बात 60 के दशक की है जब हम प्राईमरी स्कूल में तख्ती को छोड़कर कापी में लिखने का प्रयास करते-2 पॉंचवी कक्षा यानि तत्कालीन बोर्ड की क्लास में पहुँच चुके थे. तब बोर्ड की परीक्षा केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं होती थी, बल्कि मासाब और बहिन जी पर भी काफी दबाव होता था. बच्चों का भविष्य जो था सो था, मासाब के लिए भी विभागीय तथा स्थानीय स्तर पर प्रतिष्ठा का सवाल होता था.
(Remembering Chandra Shekhar Lohani)
तब प्राईमरी स्कूल नौकुचियाताल (नैनीताल) में लोहुमी मासाब (पूरा नाम: चंद्रशेखर लोहुमी) हमारे हेड मासाब हुआ करते थे. खादी का कुर्ता, पायजामा और वास्कट उनका पहनावा तथा लम्बी कद काठी के हिसाब से ऑंखों का चश्मा उनकी पहचान हुआ करती थी. पढ़ाई के मामले में अनुशासन के नाम पर शायद ही कोई पैमाना छूटा हो, विद्यालय के प्रांगण में ही बच्चों की सेवा के लिए और लोहनी मासाब के इस्तेमाल हेतु बैंत का पर्याप्त भण्डार बांसों के झुरमुट में नि:शुल्क मौजूद था.
तीसरी एवं चौथी कक्षा में अलग-2 विषयों के लिए अलग-2 मासाब या बहिनजी का प्रावधान हुआ करता था, लेकिन पॉंचवी कक्षा के लिए यह विकल्प नहीं था. सभी विषय/पीरियड लोहनी मासाब के जिम्मे थे. पढ़ाई के दौरान मासाब के किसी प्रश्न का उत्तर अगर कोई काली अथवा सांवले वर्ण की लड़की न दे पाए तो ‘काली बिल्ली छोकरी’ का तमगा और कोई गोरे रंग की लड़की न दे पाए तो ‘भूरी बिल्ली छोकरी’ का खिताब दिया जाता, और कभी मेरे जैसा कोई विद्यार्थी जवाब न दे पाए तो कहा जाता ‘गिरूवा छोकरे जा अलपोखरे गिर गए’, इसका मतलब था नाम गिरीश से गिरूवा हो जाता और कभी मासाब ने मुझे किसी के पेड़ से अलपोखरे ( आलूबुखारा ) तोड़ते हुए देख लिया होगा तो मुझसे यह कहा जाता. इसी तर्ज पर क्लास के सभी बच्चों के लिए कुछ न कुछ तकियाकलाम मासाब के पास मौजूद रहता. इसके साथ ही स्कूल दिवस के दौरान उनके हाथों में मौजूद बांस का बेंत बिजली की तरह हवा में लहराने लगता सो अलग.
(Remembering Chandra Shekhar Lohani)
ये था मासाब का अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा एवं समर्पण का प्रमाण. मासाब की एक और गतिविधि जो अक्सर विद्यालय से निपटने के बाद देखने को मिलती थी, वह यह कि वे जहॉं तहॉं कूरी (लैन्टाना) की झाडि़यों में घुसे मिलते. कूरी की पत्तियों को उलट-पुलट कर टटोलते मिलते. हम उनसे इस बारे में कुछ जानना समझना तो दूर उनके आसपास फटकने में भी डरते. हां उनका हमउम्र कोई उनसे पूछने की हिम्मत कर भी ले तो कह देते कि कुछ जांच कर रहा हूँ.
देखते ही देखते मैं क्या सभी काले एवं भूरे प्राईमरी से जूनियर हाई स्कूल में चले गए, तब सुनने में आया था कि लोहुमी मासाब को, कूरी जो पहाड़ के लोगों एवं पशुओं के लिए आफत बन चुकी थी/है, के समूल नाश में सहायक कीड़े की खोज के लिए सम्मान (पुरस्कार) दिया गया है. इस बीच लोहुमी मासाब रिटायर होकर कहॉं चले गए हमें कुछ मालूम नहीं. जूनियर हाई स्कूल, हाई स्कूल और इन्टरमीडिएट के बाद जैसा अक्सर सबके साथ होता आया है, पेट की आग बुझाने के उद्धेश्य से अपना गॉंव छोड़ना पड़ा. कुछ समय इधर-उधर भटकने के बाद पिछले 40 बरसों से जहॉं एक ओर मैं दिल्ली में व्यवस्थित हो सका, वहीं लोहुमी मासाब की अन्य बिल्लियां कहां-2 गई, किसी को किसी का कुछ नहीं पता.
(Remembering Chandra Shekhar Lohani)
इस बीच शुरूआत के बरसों में मेरा जब कभी गांव जाना होता था तो मैंने लोहुमी मासाब व उनकी रिसर्च के बारे में जानने का प्रयास किया. ज्यादा कुछ तो हांसिल नहीं हुआ, इतना अवश्य पता चला कि मासाब को तत्कालीन सरकारों से वह सहयोग नहीं मिला, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी, अन्यथा आज पहाड़ों की दशा व दिशा में सुधार अवश्य हुआ होता.
चंद्रशेखर लोहुमी को याद करते हुये यह लेख हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर गिरीश चन्द्र बृजवासी ने भेजा है.
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ब्रजवासी जी जानकारी के लिए आभार । आपसे मास्साब के बारे में कुछ और जानकारी चाहिए थी। 9557407611 पर बात हो सकती है। मेहरवानी होगी।