यह पुस्तक प्रोजेक्ट म्यूस के अन्तर्गत सन् 2017 में यूनिवर्सिटी औफ ईलिनौय प्रेस द्वारा छापी गयी है जिसके लेखक अमरीकी मूल की श्वेत प्रजाती से ताल्लुक रखने वाले स्टीफन फियोल हैं. स्टीफन फिओल बताते हैं कि मध्य हिमालय के संगीत, समाज और परिदृश्यों में उनकी दिलचस्पी उनके बचपन की कहानियों से जुड़ी है. उनके पिता प्रेस्बिटेरियन मिशनरियों के बेटे थे जिन्होने मसूरी में एक अंतरराष्ट्रीय बोर्डिंग स्कूल में पढाई की थी. स्टीफन ने 1999 में पहली बार गढ़वाल और कुमाऊं की पैदल, मोटरबाइक और बस से यात्रा की और फिर अनुसंधान के लिए 2003 और 2007 के बीच फील्डवर्क के लिये पुन: उत्तराखण्ड में आये और इसके बाद 2010, 2011 और 2014 के दौरान देहरादून, पौड़ी, श्रीनगर, हल्द्वानी, अल्मोड़ा, और नैनीताल आदि की यात्रा की. (Recasting Folk in the Himalayas)
इस पुस्तक में परिचय व निष्कर्ष के अलावा छह अध्याय हैं. प्रथम अध्याय में औपनिवेशिक उत्तराखंड में फोक कॉन्सेप्ट के जीनोलॉजी, द्वितीय अध्याय में नेहरूवादी भारत में मोहन उप्रेती और लोक संगीत का संयोजन, तीसरे अध्याय में नरेंद्र सिंह नेगी जी की संगीत सक्रियता, चौथे अध्याय में सोहन लाल और ढोल-दमाऊं, पाँचवें अध्याय में पेशेवर महिला लोक गायक और छठे अध्याय में प्रीतम भर्तवाण, संस्कार अनुष्ठान और व्यवसायवाद पर विस्तृत चर्चा की गयी है. पुस्तक के अधिकांश अध्याय उन व्यक्तियों पर केंद्रित हैं, जिन्होंने मुख्य रूप से दिल्ली में होने वाले “उत्तराखंडी गीतों” के उत्पादन और विपणन में भाग लिया है, जो गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी भाषाओं में गाये गये हैं.
लेखक अप्रैल 2005 में महेन्द्र चौहान के एक नए एल्बम “मीनू ऐ” के वीडियो शूट जो कि महेन्द्र चौहान के घर पर स्थानीय निवासियों को ट्रेनिंग के बाद हुआ को याद करते हुए बताते है कि कैसे खुद को साफ रखने और अपने बेहतरीन त्योहार के कपड़े पहनने की सलाह स्थानीय निवासियों को कैमरे पर दिखाने के लिए दी गयी थी. ट्रेनिंग में प्लेबैक के साथ कदमों को सिंक्रनाइज़ करने के तरीके के बारे में बताया गया था. लेखक को एक बुजुर्ग महिला से पता चला कि इस गांव में इससे पहले भी कई वीडियो एल्बम फिल्माए गए थे और वह भी प्रतिभागियों को बिना कुछ भुगतान के. यही किस्सा इस किताब को लिखने में सहायक हुआ.
लेखक दे दिमाग में कई प्रश्न जागे. लोक संस्कृति और लोक के निर्माण के परिणाम क्या हैं? उत्तराखंड के अंदर और बाहर रहने वाले इससे क्या समझते है? लोक संगीत के ज्ञान व सासंकृतिक मूल्य और बाजार में आधारित पूंजीवाद के बीच कैसे मध्यस्थता होती है? लोक संगीत बनाने का हकदार कौन है? जाति, वर्ग, लिंग और सामाजिक पहचान इसे कैसे निर्धारित करते है? उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, क्षेत्रीयता और नवउदारवाद के बीच लोककलाओं का अर्थ कैसे और क्यों विकसित हुआ है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर लेखक ने इस पुस्तिका के माध्यम से जानने का प्रयास किया है. इस पुस्तक को ऐतिहासिक और नृवंशविज्ञान संबंधी दृष्टिकोणों को सम्मिश्रित करते हुए लिखा गया है. लोककथाकरण को आधुनिकतावादी सुधार की दोहरी प्रक्रिया के रूप में – अर्थात विलुप्त होने वाली विशेष परंपराओं को पुनर्जीवित करने और विभिन्न प्रकार व तबकों के लोक कलाकारों (संस्कारगीत गायक, जगरिया, गुरू, हुड़िकिया, बाजगी, ढोली, दमाई, बद्दी आदि) और लोक ध्वनियों को अलग-अलग समझने के मर्म को दर्शाया गया है.
जिस प्रकार से अमेरिका में श्वेत व अश्वेत लोगों ने एक दूसरे की लोक विधाओं को अपनाया उसी प्रकार का विस्थापन स्टीफन के अनुसार उत्तरांचल में विभिन्न वर्गों व जातियों के बीच हुआ है. परिणाम स्वरूप, पूर्व की मान्यताओं से विपरीत, लोक गायकों के दर्जा अब किसी भी वर्ग या जाति के कलाकार, या विलुप्त होती प्रथा के जानकार भी प्राप्त कर सकते हैं. अपनी पुस्तक में स्टीफन नें विभिन्न नामी लोककलाकारों से साथ किये गये साक्षातकारों व उनकी वाद्य यंत्रों जैसे ढोल, दमाऊ, नगारा, हुड़का,थाली, मशकबीन, मुरली, रणसिंग, तुतरी, और बिनाई जैसे यंत्रों की बारीक जानकारियों को भी उजागर किया है. स्टीफन उत्तराखंडी संगीत को अमेरिका के विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं और अपनी पुस्तक में बताते हैं कि कैसे एक स्थानीय व्यक्ति उनके अमरिकी पाठ्यक्रम में इसको शामिल कराने से प्रभावित होकर क्षत्रीय़ अधिकारियों से उत्तराखण्ड के संगीत को क्षेत्रीय पाठ्यक्रम में शामिल करने की दलील दे डाली.
स्टीफेन के अनुसार उत्तराखंडी संगीत का प्रसारण 1940 के दौरान ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग और रेडियो प्रसारण के माध्यम से, 1980 के दशक के बाद क्षेत्रीय फिल्मों और कैसेट रिकॉर्डिंग के माध्यम से, 2000 के बाद टेलीविजन कार्यक्रमों और वीडियो कॉम्पैक्ट डिस्क रिकॉर्डिंग के माध्यम से, और 2007 से इन्टरनेट और स्ट्रीमिंग साइटों के माध्यम से होता आया है. संगीत का उत्पादन दिल्ली में और कुछ हद तक क्षेत्रीय राजधानी देहरादून में केंद्रित रहा है. जहाँ कहीं भी उत्तराखंडी बोलने वाले लोग बसे वहां उत्तरांचली संगीत ने अपनी पैठ बनायी है. हिमालयी गांवों और कस्बों से, उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में और विशेष रूप से ओमान, संयुक्त अरब अमीरात, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में रह रहे अप्रवासीय भारतीयों में उत्तरांचली लोग संगीत का आनंद लिया जाता है. स्टीफन के अनुसार लोग संगीत नें नये उत्तराखण्ड राज्य को पुन: संगठित किया है. ऐसे एल्बम जो कभी गढ़वाली गीत या कुमाउनी गीत के रूप में विपणन किए जाते थे, अब आमतौर पर उत्तराखंडी गीतों के रूप में विपणन किए जाते हैं, जो कि एक नई राजनीतिक और सांस्कृतिक वास्तविकता को दर्शाता है.
स्टीफन के अनुसार संगीत और सांस्कृतिक निकासी के स्थान (उत्तराखंड में ग्राम जीवन) सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से उत्पादन और खपत के स्थानों से प्रथक हैं. कलाकारों और उपभोक्ताओं की बीच की यह दूरी और गीतों में पाई जाने वाली लालसा, विषाद, निराशा और आध्यात्मिकता लोगों को पहाड़ आने का आमन्त्रण देती है.
कुल मिलाकर स्टीफेन की यह पुस्तक हम स्थानीय लोगों के लिये आँख खोलने वाली है. अमरीका के गोरे समुदाय से होने के बावजूद स्टीफन नें उत्तराखंडी संगीत का जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका अंश मात्र भी हममें से बहुत लोगों को नही है. मैने अभी किताब को केवल सरसरी निगाह से देखा है. लेकिन निसंदेह ही मैं इसको विस्तार से पढ़ना चाहता हूँ. आप लोगों से भी आशा करूंगा कि यह किताब प्रोजेक्ट म्यूज की वेबसाइट पर खोज कर अवश्य पढ़ें. भविष्य में समय मिलेगा तो अध्यायों के सार को आपके समक्ष लाने का प्रयास करूंगा.
समीक्षक- प्रोफेसर राकेश बेलवाल, प्रबन्धन अध्ययन विभाग, सोहार विश्वविद्यालय, ओमान
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