गढ़वाल में चैत के महीने में गाए जाने वाले लोकगीत चैती कहलाते हैं. अधिकतर लोकगीतों का वर्ण्य विषय लोकगाथाएँ होती हैं. इन लोकगाथाओं में दो तत्व अनिवार्य रूप से होते हैं, पहला ससुराल में कष्टपूर्ण जीवन बिताती विवाहित महिलाओं की मायके जाने की ललक और दूसरा चैत के महीने में पहाड़ों का प्राकृतिक सौन्दर्य. सभी चैती गीतों में विवाहित महिलाओं की करुण गाथा होती है पर फ्यूंली की करुण गाथा के गीत तो बहुत ही मार्मिक हैं और विवाहित महिलाओं सहित भावुक पुरुषों के मन को भी गहरे से झकझोर देते हैं. Phyunli the Daughter of Mountains
लोकगाथा होने के कारण फ्यूंली के लोकगीतों में भी कथानक में कुछ अंतर भी मिलता है पर निश्चित रूप से अलग-अलग गाथाओं को गौर से पढ़ने-सुनने से मुख्य कथा को आसानी से ग्रहण भी किया जा सकता है. फ्यूंली की लोकगाथा या चैती लोकगीत से फ्यूंली के व्यक्तित्व और कथा को समझा जा सकता है और प्रकारान्तर से प्राचीन गढ़वाल में महिलाओं की दशा का एक प्रामाणिक दृश्य भी सहेजा जा सकता है. Phyunli the Daughter of Mountains
पहली बात ये कि फ्यूंली कौन थी ? और उत्तर ये कि एक पहाड़ी बेटी थी, पर्वतपुत्री. अद्वितीय सौंदर्यस्वामिनी. लोकगीतों में उसके सौंदर्य का वर्णन कुछ इस प्रकार है –
तैंकी मुखड़ी मा छयो सुरीज पीठी मा चंद्रमा
सोना जसी गेंद होली, धार जसो फूल!
वीं का रंग मा मैलो होंद धुमैलो सुरीज
वीं की मुखड़ी तैं बुरांसी लांदी रीस
वीं की काळी धौंपेली होली नाग सी लंबी
नाकड़ी तड़तड़ी, खांडाधार सी पैण्डी
ओंठड़ी त देखेली दाड़मी फूल सी वीं की
दांतुड़ी त देखेली घुगूती जौंळ जनी स्ये
भरीं ज्वानी होली जनो पाणी को सी ताल
रूड़ी की तीस जनि रूप की सी जोत
सोने सा पीला रंग था फ्यूंली का. पैनी नाक, लम्बे बालों की चोटी और दाड़िम के फूल से ओंठों वाली इस पहाड़ी बाला के सौंदर्य से बुरांस का फूल भी ईर्ष्या करता था. यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते ही फ्यूंली, पानी से लबालब भरे सरोवर के समान प्रतीत होती थी. मानवों में दुर्लभ सौंदर्य के कारण उसे ईश्वर की जाई और देवताओं की धियाण भी कहा गया. वो किसी राजकुमार से ब्याहने योग्य थी और एक दिन अजीत नाम के राजकुमार ने उसकी एक झलक पाकर ही उसे अपनी हृदयस्वामिनी बना लिया, ब्याह कर अपने राजममहल में ले गया. Phyunli the Daughter of Mountains
मायके से अतिशय प्रेम था फ्यूंली को. प्राकतिक सौंदर्य और स्नेहिल मायके के सामने उसे महल का वैभव भी फीका लगता. वो बार-बार अपनी सास से मायके जाने की अनुमति मांगती रही जिसे कठोर-हृदय सास हर बार निर्दयता से ठुकराती रही, ये कह कर –
दिन जु राती ब्वारी कनो तेरो मैत होलो
भात की पातळी तू उबाण नी देंदी
मैत को कलेऊ तू बांटण नी देंदी
डोलेरू की कांद तू सेळाण नी देंदी
गात की कापड़ी तू मैली होण नी देंदी
त्वै ब्वारी कनो मैत जाण देऊं?
क्या च तेरो वै मैत धर्यूं ?
दिन-रात बहू तेरी कैसी मायके की रटन लगा रखी है. तू तो भात का पत्तल सूखने भी नहीं देती. अपने मायके से आये उपहार बाँटने भी नहीं देती. कहारों के कंधों को थोड़ा आराम भी आने नहीं देती. पहने हुए कपड़े भी धोने लायक नहीं होने देती. बहू तुझे कैसे मैं मायके जाने दूं. तेरे मायके में रखा ही क्या है.
इस तरह मायके की खुद-नराई में फ्यूंली कुम्हलाने लगी. ससुराल में कोई चीज ऐसी नहीं थी जो उसे खुशी दे सके और न कोई व्यक्ति ऐसा था जो उसे सांत्वना दे सकता. बस किसी तरह जिंदा थी फ्यूंली. बिना किसी उद्देश्य के जिए जा रही थी. नियति को उसका निरुद्देश्य जीना भी मंज़ूर न था. अचानक घटी एक घटना ने फ्यूंली की जीवन-लीला समाप्त कर दी. लोकगाथाओं में फ्यूंली का दुःखद अंत थोड़े-बहुत अंतर के साथ समान रूप से वर्णित है. फ्यूंली, पनघट पर पानी भरने के लिए गयी होती है कि अप्रत्याशित रूप से उसकी मुलाकात उसके किसी जीजा से होती है. एक गाथा में जीजा की जगह पति का फुफेरा भाई अर्थात देवर भी बताया गया है. जो पनघट के समीप ही किसी पेड़ पर बैटकर ताज़े-महकते फूलों की सुंदर माला बना रहा था. माला वो फ्यूंली के गले में डाल देता है. ताज़े-महकते सुन्दर पहाड़ी फूलों की माला को देखकर फ्यूंली का चेहरा खिल जाता है. ये माला उसे सोने-चाँदी के हार से भी क़ीमती जान पड़ती है. और स्वाभाविक रूप से फूलों से उसके स्नेह को समझ कर पुष्पमाला भेंट करने वाला पुरुष भी प्रिय लगने लगता है. फ्यूंली तन-मन की सुधबुध खोकर अपने उस जीजा (या देवर) के साथ काफी देर तक पनघट के समीप ही किसी पेड़ की नीचे बैठी रह जाती है. समान रुचि के होने के कारण दोनों ने खूब देर तक बातें की – फूलों की, पौधों की. जंगल और उसमें विचरते पशु-पक्षियों की. फ्यूंली के मायके के हाल-समाचार की भी. Phyunli the Daughter of Mountains
देर शाम गए जब फ्यूंली घर लौटती है तो सास को आग-बबूला होकर गालियां बरसाते हुए पाती है. फ्यूंली देर का कोई कारण बताती इससे पहले ही सास उसके गले में सुंदर पुष्पमाला देख लेती है जिसे उतारने या छिपाने का फ्यूंली ने कोई प्रयास ही नहीं किया था. फ्यूंली कहती रही ये पुष्पमाला मुझे चरवाहों ने दी है. कभी कहती ग्वाले बच्चों ने दी है. अनुभवी सास के पास फ्यूंली के हर तर्क का तोड़ था. उसने कहा चरवाहों ने दिया होता तो माला का धागा ऊन का होता, ग्वालों ने दिया होता तो किसी घास में ही फूलों को गूँथा गया होता. पर ये तो सुनहरे सूत वाली नीलपट की डोरी है. सास अपने बेटे अजीत को फ्यूंली के चरित्र के बारे में भड़काती है और क्रोध में आगा-पीछा सोचे बिना राजकुमार अजीत अपनी तलवार से फ्यूंली को खीरे की तरह चीर कर मार देता है.
तब देखदी रौळ गळा मा चैसरो
हे मेरि ब्वारि यो चैसरो त्वै कैन दीने
आज को चैसरो रौळ कै पालसिन दीने
पालसी देंदू त कुई ऊन को धागो होंदो
बोल ब्वारि आज को चैसरो त्वै कैन दीने
आज को चैसरो रौळ मैं ग्वेरुन दीने
ग्वैर छोरोन दियूं होंद त इनु चैसरो होंद?
देख्याले रौळन् चैसरो सोवन को सूत
सोवन को सूत नीलपट को धागो.
तब चड़ीगे रोस राजा अजीत तैंई
छाती बबलांदी वैकी गाती थथरांदी
गाड्याले वैन समसीर एकी छपाक मा
वा काखड़ी-सी चीर दीनि गोदड़ी सी काटी.
किसी गाथा में सास के तानों से दुःखी फ्यूंली द्वारा ताल में डूबकर आत्महत्या करने का वर्णन भी मिलता है. जो भी रहा हो, फ्यूंली रानी तो देवकन्या थी फिर से देवलोक चली गयी. पर उसकी आत्मा तो अभी भी उस पुष्पमाला में ही अटके थे. इसी पुष्पमाला ने उसकी जिंदगी का नाश किया. उसकी उड़ती हुई आत्मा माला के फूलों में ही समा गयी.
एक दिन देखा गया कि जहाँ फ्यूंली को दफनाया गया था वहाँ एक नाजुक से पौधे पर पीले रंग का फूल खिला हुआ है, उदास-सा. गाँव की कन्याओं ने देखा तो जोर से पुकारा – “फ्यूंली….ली….ली.”
छाला पर जमीगे एक डाळी
डाळी पर जरमे निरासू-सी फूल
तैं डाळी पर फ्यूंली को फूल जरमी गए.
चैत के महीने खेतों की मेंड़ो पर फ्यूंली के फूल खिलते हैं और लोग उस पर्वतपुत्री फ्यूंली को याद करते हैं. रानी फ्यूंली तुम तो देवकन्या थी. चैत के महीने जब फूलसंग्रांद (फुलदेई) आती है तो गाँव की कन्याएं फ्यूंली के फूल रखकर सभी घरों की देहरियों की पूजा करती हैं. जिनके मायके में होंगे कोई वे ब्याही बेटियां मायके आएंगी, भेंट-उपहार पाएंगी.
देबतोंकी धियाण होली फ्यूंली रौतेली
औंद फूल त्यौवार, चैत मास फ्यूंली फूलली
गौंकि नौनी डेळ्यों पूजली, फूल धरली
मैत्या नौनी मैत आली, भेंटुली पाली.
चैत के महीने ब्याहताओं की ससुराल जाकर कुशलक्षेम पहुँचाने वाले चैती गायक आवजी कलावंत मंगलकामना करते हैं –
औंदी रयां रितु मास, फूलदी रयां फ्यूंली
कैकू ना होयां जिन्दड़ी को बिणास
अमर रयां हम-तुम.
कहना मुश्किल है कि किसी सच्ची घटना से फ्यूंली की लोकगाथा का जन्म हुआ या फ्यूंली के उदास से दिखने वाले पीले पहाड़ी-पुष्प ने किसी कविहृदय कलावंत आवजी के मुख से इस अमर करुण लोकगाथा को जन्म दिया. जो भी हो उत्तराखण्ड के पहाड़ों में फ्यूंली, चैत और ब्याहताएँ एकाकार हो जाती हैं. एक-दूसरे के कष्ट को समझने और अभिव्यक्ति देने वाले. पर्वतपुत्री, अभागी फ्यूंली मायके लौटने की अधूरी आस लिए ही झूठे आरोप के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई थी. उसके मायके में भी कोई न था जो उसकी खोज-खबर करता, न्याय-इंसाफ की गुहार लगाता. पर क्या हुआ पूरा पहाड़ी समाज जो उसके साथ खड़ा हो गया और उसे अपनी बेटी मानने लगा. जिस फ्यूंली को एक घर की देहरी नसीब न हुई उसे हर साल हर घर की देहरी तक पहुँचाने का पुण्य कार्य एक उत्सव के रूप में किया जाने लगा. गाँव की फ्यूंली सी अबोध कन्याओं की अगुआई में हमउम्र मासूम लड़कों के साथ मनाए जाने वाला ये पर्व फूलसंग्रांद, फुलदेई और फुल-फुल माई के नाम से अनवरत पहाड़ों में मनाया जा रहा है. Phyunli the Daughter of Mountains
महाकवि कालीदास की नायिका शकुंतला की तरह फ्यूंली भी हर पुष्प के प्रसव पर उत्सव मनाने वाली निश्छल पर्वतपुत्री थी. जिसका दिव्य प्रेम सिर्फ़ अपने रमणीक मायके से था. इंसानों से ही नहीं पशु-पक्षियों और पेड़-पौधौं से भी. फ्यूंली को हमारे लोकसमाज ने एक पुष्प के रूप में ही जीवित रखा है और उसकी करुण कथा को बसंत के पुष्पोत्सव के रूप में अमर.
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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