जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
– अल्लामा इक़बाल
इसी लोकसभा चुनाव की बात है. इसी देश के एक प्रदेश में एक गांव है. कुल बहत्तर वोटों वाला. गांव के सभी बहत्तर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया. जानते हैं क्यों? क्योंकि गांव तक आज भी सड़क नहीं पहुंची है. एक भी वोट नहीं पड़ा उस गांव से. इसे कहते हैं पोलिटिकली अवेयर होना. सरकारी नौकर हूँ इसलिए जानता हूँ, तमाम प्रशासनिक, वित्तीय या तकनीकि दिक्कतें होंगी जिस वजह से सड़क नहीं पहुंच पाई वहां तक. लेकिन मैं जम्हूरियत में ऐसी जनता को सलाम करता हूँ. ये बन्दे महज़ गिने जाने के लिए नहीं हैं, उन्होंने बता दिया. जितना भी, जैसा भी स्पेस उन्हें मिला, उतने में ही. मुझे लगता है चुने हुए सांसद महोदय को सबसे पहले उस गांव तक जाना चाहिए. जिसने उन्हें एक भी वोट नहीं दिया. पहला हक़ उनका है. ख़ैर! (Political Consciousness on Decline)
लेकिन आप क्या कर रहे हैं? आप कठुआ और अलीगढ़ में, निर्भया और ट्विकंल में समानता-विषमता ढूँढ़ रहे हैं. आप विक्टिम और अपराधी की वंशावलियां पलट रहे हैं. आप इसके साथ अपराध और उसके साथ अपराध में विभेद कर रहे हैं. (Political Consciousness on Decline)
ऐसा करते हुए आप अपराधी को वैचारिक शरण दे रहे हैं. आप बलात्कृत का दुबारा बलात्कार कर रहे हैं.
जानते हैं क्यों? क्योंकि आप पोलिटिकली अवेयर्ड नहीं, बुरी तरह से पोलिटीसाइज़्ड हो चुके हैं. आपका अतिशय राजनीतिकरण हो चुका है. सुबह-शाम आपको राजनीति के इंजेक्शन लग रहे हैं. राजनैतिक दलों ने आपको अपनी टुच्चई में फांस लिया है.
मीडिया भी आपको सूचित नहीं कर रहा है बल्कि बुरी तरह से इन्फेक्ट कर रहा है. उसके बिजनेस मॉडल में आप एक तरफ कन्ज़्यूमर हैं, दूसरी तरफ प्रॉडक्ट. आप न्यूज़ नहीं ख़रीद रहे ओपिनियन ख़रीद रहे हैं. आप माल की तरह बिक रहे हैं. बाज़ार में भी, राजनीति के बाज़ार में भी. आपको समूह से काटकर सूक्ष्मतम इकाइयों में रिड्यूस किया जा रहा है. यकीन कीजिये आप तोले भी नहीं जा रहे, गिने भी नहीं जा रहे हैं.
ये आँखें ही काफी हैं `डेल्ही क्राइम’ देखना शुरू करने के लिए
अजीब ये है कि आपने खुद ये स्वीकृति दी है! नहीं मानते? तो सोचिए ऐसा क्यों है कि आम आदमी को थाने के गेट से अंदर झांकने में भी भय होता है जबकि अपराधी खुले आम डंके की चोट पर आ-जा सकते हैं. वेट-वेट-वेट. इस गेट को अपने जन प्रतिनिधि के घर के गेट से रिप्लेस कर दीजिए. ये चरित्र और सघन रूप में मिलेगा. क्यों? क्योंकि आपने ऐसा चाहा है. बिना दो-चार दुनाली वालों से घिरे आपको अपना नेता जमता ही नहीं. दबंग और कद्दावर शब्द यूं ही नहीं जुड़ गए उसके साथ. आपने स्वीकृति दी है.
जी हां आप! आपको ही सम्बोधित कर रहा हूँ मैं. घोर सांप्रदायिक (आप कहते रहिए प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ है, सच आप भी जानते हैं) जातिवाद में आकंठ डूबी, मर्दाना (जिनमें स्त्रियां भी शामिल हैं) जमात को! (या मुट्ठी भर बचे इनके ख़िलाफ़ सोचने-समझने, लिखने-बोलने वालों को जिसके अंदर धैर्य हो इसे पढ़ लेने का? किसे?)
पर आप खुद को टटोलिये. आप ऐसे थे नहीं. आपको ऐसा बनाया गया है. लगातार बनाया जा रहा है. एक लंबी दूरी तय करके इन चीजों से बाहर आ चुके थे आप. आप समझ चुके थे कि इलाज़ ज़रूरी है, डॉक्टर का मुस्लिम होना मायने नहीं रखता; सैलेरी ज़रूरी है, बॉस चमार है तो क्या हुआ; पढ़ाई ज़रूरी है, स्कूल ठाकुर साहब ने बनवाया या चमरौटी के पीछे है, कोई फर्क नहीं पड़ता; आर्थिक समृद्धि ज़रूरी है, पत्नी के छः घण्टे बाहर रहने से कोई दुनिया नहीं उलट जाती; आप समझ चुके थे ‘सोम-सनीचर पूरब न चालू’ जैसे मंतर पढ़ेंगे तो भूखे-सूखे रह जाएंगे! ‘रोटी-बेटी’ की रवायत वाली जड़ सामाजिकता में ठहरेंगे, तो दुनिया आपको वहीं छोड़कर आगे निकल जाएगी!
लेकिन अब आपको फिर वहीं भेजा जा रहा है. आपको समाज की निकृष्टतम इकाइयों में बांटा जा रहा है. समरसता, सदाशयता, सामाजिकता पर राजनीति भारी पड़ रही है. फिर कहूँगा, राजनीति कोई बुरी चीज़ नहीं है लेकिन ग़ैर-राजनैतिक सम्बन्धों का इस तरह से राजनीतिकरण?
तिस पर सरकारी संस्थाओं का राजनीतिकरण तो सबसे बुरा है. व्यक्तिगत रूप से इस तरह की चीज़ें होती रही हैं, होना स्वाभाविक भी है. लेकिन संस्थाओं का इस स्तर पर राजनीति से ओत-प्रोत हो जाना आपके लिए ख़तरे की घण्टी नहीं, ख़ुद ख़तरा है.
जिन संस्थाओं में अनुशासन ज़्यादा है वहां ख़तरा ज़्यादा है. यहां इशारा ही किया जा सकता है बस!
अलीगढ़ जैसे अपराध महज़ व्यक्ति नहीं बल्कि मानवता के ख़िलाफ़ माने जाते हैं. समाज के ख़िलाफ़ माने जाते हैं. सरकार अपराधी को सज़ा देने के लिए खुद लड़ती है. अन्यथा जिसकी मृत्यु हो गई उसे हत्यारे की फांसी या आजीवन कारावास से क्या लाभ होगा? मानवता को होगा, क्योंकि उसने मानवता की भी हत्या की है. समाज को होगा क्योंकि उसने सामाजिक व्यवस्था पर चोट की है. मोटी बात है, सबको पता है. यहां दुहराने का उद्देश्य ये है कि इन अपराधों को पूरी मानवता के ख़िलाफ़ समझकर सवाल कब उठेंगे?
आपका मन कैंडल जलाने से संतुष्ट हो जाता है. आपका मन कविता लिखने का होता है. वो भी कर लीजिए. लेकिन सवाल भी तो कीजिये कि ऐसी गलीच घटनाओं पर कब तक कैंडल जलती रहेंगी? कविता के लिए इस तरह का कच्चा माल किस कीमत पर उपलब्ध होता रहेगा?
सवाल कीजिये कि इतनी समितियां बनीं कानून-व्यवस्था और पुलिस सुधार की, उनकी रिपोर्टों का क्या हुआ? ओपन एन्ड शट केसेज़ में भी इतनी देर क्यों हुई गिरफ़्तारी में? किसने गवाहों को पैसे खिलाकर तोड़ लिया? प्रोज़ीक्यूशन कहां कमज़ोर पड़ गया? सज़ा क्यों नहीं हो सकी? सरकारों से सवाल पूछिये, ज़िम्मेदार संस्थाओं से सवाल पूछिये, आस-पास के समाज से सवाल पूछिये. पूछिये इसलिए कि आपकी कोई संख्या भी हो, भार भी.
लेकिन आप तो खुद दलदल में हैं. दूसरों पर कीचड़ फेंक रहे हैं. कैसे देख पाएंगे कि आपका बदन भी धीरे-धीरे इसी कीच में धंसता जा रहा है.
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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