धारचूला, असकोट पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में अनेक प्रकार के जंगली जानवर व पक्षियों के साथ साथ एक गुलदार भी रहता था जिसे पेड़ों पर चढ़ने का काफी अभ्यास था. जैसे ही गुलदार पेड़ों से नीचे उतरते हैं वहां के छोटे जानवर और चिड़ियाँ अपनी बोली में एक दूसरे को सावधान कर देते हैं. बेचारा गुलदार शिकार ने मिलाने पर निराश होकर गुस्से में बड़ी भयावह बोली में बोलता है. कभी-कभी बन्दर उस गंभीर और भयावह गर्जना से घबराकर पेड़ से नीचे कूद जाते हैं जिन्हें गुलदार अपना शिकार बना लेता है. (Pithoragarh Leopard Hunt Thakur Dutt Joshi)
पिथौरागढ़ जनपद में वनरावत एक जनजाति है जिसके सदस्यों की संख्या बहुत कम है. ये लोग काष्ठ के बर्तन और खिलौने बनाते हैं. (Pithoragarh Leopard Hunt Thakur Dutt Joshi)
कुटाग्राम में खेमा नाम का एक वनरावत रहता था. वह सुबह जंगल जाता और शाम को लौटता था. उसका यह प्रतिदिन का नियम था. एक दिन खेमा घर नहीं लौटा. गांव के लोगों ने आपस में पूछा कि खेमा वापस क्यों नहीं आया. खेमा की एक विश्वा बहन थी. वह भी गायों के साथ घास के लिए वन जाती थी. उस रात वह भी गांव नहीं लौटी. गांव वालों ने सोचा दोनों भाई-बहन दूसरे गांव गए होंगे. सुबह खेमा की बहन बड़ी उदास हालत में घर पहुँची और रोने लगी. गांव वाले इकठ्ठा हुए और उससे पूछने लगे. लड़की ने बताया कि उसके भाई और गुलदार की लड़ाई हुई थी. वह लड़ते-लड़ते एक नाले में चले गए थे. मुझे डर लगा और मैं गांव को चली आई. अन्धेरा हो गया था रास्ता भूल गयी. घर के बजाय दूसरे जंगल चली गयी. रात भर चलती रही. मुझे घर का रास्ता नहीं मिला सो सुबह होने पर घर लौटी. मैं समझी कि भाई घर आ गया होगा लेकिन अब संदेह हो रहा है कि गुलदार ने उसे अपना शिकार बना लिया होगा.
गांव वाले हाय-हल्ला करते जंगल को चले. खेमा की बहन नूरी भी साथ गयी. उसने बताया कि नीचे नाले में बांस के पेड़, जिस पर चमेली की बेल फैली है, के पास दोनों की लड़ाई हो रही थी. गांव के लोग कुल्हाड़ी, लाठी लेकर मौके पर गए. वहां पर खेमा की टोपी, तम्बाकू और चिलम मिल गए. कुछ आगे बढ़ाने पर कुछ फटे हुए कपड़े मिले. लेकिन खेमा का कोई निशान नहीं मिला. उसके बाद गांव वालों ने जंगल में आग लगाना शुरू किया.
आग के भय से गुलदार डीडीहाट, असकोट और मिर्थी के जंगलों में दिखाई देने लगा. उसने असकोट, नारायणनगर के पास मिर्थी के समीप एक दस वर्षीय बालिका को अपना शिकार बनाया. पास में एसएसबी ट्रेनिंग सेंटर में रायफल ट्रेनिंग के दौरान फायरिंग चल रही थी. गुलदार उस एरिया को छोड़कर भंडारी गांव में पहुँच गया. भंडारी गांव में बन्दूक तो थी परन्तु गुलदार मारने की गोली, एल.जी. आदि बारह बोर के कारतूस नहीं थे.
उत्तर प्रदेश वन निगम के अधिकारी श्री भंडारी जी तब अपने घर छुट्टी आये हुए थे. उन्होंने सलाह दी कि सब ग्रामवासी मिलकर हांका लगाएं. बंदूकों से हवाई फायर करें. गुलदार क्षेत्र से अपने आप भाग जाएगा. गांव वालों ने उनकी राय मानकर वैसा ही किया और गुलदार उस क्षेत्र को छोड़कर चंडाक पहुंच गया. वहां पहुँच कर गुलदार ने जनहानि के कई मामले कर दिए. पिथौरागढ़ क्षेत्र में गुलदार ने आठ महिलाओं और बच्चों को चार-पांच महीनों के भीतर अपना शिकार बना लिया. क्षेत्र में बहुत भय पैदा हो गया.
मैं एक सहयोगी राम नरेश यादव, वन्य जीव रक्षक को लेकर पिथौरागढ़ पहुंचा और चंडाक में रहते हुए गुलदार की गतिविधियों पर निगाह रखने लगा. चंडाक में एक स्थान मोस्टामानू है. वहां पर एक बड़ा मंदिर है. उसी के पास वनरक्षक की चौकी है. खाने का प्रबंध चौकी पर था.
दिनांक 10-3-1989 को नानकोट में शेरीराम की पत्नी जिसके दो बच्चे थे, शाम चार बजे अपनी सहेली के साथ गांव के ऊपर वन पंचायत के जंगल में घास काटने गयी. घनी झाड़ी और कांटेदार बेलों वाला जंगल था. दोनों घास काट रहे थे जब एकाएक उन्हें झाड़ी के अन्दर से सरसराहट सुनाई दी. प्रतिमा देवी (शेरीराम की पत्नी) ने सोचा उसकी सहेली होगी. वह फिर घास काटने लगी. कुछ ही देर में आसमान से बारिश की बूँदें गिरने लगीं. साथ में ओले भी. घास पत्तों की खड़खड़ाहट के साथ गुलदार झाड़ी से निकला. प्रतिमा चीड के एक पेड़ की आड़ में बारिश से बचाव के लिए खड़ी थी. गुलदार ने पीछे से प्रतिमा की गरदन पकड़ ली. वह चिल्लाई -“हीरा, बाघ! बाघ मुझे खा गया!” उसकी सहेली हीरा कुछ दूर थी लेकिन उसने सुन लिया. डर के मारे उसकी आवाज़ बंद हो गयी. वह घबराती-कांपती घर गई और जैसे तैसे पूरा किस्सा बयान किया.
लोग उसे ढूँढने गए तो पेड़ के पास प्रतिमा की चप्पल, दराती और कटी घास मिल गयी लेकिन वह नहीं मिली . अन्धेरा हो जाने पर गैस-लालटेन लेकर दूसरे गांव वाले भी आये और करीब आठ बजे उसकी लाश मिल गयी.
गांव वाले लाश को मौके से उठा लाये. गुलदार ने प्रतिमा की दाईं जांघ खा ली थी. गुलदार रात भर गर्जन करता रहा.
दूसरे दिन मैं वहां अंडरग्राउंड मचान बना कर बैठा रहा लेकिन गुलदार नहीं आया. 14-3-1989 की रात उसने छिड़ा ग्राम में आतंक मचाया. दिनांक 15-3-1989 को दिन में वह घास काटने वाली महिलाओं पर झपटा. गांव वाले सब चौकन्ने हो गए थे. आदमखोर को कई दिनों से अपनी मारी हुई लाश को खाने का मौक़ा नहीं मिल रहा था. इस आदमखोर ने तब तक कुल बीस लोगों की जान ले ली थी. श्री इकबाल अहमद पास ही के एक जंगल में जो उन लोगों का अपना था, गायों को चुगान करने को हांक लाये. उनके साथ ग्वाला नहीं था. नरभक्षी गुलदार के डर से लोगों ने जंगल जाना बंद कर दिया था.
17-3-1989 का दिन था. गायें जंगल में आ गई थीं. दिन के एक बजे के करीब गाय रंभाती-बिदकती घर आ गईं. उनमें करीब 7-8 साल की एक काली गाय के वापस न आने गांव वालों को शक हुआ. उस समय इकबाल खाना खाने घर आया हुआ था. उसने कुछ आदमी बुलाये और बंदूक लेकर जंगल की तरफ निकल गया. इकबाल धीरे-धीरे शिकार की ओर जा रहे थे. पत्थरों की एक चट्टान थी जिसकी आड़ लेकर बीच में एक छोटा सा नाला था. गुलदार ने गाय को उसी नाले में मार रखा था. मारी तो कुछ दूर थी लेकिन गुलदार लाश को हमेशा आड़ में लेकर आता है और तभी खाना शुरू करता है.
गुलदार कई दिनों से भूखा था. मरने के बाद आड़ में लाकर खाने लगा था. जब इकबाल ने उसे दूर से देखा वह घबरा गया.. फिर साहस बाँध बन्दूक को आगे कर थोड़ा आगे बढ़ा. उसने बिना निशाना लगाए बारह बोर की बन्दूक से फायर कर दिया. गुलदार उसे देखता रहा गया. ऐसा लगा कि गुलदार उस पर आक्रमण करने ही वाला है. वह पीछे को हटा और हल्ला करते हुए पत्थर फेंके. तब जाकर गुलदार वहां से धीरे-धीरे आगे चला. फिर पलटकर देखने लगा.
शाम के पांच बज चुके थे. साढ़े पांच बजे हम तीन बन्दूक वाले – मैं, पाटनी और इकबाल – उस चट्टान पर गए जहाँ से इकबाल ने फायर किया था. हम देखना चाहते थे कि गुलदार वहां लौटा या नहीं. उस समय तक वह नहीं आया था.
मचान बाँधने का समय तो था नहीं सो मैं उन दोनों को साथ में बिठा कर गुलदार की प्रतीक्षा में अपनी 315 बोर रायफल के साथ बैठ गया. दोनों शिकारियों से भी मैंने बैरल में गोली भर लेने को कहा. ठीक छः बजे थे. सूर्य की रोशनी जाने वाली थी. गुलदार एक झाड़ी से निकला और खुली जगह में जाकर बैठ गया. वह करवट बदल-बदल कर जम्हाई ले रहा था लेकिन शिकार की तरफ नहीं आ आ रहा था. संभवत दिन में की गयी फायरिंग के कारण उसे शक हो गया था.
सामान्यतः ‘सामान्य शिकार’ की तरफ गुलदार निर्भय हो कर चला आता है. अन्धेरा होने ही वाला था. हम बिना मचान के जमीन पर बैठे थे. लाइट भी लेकर नहीं आये थे. गुलदार को संदेह सा हो गया कि आगे बढ़ने में खतरा है. गुलदार लगभग दो सौ गज दूर बैठा हुआ था.
मैंने 315 बोर की रायफल निकाल कर निशाना लगाया और इकबाल और पाण्डे को भी कह दिया कि आप लोग अपनी दो नाल को सिस्त के वास्ते खड़ी करो. मांसाहारी जानवरों की सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है. इकबाल और पाण्डे अपनी-अपनी बारह बोर बंदूकों से निशाना लगा रहे थे. उन बंदूकों की बोर से जले हुए बारूद की खुशबू आ रही थी क्योंकि ताजी फायर के बाद उन्हें साफ़ नहीं किया गया था.
पश्चिम से पूर्व की तरफ शीतल हवा चल रही थी. शिकारी भाइयों ने बन्दूक को लोड करने को फोल्ड किया टो नालों से हवा पास हुई और गुलदार चौंका. मेरी 315 बोर रायफल लोड तो थी लेकिन आधी लॉक थी. मैंने दाहिने हाथ के अंगूठे से लॉक को पूरा खोला. उधर गुलदार पर निगाहें रखे हुए दाहिने हाथ की दूसरे नंबर की उंगली को ट्रिगर पर रखा और धीरे से गोली दाग दी. मेरी फायर उस पर लग गयी. मैंने गुलदार को उलटा देखा. फिर आगे खिसक गया था. अँधेरा हो चुका था. मैंने फायरिंग अनुमानित की थी क्योंकि पीछे की तरफ से साइड की नोक नहीं दिख रही थी. मैंने कहा कि चलो. इस समय अन्धेरा था. गुलदार अपनी जगह से खिसक कर आगे बढ़ गया था. सुबह अन्य लोग भी आसपास से आये. हम सब जंगल की तरफ गए और देखा कि जहाँ से गुलदार को गोली मारी गयी थी वह वहां से नजदीक ही मृत पड़ा था. गोली 315 बोर की ही लगी थी और वहां पर काफी खून गिरा पड़ा था.
गुलदार को पोस्टमार्टम के लिए चंडाक मंदिर के पास रख दिया गया. फील्ड डायरेक्टर साहब ने मुझसे दोचार दिन और आतंकित क्षेत्र में गशत करने को कहा. मैंने क्षेत्र में दुबारा गश्त की लेकिन किसी भी अप्रिय घटना की खबर नहीं मिली. आदमखोर गुलदार के अंत के साथ ही क्षेत्र के लोगों का भय भी समाप्त हो गया था.
-ठाकुरदत्त जोशी
(यह अंश उत्तराखण्ड के मशहूर शिकारी स्व. ठाकुरदत्त जोशी की पुस्तक ‘कुमाऊँ के खौफनाक आदमखोर’ से साभार लिया गया है.)
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