डॉ मुन्ना भाई शाह अलमस्त से वह, जो पिथौरागढ़ महाविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे और मुझे बहुत कुछ सिखा गये. किसी भी बात को साफगोई से कह, अपने सरल भावुक व्यवहार से हर काम निभा ले जाना उनकी सबसे बड़ी खूबी थी. अपने हर प्राचार्य के वह हमेशा प्रिय रहे. उनके अधीन हर कर्मचारी उनके गुण गाता रहा. जटिल निर्णय लेने में वह पूरा सोच विचार करते. मुँह में पान रहता उसका रस लाला ग्रंथियां तब तक बनाती जब तक समस्या का सटीक समाधान न सूझता. फिर थोड़ा समय रस के अंतरजात या बहिरजात गमन में लगता. अब जो भी सौल्यूशन उनकी प्रेममय भाषा से निकलता वह अनूठा लाजवाब होता.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
अल्मोड़े के नामचीन पनवाड़ियों के हाथ से लगे पान की खासियत पर उनके पास इतनी बुनियादी जानकारी थी कि उससे विस्तृत पान पुराण रचा जा सके. पिथौरागढ़ में भी उन्होंने पान लगाने व पान रसाने की दुर्लभ विद्या एक अपने चहेते पनवाड़ी को बताई थी जो उनकी विधि से शास्त्रोक्त पान रसा कर ठीक साढ़े नौ बजे पनडब्बे में डाल उनके विश्वस्त अनुचर करम सिंह महर उर्फ़ करम दा के हाथ सौंप देता था जो कॉलेज में उनका दिन का कोटा होता. शाम कॉलेज से लौटते शाह जी स्वयं पांडे गांव में अपने चेले से पंडब्बा भरवाते और गपशप भी होती. इस चेले जिसका नाम शेरदा था. बाद में शेरदा का मैं भी मुरीद हो गया था जो अपने ईजा बाबू की सेवा के लिए कानपुर की लाल इमली वाली मिल की नौकरी छोड़ पनवाड़ी बन गया तो शाह जी का चेला बनने के दुर्लभ संयोग ने उसकी दुकानदारी को चार चाँद लगा दिए. किसी भी समस्या को सुलझाने में पान का रस सिक्त प्रयोग शाह जी इत्मीनान से करते. अपने हेड साहिब ने कुछ ही स्नेहिल मुलाक़ातों में पानप्रयोग के दुर्लभ मन्त्र-तंत्र मुझे प्रदान कर दिए जो वाकई बड़े काम के थे.
कॉलेज में पहले दिन ज्वाइन करने के लिए दस बजे से पहले ही कॉलेज पहुँच जाने के मेरे फितूर ने जी आई सी रोड तक आते-आते आड़ी तिरछी बारिश से मुझे तरबतर कर दिया.अब पांडे गाँव तक पहुँचते ऐसी हवाएं चलीं कि छाते की सींकें सब पीछे की और पलट गयीं और ठीक बगल और पीछे से आ रहीं जी.जी.आई.सी की बालिकाएं खी-खी कर मुँह छुपाने लगीं. अपनी कुछ बेवकूफियों का और प्रमाण क्या दूँ कि चश्मा अभी भी लगा था. उसे निकाल छाते का बैलेंस सँभालते देखा कि तेज बारिश में वो अल्हड किशोरियां बच्चियां खूब मस्ती से भीगती जा रहीं हैं. बेपरवाह, बारिश उनका क्या जो बिगाड़ लेगी. भीगना तो मुझे भी खूब पसंद रहा. वो दिन याद आ गये जब भीग-भाग घर कउवा सा पहुँच ईजा और आमा की खूब डाँठ खाता था, फिर लुकुड़े बदलने तक बड़े गिलास में चाय मिल जाती थी.
इन यादों के मंडराने को तब विराम लग गया जब मुझे लगा कि कि मेरे छाते को किसी ने पकड़ रखा है. सचमुच ही देवानंद से बाल वाले सांवले से, जवानी की देहलीज से ढलते चेहरे पर गंभीरता ओढे व्यक्ति ने मेरा छाता पकड़ लिया था और अब वह मुस्कुराते हुए मुझे आने का इशारा कर दस कदम आगे की एक दुकान पर रुक गया था. उसके चलने में खम था. चाल थोड़ी लचकती थी.
फुर्ती से छाते की सींक सीधी कर उसने छाता बंद कर दिया था. जिस खोमचे पर वह रुका, वह सिगरेट-बीड़ी-पान टॉफी बिस्कुट से बेतरतीब अटी थी. इनके बीच, पटरे पर आसन लगाए बड़ी सज से गेहूंवे से काया पड़े चेहरे वाला इत्मीनान से एक लोटे में कत्था घोल रहा था. उसकी आँखे बड़ी पनीलीं थीं, जैसे जमाने से गमों से उसका वास्ता पड़ गया हो और दूसरे को इसकी भनक न पड़े जिसके लिए उसने अपने होठों पर मुस्कान चिपका दी थी. देखते ही देखते, हम दोनों के अगल-बगल पांच सात और लोग भी जमा हो गये. मैंने पान की ढोली पर नजर डाली. मीठा बंगला था, पुराना देशी था जिनके कटे पत्ते भीगे लाल कपडे में आधे ढके थे.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
हां हो शेर दा,जल्दी करो हो. दो चार्मिंनार और एक माचिस. साली ऐसी बारिश पड़ी कि चिमसियानौले से उतरते ही बाढ़ जैसी फूट गई. अरे उसे पार करने में साला आधा घंटा लग गया. अब हमारे हेड मास्टर साब कहते हैं, ठीक साढ़े नौ पै जम जाओ अपनी कुर्सी पै. अब तुम्हीं बताओ यार दीवानी, कैसे पार पाएं इस द्यो से. अब ऊपर की टंकी फुल होगी तो नीचे धरकेगी ही. कर्रा सा जवाब दीवानी का. अच्छा, तो जिसने मेरी छाता सीधी की, उसका तार्रुफ दीवानी था.
हमारे कॉलेज से तो, जब से प्रिंसिपल खन्ना साब गये तब से कभी भी आओ, कभी भी सटको वाली चाल हो गई है. इमरजेंसी का भी कोई फरक नहीं पड़ा. आपके ठाकुर साब तो खूब सख्त हैं. इंटर के लौंडो का यहाँ-वहां फिरना बंद कर दिया है. क्यों हो? दीवानी बोला.
अच्छा तो यह दीवानी राम है आर्टिस्ट. दीप ने जिक्र किया था इसका. ये महाविद्यालय के जुलॉजी डिपार्टमेंट से सम्बद्ध था.
आपके लिए कैसा पान बनाऊं सैबो? शेर दा ने मुझसे बड़ी मोहिली सी आवाज में पूछा.
बंगला, कत्था-चूना बराबर, बाबा 120, राजरतन, गीली सुपाड़ी- अब शेरदा ने मुझे ध्यान से देखा, उसी प्यारी मुस्कान से. अब उसने मुझसे पूछा, पहली बार देखा आपको, आप…
मैं कुछ बोलता इससे पहले दीवानी की कड़क और कुछ तीखी आवाज, चाय के ज्यादा देर तक ख़ौल जाने जैसी, उभरी. शेरदा, ये पांडे जू हुए अपने दीप पंतजू के दगड़ुए हैं, ये भी नैनीताल वाले हुए. अभी अल्मोड़ा कॉलेज से आ पड़े हैं. गांव भी इनका अल्मोड़ा में ही पड़ता है. आज ही ज्वाइन करेंगे कॉलेज. आज छनचर हुआ और हमारे जैसे शनीssचर सुबे सुबे मिल गये इनको. क्यों! शेरदा.
तंज कसना जानता है ये दीवानी. आखिर आर्टिस्ट हुआ.
आप के बारे में दीपपंत जू ने खूब बताया है कि दिखता भी मेरे ही जैसा, दाढ़ी भी दोनों की. दीप पंतजू से तो अपनी खूब बनती है. पढ़ने-पढ़ाने के गुणी, कला संगीत के धनी हुए. अपनी धुन में चलते हैं, अरसे बाद मिल पाते हैं ऐसे गुरु लोग.
शेरदा ने दुबारा मुझे हाथ जोड़े फिर मुस्कुराते बोला, ‘अभी राजरतन तो है नहीं, बुलेट किमाम है, उसे छोड़िये, बाबा 90 डालता हूं. कितने लपेटूँ’? शेरदा इतने अपनेपन से बोला कि मुझे लगा कि इसे तो में बरसों से जानता हूं’.
चार तो बांध दो. एक खिला दो.
मैंने पाया दीवानी की नजर मुझ पर ही टिकी थीं. बीच-बीच में उसकी लम्बी गांठदार उंगलियां दुकान के पटले को बजा रहीं थीं. तबले में माहिर संगत वाला होगा ये.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
सिर्फ चूना रगड़े पान के पत्ते में रामपुरी काला तमाखू खाया है आपने? उसने मुझसे पूछा.
ना, मुझे रामपुरी की बदबू पसंद नहीं. मेरे बब्बा लाते थे रामपुरी के डंडे. बरसात में सील के मारे बदबू फैलाता था वह. तब तवे में सुखाते थे. खाना ही हो रहा ऐसा बदबूदार तमाख. बौजू हमारे वैसे वो बाबा 120 ही लेते थे पान में, राजरतन के साथ.
अरे! ये तो पुश्तैनी शौक हुआ, यह मरना नहीं चहिए. यहाँ आपके हेड सैब भी खूब जुगाली करते हैं. अब ये शेरदा पान खिलाता भी ऐसा है कि जेब में छेद पड़ जाएं. बड़े महंगे जरदे जाफरान डालता है ये धर्मपाल प्रेम चंद वाले. तुलसी, बाबा, रत्ना, प्रभात जर्दा फैक्ट्री.
अब एक शेर तो सुन ही लो ओ शेर दा! इस पान की नजरे इनायत के साथ. मुझे भी अपना नखनऊ याद आ गया. तो फरमाया है,
पान जो खाता है, दिल वो जवां रखता है
धड़कता है दिल, कम्बखत जो महज
पान का टुकड़ा होता है.
वाह वाह. दुकान में चिपट रहे गाहकों ने सियारों की हूक जैसी तारीफ कर दी. दीवानी मस्त है आज, क्या बात है दीवानी. वही बोले जिन्हें जाने की जल्दी थी. अब कल ही तो तन्खा मिली. सुरूर तो बनेगा ही.
शेर दा मुस्काया. उसके काले पड़े होठों के बीच के बिल्कुल सफेद दाँत चमके. ‘गजब का कलाकार हुआ साब ये दीवानी. अभी सही तो लोटीने में भी देर नहीं’.
“आर्ट कॉलेज का ठप्पा हुआ इस पर सर, रणबीर सिंह साब हुए बल लखनऊ के फेमस आर्टिस्ट, उनकी शागिर्दी की है इसने”. दीवानी ने शेरदा का पकड़ाया पान मुँह में ठूंस, चुप्पी साधी.
पान भी क्या लगा था. शेर दा की दुकान से निकल पांडे गांव के पुल तक हम दोनों चुप थे पान के मजे में मस्त. आगे बजेटी को जाने वाले रस्ते में दीवानी का मुँह खुला. पान की पीक निपटाने के बाद. मैं तो कुछ बोल कर पान का मजा ख़तम नहीं करना चाहता था पर सड़क से ऊपर जाते कच्चे रास्ते को देख दीवानी से पूछ ही बैठा.
ये रास्ता तो ऊपर बजेठी को जाता है न जहाँ कुछ कमरों में हमारे कॉलेज की शुरुवात हुई थी.
हाँ, कॉलेज ही क्या? बजेठी से इस शहर में और भी बड़ी शुरुवात हुई थी. दीवानी बोला.
वो क्या?
सर जी. ये जो बसासत है न, इसे बसना तो शिल्पकार के ही हाथों है. आपने सुना होगा ओढ़, बारूड़ी, ल्वार और कुल्ली-कभाड़ी. इनके बिना आशियाना नहीं बनता. तो, ऐसा ही एक ओढ़ बहुत पहले, छह सात सौ साल पहले इस बजेठी में दो मंजिल का मकान बना दिया. उसका नाम था रिजुवा ओढ़. कहते हैं कि, बजेठी की यह जमीन रिजुवा ओढ़ को कत्यूरी राजा पिठोराशाही ने उपहार में भेंट की, उसने राजा का सपना जो पूरा किया था, अपने हाथ की कारीगरी से, लकड़ी-मिट्टी-पत्थर के उस तालमेल से जिसने इसे वास्तुकला का बेजोड़ नमूना बना दिया था.
रिजुवा ओढ़ पहले छाना गांव में अपने कुनबे के साथ रहता था, जो गोरंग घाटी में चंडाक के परली तरफ मोस्टमानु से भी आगे है. ये बात करीब 1390 ईस्वी की होगी जब कत्यूरी राजा पिथोराशाही ने यहाँ के खड़कोट गांव के उत्तरी टीले में कत्यूरी शैली में गढ़ी के किले को बनाने की ठानी. छाना में रहने वाले रिजुआ ओढ़ को बुलाने उसके घर डाकिया भेजा. रिजुआ ओढ़ के हाथों में जादू था. बड़ी मेहनत और शिल्प की बारीकी से उसने किला बनाया. वो धुन का पक्का अपने काम में पूरे ध्यान से जुट जाने वाला था. स्वभाव भी सरल-विनम्र, गऊ जैसा भोला. अब थोड़ी उम्र हो चली थी तो कई बार अपने गांव छाना से खड़कोट पहुँचते उसे देर हो जाती. राजा को उसके समय पर न आने की बात पता चली तो वह नाराज भी हुआ. तब रिजुवा ने कहा क्या करूँ मालिक ह्यून यानि जाड़े के दिन हैं सुबह देर से होती है ब्याल यानि शाम जल्दी हो जाती है. फिर इतनी दूर से आता हूँ, रस्ते में घना जंगल है. बाघ-भालू भी हुए जिनका दिखने का बखत भी यही हुआ. राजा उसके काम और व्यवहार से हमेशा खुश रहता था. वह जान गया कि वह सीधी सच्ची बात कह रहा है इसलिए उसने गांव बजेठी में पश्चिम की ओर की जमीन रिजुवा ओढ़ को, उसके किले के सुन्दर भव्य निर्माण के इनाम के तौर पे दे दी. तब रिजुआ ने अपने लिए बजेठी में दुमंजिला मकान बनाया जिसे रिजुवा ओढ़ के नाम से जाना जाता है.
राजा की जो गढ़ी उसने बनाई थी उसे 1962 में तोड़ सरकारी बालिका इंटर कॉलेज बना. दीवानी ने फिर पान मुंह में चुंभलाया और मेरी ओर एकटक देखते बोला- अभी एक और गजब की नेचुरल विरासत हुई बजेठी में और वो है,”हुदुंन्या ढुङ्ग” यानि तीन ओर धार वाला पत्थर जिसमें जंगल जा घास काटने वाली सैणियाँ यानि औरतें अपनी आंसी की धार तेज करतीं हैं. आंसी तो समझते ही होगे सरजी. मतलब है दातुली-दराती. बिना आंसी के न घा कटे न लकड़ी. घर में पाले जानवर और घर के चूल्हे के लिए तो आंसी की धार तेज ही रखनी पड़ती है.
अब बारिश थम गयी थी, पर ऊपर से नीचे आड़े तिरछे आ सब कपड़े भिगा गयी थी. जूते में भी पीली भूरी लसलसी मिट्टी के निशान थे. बजेठी को जाते रास्ते से नीचे जो सड़क कॉलेज को जा रही थी उस पर चलते दिवानी सड़क के दायीं और बनी पत्थर की सीढ़ियों पर चढ़ मुझसे बोला कि दस बजने में पांच मिनट ही रह गए हैं, चलिए शार्टकट पकड़ते हैं. अब ये जो शार्टकट था वह खेतों के बीच बनी फुट डेढ़ फुट की पगडण्डी थी जिससे होता पानी नीचे के खेतों में जा रहा था. जिस मिट्टी पर पाँव पड़ रहे थे वह बहुत ही चिफड़-फिसलनदार थी. चलने में बड़ी सावधानी रखनी थी. आगे दीवानी था जो उचक-उचक कर बड़ी फुर्ती से चला जा रहा था. मैंने देखा की उसकी बायीं टांग में गहरी लचक है और हर बार रुकने पर वह अपने घुटने की कटोरी को दबाता भी है. आखिरकार हम कॉलेज पहुँच गये थे.
सुन्दर कलाकारी से लिखा बोर्ड- राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़. हिमालय. उत्तरप्रदेश.
इसके ‘हिमालय’ पर मेरा ध्यान अटका. निश्चित ही यह दीवानी की कलाकारी थी. उसकी सोच थी.
बहुत ही बढ़िया हुआ जो तू आ गया. अब मेरी प्रॉब्लम सॉल्व. पांच के स्टाफ में तीन का ट्रांसफर हो गया. अब दो लोगों में काम कैसे चले. मेरे हेड मुन्ना भाई शाह जी पूरे कॉलेज का चक्कर लगाते अनुशासन-मंडल का मुखिया होने की अपनी ड्यूटी भी पूरी कर रहे थे. मेरा परिचय भी सबसे करा रहे थे और मुझे ये भी बता गए थे कि मैंने कौन सी क्लास में क्या पढाना है. कॉलेज भी अच्छा खासा फैला हुआ था. बड़ी मस्ती और उत्साह के साथ, पूरे कॉलेज की परिक्रमा करा,जब हम अपने विभाग पहुंचे तो वहां चाय की खुशबू समाई थी. कोने में हीटर पर कितली चढ़ी थी. शाह जी ने सिंक में जा पहले नीचे डस्ट बिन में पान थूका, फिर कुल्ला कर सबसे बड़ी मेज वाली अपनी कुर्सी पर जम गए. हाँ हो करम दा, चाय पिलाओ अब. फिर मुझे बैठने का इशारा कर बोले, ‘ये करम दा हैं. फ़ौज के रिटायर्ड. स्पोर्ट्स का सारा काम भी इन्हीं के जिम्मे. और हां, घूमने फिरने के बड़े शौकीन. पिथौरागढ़ के कितने डाने-काने दिखा दिए इन्होने. अब आगे बिल्वेश्वर चलेंगे, नकुलेश्वर जायेंगे और वो मोष्ट मानु. अब सावन का महीना हुआ सब शिवमय. क्यों हो करम दा?
बड़े सलीके से दो कप चाय मेज पर रख करम दा बोला “हाँ ,वो चौमू देबता और हर द्यो भी कहा था आपने ,मेला हुआ वहां इसी संक्रांत को “.
हाँ ,वहां तो जाना ही है. वो जब दो तीन दिन की छुट्टी पड़े तब चलेंगे. तुम भी साथ रहोगे. दीप तो हमेशा तैयार हुआ. तुम्हारे साथ चलने में फोटो भी खिंचवाई जाएगी. अरे हाँ, ये जो करमदा है न, इससे गाने सुनो पहाड़ के. हिलजात्रा में लखिया भूत बनता है. पूरा औतरी जाता है. करम दा शरमा गया उसके लम्बे बड़े से मुंह में कुछ पल के लिए कई लकीरें उभरीं. बड़ी सी डबडबाई आँखों में एक सुकून का सा भाव उभरा. उसकी आँखों के कोए पीलापन लिए भूरे हो गए थे. करमदा छह फुट से भी दो तीन इंच लम्बा था.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
‘वो कुण्डल को बुला दो हो करमदा, वो फीस जमा कर बैंक जाने की तैयारी में होगा. ये जो फुटबाल की टीम जानी है उसका पैसा निकलना है. बिपिन के साथ तुम चले जाओगे?
सावन में तो बाहर मेरे खाने-पीने की दिक्कत हो जाती है साबो. अगले फेरे चले जाऊंगा.
अरे हाँ! चलो वो तारा दत्त चला जायेगा. पर वो कब-कहाँ टुन्न हो जाये यही झसक रहती है. प्रिंसिपलों का अरदली क्या रहा खुद को किसी लाट साब से कम नहीं मानता.
उसकी बिरादरी में तो नातक हो रहा. बलभद्र को ले जाना आप. मैं कुण्डल को बुलाता हूं.
दिन कितनी जल्दी बीते पता ही न चला. बहुत क्लास लेनी होतीं थी. अभी स्टॉफ कम. स्टूडेंट बिल्कुल रेगुलर. कितने दूर-दूर के गावों से आते हैं पढ़ने. कई तो सुबह छह -सात बजे ही चल पड़ते हैं पहला पीरियड पढ़ने. अटेंडेंस लेने की तो जरुरत ही नहीं सौ वाली क्लास में डेढ़ सौ बैठते हैं.
अल्मोड़ा कॉलेज में मेरे सीनियर और उससे बढ़ ददा की भूमिका निभाने वाले डॉ निर्मल शाह अचानक ही पिथौरागढ़ कॉलेज आ मुझे चौंका गये. आखिरी पीरियड सवा तीन बजे ख़तम कर विभाग में पहुंचा तो कई लोगों की बातचीत व हंसी ठट्ठे की आवाज सुनाई दी जबकि इस समय हेड साहब ही कॉलेज के रहे बचे काम निबटा रहे होते. विभाग के बाहर लगी नेम प्लेट पर दीवानी मेरा नाम लिख रहा था. आप तो सिर्फ पाण्डे लिखते हैं न?
हाँ.
ये देसी पांडे य बढ़ा देते हैं. वैसे आपका नाम बड़ा गजब का रखा आपके बाबू ने! मृगों का राजा. शेर ही हुआ फिर. आप डोलते भी मृग की ही तरह हो. भीतर पौहुणे आये हैं आपको डोलाने. नामिक जाने का प्रोग्राम है. मुझे भी ले जाना हाँ नहीं तो लब कैंसिल. दीवानी मुस्कुराया.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
भीतर से चिर परिचित ठहाका ,निर्मल शाह का.
पूरा विभाग भरा था. हेड साहिब की कुर्सी के सामने निर्मल साह विराजमान. साथ में उनकी बगल में मेरे लिए एक अपरिचित चेहरा. अगल-बगल दीप पंत, जूलॉजी का बड़ा मेहनतकश सदानंद जो डॉ खन्ना पूर्व प्राचार्य का रिसर्च स्कोलर था. जूलोजी के ही पी सी जोशी, जो रजा कॉलेज में निर्मल के यार रह चुके थे. गणित के धुरंधर डॉ जगमोहन चंद्र जोशी और डॉ रजनीश मोहन जोशी. इधर हीटर में चाय की कितली उबालता करम सिंह और प्लेट में गरम समोसे रखता कुण्डल सिंह जो अभी नीचे उप्रेती कैंटीन से आए लगते थे. हमारे हेड साहिब खाने खिलाने में कभी पीछे न रहते.
विभाग में मेरे घुसते ही निर्मल ने मेरा कन्धा पकड़ हेड साहिब को सुनाते कहा, ये!अब आया मास्टर. अल्मोड़ा से इसके जाने के बाद तो हमारा विभाग सूना पड़ गया.
गधों की तरह जुटा रहना आता है इसे. कहीं घूमने की बात करो तो हमेशा तैयार.
अल्मोड़ा में बिताये अपने दिन याद आ गये. वहां मैं ब्राइटन कार्नर में रहता था बाटा वाले साह जी के मकान में. शाम निर्मल बुलाता था चौधरी खोला के अपने मकान में. तुझे कुछ नहीं आता क्वांटिटेटिव इकोनॉमिक्स में. मैं समझाऊंगा. यामी की किताब से शुरू करुँगा.
मैं पहुँचता. वो पढ़ाता. पूछता, खूब डांठता. वाकई वो जीनियस था. पूरे घर में किताबें थी बड़ी दुर्लभ उसकी लाइब्रेरी में, जहां इकोनॉमिक्स के साथ फिलोसौफी और शेरो शायरी भरी थी तो एक शीशे वाली अलमारी में कैसे कैसे ब्रांड वाले आसव. मेरे पहुँचने तक उनमें से कोई सुवास मेरे नथूनों को रोज तरंगित करती. साथ में उसकी बड़ी किचन से मीट मसाले की खुश्बू भी उभरती. मेरे लिए वह चाय बनाते ब्रुक बॉन्ड येलो लेबल. उसके सामने कभी एक बूंद न चखी होगी मैंने. दाज्यू की जिम्मेदारी वह पूरी निभाता.
जब शाम ढल जाती तो फिर टहलना शुरू होता. कभी धार की तूनी, कभी नारायण तेवाड़ी दीवाल. तलत मेहमूद के अनगिनत गीत उसकी जुबान पर. एक लाइन गा कर दो कदम आगे फिर एक लाइन. वापसी में ग्लोरी रेस्टोरेंट में वह डिनर के लिए लधर जाता और मैं वापस ब्राइटन कार्नर जहां विवेकानंद लैब मैं साइंटिस्ट जगदीश भट्ट खाना बना मेरा इंतज़ार कर रहा होता. सौजू के पांच कमरे वाले इस मकान में मैं और जगदीश साथ रहते थे.
तो इधर पूरे हफ्ते की छुट्टी पड़ रहीं. अपना पूसी डिअर भी आ गया. तो कल बस सुबे पांच बजे चल देंगे नामिक को. पूसी की पिकअप है. अब यहां से तू हुआ, अपना दीप दाढ़ी हुआ, और करम दा, कुण्डल हुए. अब अपने दाज्यू ने कह दिया कि करम दा का सब देखा भाला है व कुण्डल खाने पीने रहने टिकने का माहिर हुआ. इतने बढ़िया हेड साब मिल गये हैं तुझे.” निर्मल ने बात कहते अब फिर मेरी बांह पकड़ ली थी. मुझे मालूम था अब जब तक उसका सुर रहेगा वह मेरी बांह का लोथ निकालता रहेगा.
दीवानी भी चल रहा है. अपना आर्टिस्ट. मैंने एक सदस्य और जोड़ा. दीवानी जो चुपचाप एक कोने में खड़ा था, मेरी बात सुनते ही शरमाते हुए मुस्का दिया.
पूसी की पिकअप जितनों को समा ले. निर्मल ने हामी भरी.
मैं भी चलता पर तुम्हारी भौजी गईं हैं अल्मोड़ा. बेटा अकेला है घर में, वो इतना लम्बा चल नहीं पायेगा.तो कौन से रस्ते जाने का प्रोग्राम है? हेड साब ने पूछा.
हाँ, करम दा? अब आप तो सब झाँक आए हो. बताओ. आप भी दाज्यू ये समोसा चाय कब तक खिलाओगे.
तो घर चल. वहां तुझे नेहलाता हूं फौज वाली से.
अरे दाज्यू. ये पूसी है न अपना मेजर. परसों आया अल्मोड़ा सीधे पठानकोट से और बोला बस चल सीधे नामिक. मिलम तो कई बार हो आया हूं. अब हम तो परसों से चालू हैं. अभी बिंण भी जाना है. इसकी रेजिमेंट हुई अपने सीनियर से मिलेगा. रस्ते का कोटा भरेगा ये पूसी. वहीं गेस्ट हाउस में आज छोटा बड़ा सब है हमारा.हां तो करम दा, पांच बजे सुबे हाँ. अब रास्ता डिसाइड करो करम दा.
थल, नाचनी, थला ग्वार होते सही रहेगा साब. तय हो गया कि कल सुबे पांच बजे सिलथाम तिराहे से हम चल पड़ेंगे डीडीहाट को. खान पान की जिम्मेदारी कुण्डल पर रास्ता करमदा के रहमोकरम पर. दीप और मैंने बाजार से राशन रसद के लिए कुण्डल दा को नोटथमा दिए.
(Pithoragarh Degree College Memoir)
अगला हिस्सा यहां पढ़ें: छिपलाकोट अंतर्यात्रा : कभी धूप खिले कभी छाँव मिले- लम्बी सी डगर न खले
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…