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ऐसी दुर्लभता को बचाया ही जाना चाहिए

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ – 5

अस्सी के दशक में समकालीन कविता में जिन महत्वपूर्ण कवियों ने पहचान बनायी उसमें हरीश चन्द्र पाण्डे का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है. समकालीन हिन्दी कविता में हरीश चन्द्र पाण्डे एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. अल्मोड़ा के एक गांव में 28 दिसम्बर 1952 में जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद में महालेखाकार कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए. उनके संग्रह ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’ के लिए उन्हें 1995 का सोमदत्त सम्मान दिया गया. कविताओं की उनकी पहली किताब ‘एक बुरूँश कहीं खिलता है’ थी.

हिन्दी साहित्य जगत में इसे काफ़ी चर्चित पुस्तकों में गिना जाता है. यह पुस्तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सर्जना पुरुस्कार से सम्मानित हुई. प्रतिष्ठित केदार सम्मान और ऋतुराज सम्मान भी इस कवि को मिल चुके हैं. हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है यथा – अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी तथा उर्दू. वर्ष 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका संग्रह ‘भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं’ प्रकाशित हुआ.

शेर बचाओ (अभियान)

-हरीशचन्द्र पाण्डे

ब्रह्माण्ड – सा सिर
दुर्भेद्य पुतलियाँ
बदन से पौरुष के झरने बहते

जो अनुपम है उसे बचाया ही जाना चाहिए

चलना भी कला
थामना भी
पीठ पीछे क्या हो रहा है
मुड़ कर अवलोकन करना भी कला

ऐसे कलावंत को बचाया ही जाना चाहिए

चले तो चिन्ह छोड़ जाए
जो इरादों को टोह ले दुश्मन के
सूड़धारियों के होते हुए जो ख़ुद सम्राट बन जाए

ऐसे अक़ील को बचाया ही जाना चाहिए

जो गरजे तो दहल जाए दुनिया
जो चीरे तो चिथड़ा-चिथड़ा हो जाए जिस्म
जिसे देखते ही सुन्दरता भय में तब्दील हो जाए
जो दुर्लभ हो अपनी निरंकुशता और क्रूरता में

ऐसी दुर्लभता को बचाया ही जाना चाहिए

जंगल में रह कर जो कभी न देखे घास की ओर
जिसे रोज़ चाहिए एक नया शिकार
जो डकार जाए जंगल की सबसे बड़ी छलांग
जिसके विरुद्ध मुक़दमे कभी नहीं पहुँचते किसी निर्णय तक

ऐसे कूट को बचाया ही जाना चाहिए
बचाया ही जाना चाहिए

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एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय

वे मगहर में नहीं अपने घर में मर रहे हैं

एक बुरूंश कहीं खिलता है

जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर

जब तक सामर्थ्य है देखूंगा दुनिया की सारी चहल-पहल

उसका विवेक फांसी के लीवर की तरह होता है

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