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पीके: आस्था के नाम पर पनप रहे अंधविश्वास पर तार्किक चोट करती फिल्म

ट्रांजिस्टर लटकाए हुए रिमोट खोजने की जद्दोजहद. अबोध सवाल. जिज्ञासा भरे सवाल. अजीबोगरीब हरकतें. जवाब देने वालों का उससे पूछना, “पीके आया है क्या?”

बारंबार यही सवाल पूछे जाने पर वह इसी नामकरण को स्वीकार कर लेता है, पीके. अपने मातृग्रह वापस लौटने का उसका एक ही जरिया था. इस लोक की खूबसूरती देखिए कि, वही रिमोट लूट लिया जाता है. अब उसके पास वापस लौटने का कोई जरिया नहीं बचता, सारे रास्ते बंद.

वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकता. दूसरे ग्रह का प्राणी होने के नाते, वह इस लोक के तौर-तरीके नहीं जानता. निरा साधनहीन. भोजन-रैन बसेरे के लिए, वह छोटे-मोटे अपराध करके लॉकअप में ‘चेक इन’ करा लेता है. प्रायः जहाँ पर निषेध वाक्य लिखे रहते है, इरादतन उन्हीं दीवारों पर, पब्लिक प्लेस में ‘विसर्जन’ करके. इतना ही नहीं, मूलभूत आवश्यकताओं को पाने लिए मुकम्मल व्यवस्था करता है. वह ड्यूटी पर तैनात पुलिसमैन पांडे जी (रोहिताश गौड़) को दिखा-दिखाकर कानून का उल्लंघन करता है. उन्हें मुँह चिढ़ाता है, खुली चुनौती देता है, हिम्मत है, तो बंद करके दिखाओ.

हालांकि कथाकार शैलेश मटियानी की ‘बोरीवली से बोरीबंदर’ में इस अनुभव का उल्लेख मिलता है. इस फिल्म के रिलीज होने से चार-पाँच दशक पहले, वे इस प्रयोग को सफलतापूर्वक आजमा चुके थे.

वह मंदिर के बाहर चप्पल उतारकर, चप्पलों की जोड़ी पर साइकिल का ताला चढ़ा लेता है. काफी गहरी बात है, जिसे बेहद हल्के अंदाज में पेश किया गया है.

पीके के बहाने, उपासना स्थलों पर जूता-चप्पल चोरी होने की प्रवृत्ति पर महीन तंज कसा गया है. उपासना स्थल में लोग पावन विचार लेकर जाते हैं.

मनचाही इच्छा, मनचाही मुराद पूरी करने के लिए वह ईश्वर के दरबार में फरियाद लगाता है. वह हर दरवाजा खटखटाता है. सभी उपासना स्थलों पर माथा टेकता है. चढ़ावे को कॉन्ट्रैक्ट रेट्स की तरह लेता है. जब उसका मकसद पूरा नहीं होता, तो वह ईश्वर की मौजूदगी को लेकर मासूम सवाल खड़े करता है. मूलतः वह एक एस्ट्रोनॉट है. उसके प्लेनेट पर वस्त्र नहीं पहने जाते. वहाँ कोई भाषा नहीं चलती. एक-दूसरे के मस्तिष्क को कनेक्ट करके डायरेक्ट विचारों को पढ लिया जाता है.

वह यूएफओ (अनआईडेंटिफाइड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट) से धरती पर उतरता है. दूर-दूर तक फैली रेतीली भूमि. प्रथम दृष्ट्या यह दृश्य राजस्थान का लगता है. बमुश्किल कुछ ही मिनट बीते होंगे कि, वह बटमारी का शिकार हो जाता है. उसे एक पगड़ीथारी व्यक्ति दिखाई पड़ता है. अनजान से एलियन को वह बड़े गौर से देखता है. दोनों एक- दूसरे को परस्पर नजरों में तोल ही रहे होते हैं कि, वह व्यक्ति उसके गले में लटके रिमोट को बेशकीमती गहना-आभूषण समझकर झपट्टा मारकर भाग जाता है. परग्रही (एलियन) ट्रेन की पटरी पर उसका पीछा करता है. इस छीना-झपटी में रिमोट तो उसे वापस नहीं मिलता, लेकिन छिनैती करने वाले का ट्रांजिस्टर उसके हाथ लग जाता है. उसी ट्रांजिस्टर को टाँगे हुए वह पूरी फिल्म में इधर-उधर घूमता फिरता है.

धीरे-धीरे वह इस गोले का लोकाचार समझता है. वस्त्र पहनने को निहायत जरूरी समझता है. उसमें भी पहली बार तो उसके वस्त्र- प्रयोग से दर्शकों का खासा मनोरंजन हो जाता है. वह ऊपर पुरुष का वस्त्र धारण करता है, तो अधोवस्त्र स्त्री का. उसे इस बात पर भारी विस्मय होता है कि, सब उसे विचित्र निगाहों से क्यों देख रहे हैं.

इसी तरह वह पैसे की महत्ता समझता है. गांधी जी की तस्वीर देखकर, उसके मन में यह धारणा विकसित हो जाती है कि, गांधी लगी तस्वीर, इस लोक में विनिमय के काम आती है. वह सब्जी वाले को गांधी जी के फोटो लगे ढेर सारे पोस्टर-पंपलेट हस्तगत कराता है. सब्जीवाला सभी फोटोग्राफ्स को तिरस्कार भाव से फेंक देता है. जब वह पचास रुपये के नोट पर लगी तस्वीर सब्जी वाले को देता है, तो वह उसे हाथों-हाथ लेता है. इतना ही नहीं, उसके एवज में उसे गाजर का अच्छा-खासा बंडल सौंपता है. पीके को अब जाकर चलन मुद्रा का रहस्य समझ में आ जाता है.

वह भैरव सिंह (संजय दत्त) बैंड मास्टर की गाड़ी से टकरा जाता है. हिट एंड रन के मामलों के विपरीत, भैरव सिंह उसको किसी डिस्पेंसरी में दाखिल करा देता है. डॉक्टर और तीमारदार, इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि, शायद उसकी याददाश्त गुम हो गई है. इसीलिए कुछ बोल नहीं पा रहा है. बेचारे कैसे जानते कि, वह तो परग्रही है. इस लोग की भाषा या कोई भी भाषा उसके लिए अनजान है. उसकी याददाश्त खोई जानकर, एकबारगी तो भैरोसिंह खुश हो जाता है. उसे धरती के मानव की तरह, इस बात की खुशी मिलती है कि, अब वह किसी कानूनी पचड़े में नहीं फँसेगा और डिस्पेंसरी से चुपचाप खिसकने की सोचता है, लेकिन तभी उसकी इंसानियत जोर मार बैठती है. उसके कदम वापस खिंच जाते हैं. वह उसे अपने साथ लिए चलता है, इस इरादे के साथ कि, जब तक इसकी याददाश्त वापस नहीं लौटती, तब तक बेचारे की भरसक मदद की जानी चाहिए. नाइट क्लब में वह फुलझड़िया से भाषा ट्रांसफर कर लेता है.

भैरव से वह अपनी व्यथा-कथा कहता है. भैरव सिंह का उसे यह कहना कि, लूटा हुआ लॉकेट हो-ना-हो, चोर बाजार दिल्ली तक पहुँच ही गया होगा.

दिल्ली पहुँचकर वह लोगों से एक ही प्रार्थना करता है, उसका लॉकेट चोरी हो गया है. वह किसी तरह उसे वापस मिल जाए, वह जहाँ-जहाँ जाता है, एक ही जवाब सुनता है, इसकी मुश्किल तो भगवान ही सुलझा सकते हैं. यह बात उसके मन में घर कर जाती है. वह भगवान की तलाश में दर-दर भटकता है. कई- कई उपासना स्थलों के चक्कर लगाता है. वह कौल-करार करता है. मनौती मानता है. उसका यह नजरिया दर्शकों को हँसने और सोचने पर मजबूर करता है. वह बिल्कुल भोलेपन के सवाल करता है. भगवान तक पहुँचने का रास्ता खोजता है. वहाँ उसे मध्यस्थ दिखते हैं. मीडिएटर मिलते हैं. भोलेपन के संस्कार के साथ वह बाबाडम-गुरूडम पर जमकर कटाक्ष करता है, क्योंकि वह परग्रही है. उसके संस्कार-रिवाज यहाँ से भिन्न है. यहाँ के पैटर्न के बारे में वह कोरा-का-कोरा है. फलस्वरुप वह इस गोले के सिस्टम को एकदम ऑब्जेक्टिव नजरिए से देखता है. उससे आस्था- भावनाओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती. वह परग्रही है, इसलिए आस्था के उसके लिए कोई मायने नहीं, और विश्वास तो तब जगता, जब उसके मनमाफिक कोई नतीजा निकलता. निराश होकर वह इन स्थलों के कारोबार संभालने वालों को ‘मैनेजर’ कहता है.

जगत जननी उर्फ जग्गू (अनुष्का शर्मा) किसी खबर की तलाश में रहती है. जब वह ‘गॉड इज मिसिंग’ के पोस्टर बाँट रहा होता है, तो जग्गू को वह रुचिकर लगता है. किसी बिग ब्रेकिंग की आस में वह उसका पीछा करती है. उसे उम्मीद रहती है कि कोई उम्दा स्टोरी उसके हाथ लगने वाली है. चैनल्स के लिए बिग ब्रेकिंग न्यूज़ की मारामारी पर अच्छी-खासी चुटकी ली गई है. साथ ही संवेदनशील मुद्दों पर सवाल खड़ा करने से भयभीत चैनल हेड के कटु अनुभव भी दिखाए गए हैं. इधर पीके के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि, जो उसने इन्वेस्ट किया था अर्थात चढ़ावा चढ़ाया था, अब तक उसे उसका रिटर्न नहीं मिला, क्योंकि उसका काम तो हुआ ही नहीं. वह इस कारोबार को ‘गिव एंड टेक’ के नजरिए से देखता है. पीले रंग का हेलमेट पहनने के पीछे उसकी एक खास किस्म की धारणा काम करती है कि, वह इस कलर की वजह से अलग से पहचान में नजर आ जाएगा. जब वह दान पेटी से जेब खर्च निकाल रहा होता है, तभी श्रद्धालु उस पर हमलावर हो जाते हैं, तो ऐन मौके पर वह दोनों गालों पर भगवान की तस्वीर बने स्टीकर चिपका लेता है, जिसे वह बड़े फख्र के साथ ‘सेल्फ डिफेंस’ कहता है. जगत जननी को उसकी यह तरकीब, खूब रास आती है. जब उसका मकसद पूरा नहीं होता, तो वह वह गंडा-ताबीज-कंठी सब उतार फेंकता है. वह छोटे बच्चों की तरह मासूम सवाल करता है. छोटे बच्चे अबोध होते हैं. बड़े होते-होते उनके मन में कुछ निश्चित धारणाएँ पनपने लगती हैं. घर के संस्कार काम करते हैं. वह उसी संसार का अनुकरण करने लगता है, जिसका वह हिस्सा होता है.

तो पीके शहर भर में घूमता- फिरता है. उसकी एक सेट दिनचर्या रहती है. अंधेरा होते ही, वह एक निर्जन-वीरान बावड़ी में अपना ठिकाना बनाए रहता है. दिन भर लोगों से अजीब तरह के सवाल पूछता है. सवाल उसके संक्षिप्त से होते हैं, लेकिन तर्कपूर्ण. दुनियावी लोग उसके जवाब टाल जाते हैं. वह आस्था-विश्वास को तर्क की कसौटी पर कसता है. लगभग दार्शनिक स्तर के सवाल पूछता है, तो अच्छे-खासे लोग बगले झाँकने लगते हैं. जगत जननी उसका परिचय चैनल हेड से कराती है, “कौन है, कहाँ से आया, कुछ पता नहीं, पर जिस ढंग से वो इस दुनिया को देखता है, वैसे आप नहीं देख सकते. अगर आपको सिगरेट पीते देख लेगा, तो पुलिस को फोन कर देगा कि, जैरी बाजवा सुसाइड कर रहे हैं, क्योंकि पैकेट पर वैधानिक चेतावनी लिखी रहती है.”

फिल्म में एलियन के नजरिए से दुनिया को देखना, यहाँ के रस्मोरिवाजों को परखना, अंधविश्वास पर एक निष्पक्ष नजरिया रखने की कोशिश मानी गई. वह नवजात बच्चों के वार्ड में दाखिल होता है. बच्चों को उलट-पलटकर देखता है. फिर डॉक्टर से एक सवाल पूछता है, इंसान पर धर्म का कोई ठप्पा तो लगा ही नहीं है. डॉक्टर निरुत्तर हो जाता है.

वह किसी कठिन पर्चे के दिन, कॉलेज के सामने एक पत्थर रखता है और उस पर लाल रंग पोतकर लाइव डेमो देता है. इन्वेस्टमेंट के तौर पर कुछ सिक्के चढ़ा देता है, फिर दूर से नजारा दिखाता है. भयभीत परीक्षार्थी आते-जाते हैं. पत्थर के सामने बाकायदा शीश नवाते हैं, खुशी-खुशी चढ़ावा चढ़ाते हैं. विज्ञान के विद्यार्थी भी, इस भय से मुक्त नहीं दिखाई पड़ते.

हवा से सोना पैदा करने वाले बाबा से, ऑडियंस में से कोई सवाल करता है, जब आप में इतने दुर्लभ गुण हैं, तो आप देश की गरीबी खत्म क्यों नहीं कर लेते. कुल मिलाकर, वह तरह-तरह के तर्क-वितर्क कर आस्था के नाम पर चल रहे रुढि-अंधविश्वास को कटघरे में ला खड़ा करता है. वह हर बात को यूँ ही स्वीकार नहीं करता, उसे तर्क की कसौटी पर कसता है. उसके मासूम सवाल आम दर्शक की संवेदना तक को झिंझोड़ जाते हैं. बेचारे की एक ही समस्या रहती है. निदान की उसे तुरंत दरकार रहती है. उसे इस रिलीफ की सबसे ज्यादा जरूरत है, इसलिए वह हर उपासना स्थल पर बस एक ही प्रार्थना करता है कि, उसे उसका रिमोट वापस मिल जाए जाए. उधर उसका रिमोट चोर बाजार से तपस्वी महाराज (सौरभ शुक्ला) के हाथों में पहुँच जाता है. गॉडमैन बाबा उसे भगवान शंकर के डमरू से निकला मनका बताकर, अपने फॉलोअर्स पर सिक्का जमाए रहता है. फिर चैनल्स की वही बेसब्री, वही सवाल-जवाब कार्यक्रम. संक्षेप में, फिल्म इंसानियत की कहानी है, उसे जब-जब उसका विद्रूप चेहरा दिखता है, तो वह उसे भौचक्का होकर देखता है. उसके कान थोड़े बड़े से दिखते हैं और भृकुटि चढ़ी हुई. मानो इस दुनिया के अजीबोगरीब कारोबार को देखकर, उसकी आँखें विस्मय से फैल गई हों. बहरहाल, फुलझड़िया से भाषा- ट्रांसफर में पीके, भोजपुरी उतनी अच्छी नहीं सीख पाया, अलबत्ता पान खाना कायदे से सीख गया.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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