बचपन गजब होता है जो बातें उन दिनों अखरती हैं वहीं बाद में मधुरता घोलती दिखाई देती हैं. कुछ बातें ऐसी होती हैं जो यूँ ही यादगार बन जाती हैं. भाबर में उन दिनों खेतों की जुताई का कार्य बैलों से किया जाता था. हर घर में एक जोड़ी बैल तो होते ही थे. जिनके पास ज्यादा जमीन होती थी उनके पास दो-तीन जोड़ी बैलों की होती थी. बैलों का खूब ध्यान रखा जाता था. उन्हें समय से चारा-पानी, सन्नी, कुट्टी दी जाती थी ताकि खेतों की जुताई के समय बैल कमजोर न पड़े और भकाभक खेतों की जुताई करें.
(Ramuaa Bald Memoir Jagmohan Rautela)
फसल बोते समय “पल्ट प्रथा” भी खूब चलती थी. पड़ोसी एक-दूसरे के यहॉ अपने बैलों को लेकर बुवाई करने जाते थे. धान की रोपाई में तो कभी-कभी पॉच-छह बैलों की जोड़ी तक हो जाती थी. इससे पूरे गॉव में एक सामाजिक सामंजस्यता का माहौल भी बना रहता था. छांट-छांट कर बैलों की मजबूत जोड़ियॉ पाली जाती थी.
जब हमारा परिवार गॉव-हरिपुर तुलाराम, पोस्ट-अर्जुनपुर (गौरापड़ाव) हल्द्वानी में रहता था तो हमारे पास भी बैलों की एक जोड़ी थी. जिसमें एक बैल का नाम रमुआ था. वह बेहद हट्टा-कट्टा था और हल के जुए में दाहिनी ओर का बैल था. हल में हमेशा दाहिनी ओर का बैल बॉए ओर के बैल से ज्यादा तगड़ा होता था. इसका कारण यह था कि हल में दॉए बैल के कन्धों पर ज्यादा जोर पड़ता था. तगड़ा तो बॉया बैल भी होता था. पर वह दॉए से थोड़ा कमजोर भी हुआ तो बैलों की जोड़ी चल जाती थी.
रमुआ के सींग भी बेहद तीखे और लम्बे थे. हल लगाने और जंगल से लकड़ी और घास लाने में उसका कोई जवाब नहीं था. उन दिनों गॉवों में झोपड़ियां होती थी. इसी कारण जंगल से झोपड़ी को छाने के लिए घास और लकड़ी लाई जाती थी. चूल्हा जलाने के लिए भी जंगल से ही लकड़ी लानी होती थी. इसके लिए रामपुर रोड में बैल बाबा मन्दिर से आगे के जंगलों में जाना पड़ता था. कई बार तो मनमाफिक घास-लकड़ी न मिलन से घर पहुँचने में रात के आठ-नौ भी बज जाते थे. जंगल भी मुँह अँधेरे ही चल देते थे. अमा-ईजा तीन-चार बजे ही उठकर जंगल जाने वालों के लिए कलेऊ और दिन का खाना बनाती थी. बैलों के लिए चारा भी रखना होता था.
जंगल जाने-आने में भरोसे मन्द बैलों का बहुत सहारा होता था. कभी-कभी जंगल में बहुत दूर चले जाने पर रास्ता भी भटक जाते थे. बढ़ते अँधेरे के बीच रमुआ बैल बहुत भरोसा देता था. ऐसा कई बार अपनी आपसी फसकों में मैंने ईजा-बाबू के मुँह से सुना था. रमुआ की याददाश्त बहुत तेज थी बल. जिस रास्ते वह जंगल में घुसता था, वह रास्ता उसे पक्का याद रहता था. आदमी रास्ता भूल जाय, उसका जोड़ीदार बैल रास्ता भूल जाय, पर रमुआ की याददाश्त को कोई खरोंच नहीं लगती थी. उसको याद रहता था कि किस रास्ते से वह जंगल के अन्दर आया और अब कहां से बाहर को जाना है और जंगल से बाहर निकल कर सही सलामत घर पहुँचना है.
(Ramuaa Bald Memoir Jagmohan Rautela)
ईजा बताती थी कि कई बार ऐसा हुआ कि उन लोगों ने अपने मनुष्य होने के ज्ञान पर ज्यादा भरोसा किया और काफी देर तक जंगल में ही भटकते रहे. बाद में मन मार कर रमुआ के भरोसे बैलगाड़ी को छोड़ दिया और उसने अपनी याददाश्त के भरोसे सब को सही सलामत घर पहुँचा दिया.
बेहद कामदार और भरोसे का बैल होने के बाद भी रमुआ में एक बेहद बड़ी कमजोरी थी वह कभी-कभी शाम के समय चमकी जाता था. उसके बदले मूड का पता उसकी हरकतों से चल जाता था. जिस दिन उसका मूड खराब होता वह बंधे-बंधे ही फूं-फां करने लगता था. ऐसे में उसे बाहर से गोठ में अन्दर बांधना एक टेढ़ी खीर हो जाता था. जानवरों का काम तो वैसे साजी (बटाईदार) ही करता था.
रमुआ के चमकि मूड के समय साजी को हाथ में एक मजबूत डन्डी पकड़नी होती थी ताकि उसे दिखाकर वह रमुआ को डरा सके और बिना डरे उसे गोठ में बांध सके. ऐसा ही होता था रमुआ डर के मारे फूं-फां करने के बाद भी कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुँचाता था. वैसे रमुआ ने कभी किसी को अपने चमकिए मूड में नुकसान नहीं पहुंचाया. बचपन का एक दृश्य आज भी मेरी आंखों में घूम जाता है. शाम का समय था. उस दिन किसी कारण से घर में न तो बाबू थे और न ही बाटाईदार. ऐसे में रमुआ को अन्दर बॉधने की जिम्मेदारी ईजा की थी. दुर्भाग्य से उस दिन उसका मूड खराब था. ईजा को इसकी भनक तो लग गई थी. पर करती क्या? उसे गोठ में बॉधना ही था. ईजा ने हाथ में सिकड़ (लम्बी डंडी) पकड़ा और रमुआ की रस्सी रमुआ नै, रमुआ नै कहते हुए खोली.
(Ramuaa Bald Memoir Jagmohan Rautela)
रमुआ का मूड उस दिन कुछ ज्यादा ही खराब था. वह ईजा के पीछे मारने के लिए दौड़ा. रमुआ की रस्सी हाथ में थामे ही ईजा ने आगे को दौड़ लगाई और कुट्टी मशीन की आड़ ले ली . रमुआ कभी कुट्टी मशीन के इधर तो कभी उधर को घूमता. हम लोग असहाय से दूर से यह सब देख रहे थे. हमें लगा कि आज रमुआ ईजा को मार ही डालेगा. वह जोर-जोर से रमुआ को डराने के लिए ए-ह, ए-ह की आवाजें निकालने लगी. पर रमुआ पर कोई असर नहीं हो रहा था.
उस दिन ईजा को बचना होगा तभी उसी समय चाचाजी कहीं से घर पहुँच गए. वह भी रमुआ के मूड को जानते थे. घर पहुंचते ही वह भी समझ गए कि माजरा क्या है? चाचा जी को देखते ही ईजा भी चिल्लाई – ओ! दीवान सिंह, य रमुँ कैं द्यखो त. चाचा जी को देखते ही रमुआ का गुस्सा भी ठन्डा पड़ गया और चाचा जी ने ही उसे गोठ के अन्दर बॉधा. गुस्से में रमुआ पुरुषों से डर भी जाता था लेकिन महिलाओं से कम डरता था. उसकी इस आदत को देखकर कई बार उसे बाबू ने बेचने का मन भी बनाया. पर उसका कामदार और जंगल का भरोसेमन्द होना उसे बिकने से हमेशा बचाता रहा. आखिर उसके एक अवगुण की सजा उसे बेचकर तो नहीं दी जा सकती थी. भरोसा बड़ी बात होती है और आज इन्सान एक-दूसरे का भरोसा ही खो रहा है.
(Ramuaa Bald Memoir Jagmohan Rautela)
काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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