सिंह नेगी ने पौड़ी के गवरमेंट कॉलेज से इंटर मीडिएट पास किया.
इंटर करने के बाद वे पारिवारिक स्थितियॉ ठीक न होने से आगे नहीं पढ़ सके. नेगी जी की बचपन से ही संगीत के प्रति रुचि थी. जिसकी वजह से बाद में वे गायिकी की ओर आगे बढ़े. जब वे म्यामार में थे तो वहॉ भी गढ़वाल के लोकगीतों को गुनगुनाते रहते थे. वहॉ वे उस दौर की हिन्दी फिल्में देखते और उनके गीत गाते. वह दौर प्रसिद्ध फिल्म गायक कुन्दन लाल सहगल का था. नेगी भी सहगल के दिवाने थे और उनकी आवाज की नकल कर के फिल्मी गीतों को गाते. जब वे गॉव लौटे तो उन्होंने गढ़वाली में कई गीत लिखे और उन्हें गाने लगे.
उनके गीत /संगीत की यात्रा 1949 में शुरु हुई, जब उनके 6 गीतों की रिकार्डिंग ” यंग इंडिया ग्रामोफोन कम्पनी ” ने रिकार्ड किए. जो बाद में एचएमवी कहलाती थी. इस तरह नेगी जी पहले गढ़वाली लोकगायक बने, जिनके गीतों की सबसे पहले ग्रामोफोन रिकार्डिंग हुई. -पहले गढ़वाली लोकगीतकार, 1949 में जिनके छह गीत यंग इंडिया ग्रामोफोन कंपनी ने रिकार्ड किए. बाद में एंजेल न्यू रिकॉर्डिंग कंपनी ने भी उनके कुछ गीत रिकार्ड किए. उनके पहले ग्रामोफोन के गीत उस समय लोगों में बहुत प्रचलित हुए और नेगी जी रातों – रात एक उम्दा लोकगायक के तौर पर स्थापित हो गए. वह एक ऐसा दौर भी था, जब प्रवास में रहने वाले गढ़वाल के सम्पन्न लोग गढ़वाली गीतों को सुनने या ऐसे कार्यक्रमों में जाना ठीक नहीं समझते थे. एक तरह से कहें तो उनमें एक तरह का हीनता बोध था. पर नेगी जी ने गढ़वाली गीतों को नए धुन और अपनी मीठी आवाज में गाना प्रारम्भ किया तो प्रवास के लोग भी उनके गाए गीतों को सुनने लगे और वे नेगी जी के आवाज की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे.
(Remembering Folk Singer Jeet Singh Negi)
इसके बाद तो प्रवास की गढ़वाली संस्थाओं द्वारा उन्हें गीत गाने के लिए बुलाया जाने लगा. गढ़वाल भ्रातृ मंडल, बम्बई ( अब मुम्बई ) ने 1952 में ” भार भूल ” नाटक का मंचन किया, जो जीत सिंह नेगी द्वारा ही लिखा और निर्देशित किया गया था. उसके बाद 1955 से तो नेगी जी की सांस्कृतिक टोली द्वारा देश के विभिन्न नगरों में गीत – नृत्य नाटिकाओं का मंचन किया जाता रहा. इससे पहले 1954 में उन्होंने पहली बार आकाशवाणी दिल्ली के लिए अपने गीतों की रिकार्डिंग की. जिसमें उन्होंने अपना सबसे प्रसिद्ध गीत ” तू होली उच्चि डांड्यों मां वीरा, घसियार्यों का भेष मां, खुद मां तेरी रोणू छौं मैं यख परदेश मां ” गाया. इस गीत की लोकप्रियता का जिक्र भारतीय जनगणना विभाग ने सर्वेक्षण ग्रन्थ में उस समय के सामयिक व सर्वप्रिय गीतों की श्रेणी में रखा. यह उस समय बड़ी उपलब्धि थी.
नेगी जी को गीतों को सुनने के लिए उस समय लोग रेडियो को घेर कर घंटों खड़े रहते थे. इस गीत को बाद में नरेन्द्र सिंह नेगी ने भी गाया. नरेन्द्र सिंह नेगी इसके अलावा भी जीत सिंह नेगी जी के अनेक गीतों को गाया गया. जिन्हें टी सीरिज ने एलबम के तौर पर निकाला था. उन गीतों में घास काटीक प्यारी छैला हे, माठू- माठू बास रे मैरा, पिंगला प्रभात का घाम, बसग्याळी उरडी सि, रौंतेली ह्वे गैनी, लाल बुरॉस को फूल खिल्यूँ, चल रे मन माथा जयोंला आदि शामिल थे.
उन्हें जितना लगाव गीत / संगीत से था, उतना ही लगाव अभिनय से भी था. इसी कारण उन्होंने कई नाटक भी लिखे और उनका निर्देशन व मंचन भी किया. जिनमें माधो सिंह भण्डारी के जीवन पर आधारित ” मलेथा की गूल “, भारी भूल राजू पोस्टमैन, रामी बौराणी, जीतू बगडवाल आदि प्रसिद्ध हैं. भारी भूल उनका पहला नाटक था. उनके गीतों के संग्रह की पुस्तकों में गीत गंगा, जौंल मंगरी, छम घुंघरू बाजला शामिल हैं. उनका एक खुदेड़ गीत ” हे दर्जी दिदा मेरा अंगणी बणें द्या ” बहुत ही लोकप्रिय हुआ. जिसे बाद में गढ़वाली गायिका रेखा धस्माना उनियाल ने भी गाया. वह भी बहुत चर्चित हुआ.
(Remembering Folk Singer Jeet Singh Negi)
उन्होंने बम्बई में मूवी इंडिया की फिल्म ” खलीफा ” में 1949 में और मून आर्ट पिक्चर की फिल्म ” चौदहवीं रात ” में सहायक निर्देशन के तौर पर भी काम कार्य किया. नेशनल ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी में भी सहायक संगीत निर्देशक रहे. नेगी जी ने देहरादून के धर्मपुर स्थित अपने आवास पर इंतिम सॉस ली. उस समय उनके पास पत्नी मनोरमा नेगी, बेटा ललित मोहन नेगी और बहू थे. उनकी एक बेटी मधु नेगी दिल्ली में और दूसरी बेटी मंजू नेगी फरीदाबाद में हैं. बहुआयामी प्रतिभा वाले गीतकार, गायक, कवि, निर्देशक व रंगमंच के कलाकार जीत सिंह नेगी को उत्तराखण्ड के लोक गीत/संगीत में हमेशा याद रखा जाएगा.
(Remembering Folk Singer Jeet Singh Negi)
काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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