देहरादून निवासी युवा कवि राजेश सकलानी के पिछले कविता संग्रह पुश्तों का बयान का में कवि और उसकी कविता के बारे में हिन्दी के वरिष्ठ कवि और टिप्पणीकार असद ज़ैदी का कहना है:
राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीका और अनपेक्षित गहराइयाँ देखने को मिलती हैं. अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या कि बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती, या मुआफि क नहीं आती. राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं. वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं, और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है.
“उनकी कविता में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती है—पहले से पता नहीं चलता यह किधर जाएगी. यह गेयता और आख्यानपरकता के बीच ऐसी धुंधली सी जगहों में अपनी ओट ढूँढ़ती है जहाँ से दोनों छोर दिखते भी रहें. ऐसे ठिकाने राजेश को खूब पता हैं. राजेश व्यक्तिगत और राजनीतिक के दरम्यान फासला नहीं बनाते. “
“वह मध्यवर्ग के उस तबके के दर्दमंद इंसान हैं जो आर्थिक नव-उदारीकरण और लूट के इस दौर में भी जन-साधारण से दूर अपना अलग देश नहीं बनाना चाहता. जो मामूलीपन को एक नैतिक अनिवार्यता की तरह—और इंसानियत की शर्त की तरह—बरतता है. वह इस तबके की मौजूदगी और अब भी उसमें मौजूद नैतिक पायेदारी को लक्षित करते रहते हैं. राजेश एक सच्ची नागरिकता के कवि हैं, और अपने कवि को अपने नागरिक से बाहर नहीं ढूँढ़ते. “
शहर देहरादून को कभी इससे पहले ऐसा जि़म्मेदार और मुहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा.
“वह अपनी ही तरह के पहाड़ी भी हैं. पहाड़ी मूल के समकालीन कवियों में पहाड़ का अनुभव दरअसल प्रवास की परिस्थिति या प्रवासी दशा की आँच से तपकर, और मैदानी प्रयोगशालाओं से गुज़रकर, ही प्रकट होता है. इस अनुभव की एक विशिष्ट नैतिक और भावात्मक पारिस्थतिकी है जिसने बेशक हिन्दी कविता को नया और आकर्षक आयाम दिया है.”
“राजेश सकलानी की कविता इस प्रवासी दशा से मुक्त है, और उसमें दूरी की तकलीफ नहीं है. इसीलिए वे पहाड़ी समाज के स्थानीय यथार्थ को, और उसमें मनुष्य के डिसलोकेशन और सामाजिक अंतर्विरोधों को, सर्वप्रथम उनकी स्थानीयता, अंतरंगता और साधारणता में देख पाते हैं. “
“यह उनकी कविता का एक मूल्यवान गुण है. राजेश की खूबी यह भी है कि वह बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं : उनकी इबारत बहुत जल्दी ही, बिना किसी जलवागरी के, पाठक से उन्सियत बना लेती है. यकीनन यह एक लम्बी तपस्या और होशमंदी का ही हासिल है.”
प्रस्तुत है राजेश सकलानी की एक कविता:
डी. एल. रोड पर एलेक्जेंडर रहते हैं
हर वर्ष नए उत्पाद की तरह है
जिसका बीते समय से कोई आंतरिक और
आत्मीय संबंध नहीं है
राजपुर रोड पर नए-नए शोरूम और चमाचम मोटरों
के बीच होते जाइए बेग़ाने
बमुश्किल आधा कोस पर है संकरी डी. एल. रोड
दुकानों और घरों से पटी हुई
आधी रात तक चहल-पहल बिल्कुल घरेलू क़िस्म की
मोहल्लेबाज़ी भी जम कर होती है सड़क पर
दोस्तों के मामले भी निपटते हैं यहीं बीचोबीच
गुज़रने वाले ख़ुद अपनी राह निकालें दाएं-बाएं
प्यार-व्यार के छींटे भी शालीनता के साथ
चुपचाप
पास के कॉलेजों से रहती है यहां हवा तृप्त
नालापानी रोड कटने से जो त्रिकोण बनता है
वहीं स्कूटर रिपेयर वाली दुकान के ठीक सामने
तबेले के ऊपर वाले घर में एलेक्जेंडर रहते हैं
रफ़ी, किशोर, मन्नाडे, महेन्द्र कपूर, तलत महमूद से लेकर
उदित नारायण, यहां तक कि लता, आशा के स्वर को भी
पुनः सृजित करने वाले गायक जिनके बिना
देहरादून के पिछले चालीस सालों की यादों का
बयान पूरा नहीं होता
गाढ़े रंग और भारी बदन के एलेक्जेंडर
हमेशा उत्साह से भरे हुए, पहनावे में टिपटॉप
घूम खाती हुई ज़ुल्फ़ें
लौटते हैं अक्सर देर रात गए कार्यक्रमों से
रास्ते भर हाय-हैलो करते
कोई एलबम नहीं निकला यह कोई बात नहीं
समय बदल गया है तेज़ी से इसका भी नहीं कोई रोना
कई सी.डी., डी.वी.डी. नए गायकों के आकर
पुराने पड़ गए
उनके गानों में वही आदमी है सुख-दुःख का संगी
साथ रहने का हौसला बराबर देता हुआ
न हो वे चतुर चालाक पर यह भी नहीं
कि रहें भौंचक पिलपिले
समझें कि पीछे छूट गए आज की तारीख़ में
यह मिजाज़ डी.एल. रोड का है, वही मैक्डोनाल्ड
एडिडास, पिज़्ज़ा हट वाली राजपुर रोड के समानान्तर
बरसाती रिस्पना नदी से लगे पूरे इलाक़ों में
जहां बढ़ई, मोची, राज मिस्त्री, सफ़ाईकर्मी
मैकेनिक, रंगसाज़ जैसे हुनरमंद शहर में रोज़
कुछ जोड़कर लौटते हैं तंग गलियों में
शाम होते यहां गाढ़े रंग का चमकदार फूल
खिलता है
रात-बिरात कोई अजनबी मुश्किल में फंस जाय यहां
यही होगा कि विक्रम, जगदीश या पवन ख़राब स्कूटर को
रखवा दें कहीं सुरक्षित जग
एलेक्जेंडर अपनी मोटरसाइकिल लेकर आए
कहें कि छोड़ देता हूं आपके घर
आधी रात भला आप क्या करेंगे
ख़राब मौसम की चिन्ता न करें
दूरी की क्या बात करते हैं
पूरा अपना ही है देहरादून.
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