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ओएशडी सैप कह लो चाहे निजी शचिव कह लो – नीश हर जगह होने वाले हुए उत्राखंड में

उसने अपनी फुलौड़ी नाक को ज़रा सा टेढ़ीयाया और बोला- ‘वरफ़ारी हो रई वरफ़ारी’ (Personal Secretaries of Modern Politicians Satire)

-`क्या’ 

-`अए वरफ़ारी सुरु हो गई… इश्नो फाल. अब शत्र शमाप्तई शमझो’ 

मेरी आँखों में टँगा प्रश्नवाचक अब पूरे चेहरे पर पसर गया था. मैंने उसे खींचकर छोटा किया, वापस आँखों में घुसाया और उसका निरीक्षण करने लगा. (Personal Secretaries of Modern Politicians Satire)

आदमी और लौंडे, (अपने सारे लौन्डेपन के बावजूद आदमी को आदमी कहने की मजबूरी है.) के बीच की किसी उम्र का वो शख्स विधानभवन को जाने वाली सीढियों के सबसे निचले पायदान पर टेढ़हुन्स हुआ खड़ा था. तीन जगह से वक्र हुआ उसका शरीर कामदेव के बाण की तरह दिख रहा था. तिरछे-तिरछे तीर नज़र के आते हैं, सीधा-सीधा दिल पे निशाना लगता है. घुटनों के पास से मुड़ा हुआ उसका निचला पाँव और गर्दन के जरिये घूमा हुआ उसका मुख सीढ़ियों की ओर मुखातिब था और बाकी भाग ठीक उल्टे. शरीर भाषा के हिसाब से गर्दन और पंजो से वो आतुर दिखाई दे रहा था बकिया भागों से धीर-गंभीर.

उसके हाथ में फाइलनुमा कागज़ात थे. शर्तिया वो उसे डायरी कहता होगा. इस फाइलनुमा कागज़ात उर्फ डायरी में सबके नम्बर होते हैं. सबके मतलब सबके. डेम, ससपी, नेंगीजी साइकेट्री, जेई जेपी सरमा ठेकेदार, रहीम्म्याँ जेसिब्बी वाले. वो सबके प्राइवेट नम्बर पूछ लेता है.

-`नाइन ऐठ थ्री… शर नाइन ऐठ थ्री’  वो लगे हाथों डायल कर रहा है क्योंकि उसे जल्दी-जल्दी लिखना नहीं आता. जल्दी-जल्दी अतिपदत्व दोष कहलाएगा इस वाक्य में. दरअसल उसे लिखना नहीं आता. ओहदे के हिसाब से वो अपना, मतलब माननीय जी का, नम्बर भी डायल करवा सकता है, -` एक मिश्ड काल दे दो इस नम्बर में, मैं शेव कर लूंगा.’

उसकी अपनी दाढ़ी बनी हुई थी और इतनी श्रद्धा से बनाई गयी थी कि लगता था उल्टा उस्तरा फेर दिया हो. चेहरा ग्रीन पार्क दिखाई दे रहा था. चेहरा और पंजा ही एक्सपोज्ड था, बकिया शरीर ढका हुआ था. वैसे चेहरे के बारे में फिर भी कुछ कहना जल्दबाजी होगी.

उसने पिंक कलर की शर्ट पहनी होगी जिसपर सफेद रंग की गोल बिंदियां होंगी. बॉबी प्रिंट जैसी. दिख नहीं रही थी उसकी कमीज़ लेकिन जिस अलहदा तौर का था वो, उस डिज़ाइन के लड़कों को वैसी ही शर्ट पहनना मुफीद है. उसने बादामी रंग का एक जैकेट पहना था और काली पैंट. हाथ में पहनी घड़ी को देखते हुए उसकी कानी उंगली तकरीबन शुक्र तारे की दिशा में उठ गई थी

-‘मैंने तो कल ही बता दिया था शर को फॉरकाष्ट मौषम का… और आजकल कहाँ पोशटिंग है’  पूछता हुआ वो सामने देखने लगता है. मौसम और पोस्टिंग जैसे दो तीर घाट-मीरघाट मिलाने वाली बात कहकर वो मुझे पुनः आश्चर्य में डाल देता है. ऐसी बात तो कोई शायर ही कह सकता है, जो कि सरकारी नौकरी भी करता हो या फिर कोई सरकारी नौकर जो शायरी ही करता हो. मेरा इतनी लापरवाह निगाहों से पहली बार साबका पड़ा है. ऐसी लापरवाह निगाहों में वो पुलिसवाले से थोड़ा ज्यादा और पत्रकार से थोड़ा कम कॉन्फिडेंट दिखता है. इसकी निगाह पर ही चार छै गीत लिखे जा सकते हैं. वो माननीय जी की निगाह के निशाने तले देखता है और पुनः अधखुला मुंह बंद करने से जस्ट पहले उलीचता है (Personal Secretaries of Modern Politicians Satire)

-`इदर क्यों नईं आ जाते, वां कां पड़े हो? बात करवा देता हूँ माननीय से’

ऐसा कहकर वो मीर घाट पर इकहरा उतरता है. उसका ठोस विचार है कि सरकारी कर्मचारी किंवा अधिकारी के जीवन में मृत्यु के अलावा एक और अटल सत्य होता है पोस्टिंग. अचानक उसे कुछ याद आता है. `अरे एक काम याद आया आपसे… एक भाई है उदर वो कौन सा थाना है… हाँ वहीं उशकी मोटरशाइकिल का चलान कर दिया उन्ने, भाई ने पहले बताया ही नहीं… तो ज़रा छुड़वा देना हाँ’ 

पोस्टिंग के बरक्स चालान. अब मेरा आश्चर्य किंचित उत्सुकता में बदलने लगता है. उसने सीटी बजाने के जैसे होठ गोल किये और गाने लगा `गंगा मेरी माँ का नाम बाप का नाम हिमाला’ गाना ख़ासा इरिटेटिंग हैं विशेष तौर पर जब वो सीटी बजाने वाली अदा में गाया जाए. मेरे पास उसे छेड़ने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता.

-`तो इस बार क्या मुद्दा है? सड़क तो उठेगा ही…’ 

-`हाँ तो और क्या शड़क फॉर्लेन हो रई’ 

-`नहीं मतलब आपके क्षेत्र के कई गाँव हैं जहाँ सड़क नहीं पहुँची अभी और उनमें से कई ने इस बार बहिष्कार किया था, एक भी वोट नहीं पड़ा’

उसने फाइलनुमा कागज़ात में कुछ लिख लिया और जैसी लिखावट थी, ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होता था कि उसने उस पन्ने पर सड़क बनाई थी. मैं तो नहीं भूला लेकिन उसके लिखने के बारे में पूर्व में कही गयी बात आप शायद भूल गए. मेरी उत्सुकता बेशर्मी में तब्दील होने लगी.

-`कुछ ज़मीन-वमीन का भी मसला उठना तय है वैसे.’

-`वर्ग चार वाली?!’ उसने संक्षेपण कला का सहारा लेना शुरू कर दिया, इस तरह से कि लगा वो पूछ भी रहा है बता भी रहा है और दोनों किसी ठोस निष्कर्ष के साथ.

-`नहीं-नहीं वो जनजातियों वाली ज़मीन का जिसमें खरीद-फरोक्त के लिए सीलिंग हटाने की मांग…’

-`हाँ अरे वही ना?!’ ये अजीब किस्म का सका-नकारात्मक वाक्य था. `मान्नीयअध्यच्छजी शे भी बात हुई है आजही’ अत्यंत अल्प वार्तालाप में भी वो कई चमकते सितारों से अपनी कनसुंघवा बातचीत का विवरण प्रस्तुत करने लगता है. अब मुझे मज़ा आने लगा था क्योंकि उसने शरीर भाषा से भी जताना शुरू कर दिया था कि व्यग्रता बढ़ रही है. उसके घुटने मुड़ने लगे थे. फाइलनुमा कागज़ात पर झुक गया वो. मैंने जिरह जारी रक्खी

-`पानी…’ बस इतना कहकर रुक गया इसलिए नहीं कि पानी इज़ अ कम्प्लीट सेंटेंस बल्कि इसलिए क्योंकि वो पिछली कार्यवाही के पीटीओ में इस बात को भी बिना जवाब दर्ज करने को आतुर हो उठा था. लेकिन… वो काफी देर तक ठहर गया. उसकी सुनहले ढक्कन वाली काली पेन बड़ी देर तक फाइलनुमा कागज़ात के ऊपर लहराती रही जैसे गोल्फ स्टिक हिट करने से पहले बॉल के ऊपर लहराते हुए ड्राई अटेम्प्ट लेती है फिर उसने ढक्कन पहन लिया. सम्भवतः वो पानी बना नहीं पाया. सम्भवतः उसके पास पानी-वानी का कोई अनुभव नहीं था. मैंने गौर से देखा उसकी आँख में भी ऐसा कुछ नहीं था. (Personal Secretaries of Modern Politicians Satire)

उसकी एक कनखी आँख माननीय जी पर लदी-लदी घूम रही थी. जहाँ-जहाँ माननीय जा रहे थे वहाँ-वहाँ वो. माननीय भवन के अंदर जाते दिखे. मुझसे वार्ता कट कर तत्काल वो बीस सीढियां दौड़ कर लांघता-फलांघता चबूतरे पर पहुंचता है. एक हाथ बढ़ाए सबसे आगे खड़ा सुरक्षा गार्ड उसे चीन्हता नहीं.

-`कार्ड…’

-`माननीय फलाना जी के साथ हूँ’ माननीय के बाद वाले शब्द उसने इतनी महीन आवाज़ में कहा कि लगा वॉयस मॉड्यूलेशन कोर्स कर के आया हो

-`कार्ड दिखाइए कार्ड’  

-`अरे मैं माननीय फलाना जी का नीश हूँ’ उसने मॉड्यूलेशन को और सघन करते हुए जो बोला उससे यही सुनाई दिया. अगर माइक्रोसोफ्ट वर्ड में टाइप किया जाए तो समझिए माननीय तक के शब्द बहत्तर की साइज़ के उसके बाद के तकरीबन पांच के और हूँ करीब दस की साइज़ का बैठेगा. 

अब वहीं खड़े खुर्राट दरोगा ने उसे ऊपर से नीचे फिर बाएं से दाएं देखा

-`कार्ड-कार्ड…’

-`साथ हूँ’

-`कार्ड…’

-`अरे मैं नी’श हूँ’

-`कौन? क्या?’

-`निजी शचिव… ओएशडी’ इस बार भी पहले और दूसरे दोनों शब्दों के साइज़ का अनुपात बहत्तर इज़ टू फाइव ही बैठेगा.   

-`अच्छा-अच्छा निजी सचिव हैं तब तो सचिवालय का आईकार्ड ही दिखा दें’

-`पर्शनल वाला हूँ मल्लब’

-`हाँ, तो कार्ड दिखाइये’ 

-`मैं मंगवा लेता हूँ’ उसकी आवाज़ डूबने लगती है लेकिन निगाहें अब भी लापरवाह ही हैं.

-`…’ दरोगा कुछ नहीं कहता

-`मैं बनवा लेता हूँ’

दरोगा चुहल पर उतर आता है -`फोन कल्लो माननीय को बनवा के भिजवा देंगे अंदर से’

-`अभी बन जाता है, शुबह ही बात हुई है पापा से’

-`पाप…’ दरोगा की चुहलबाजी वाला जज्बा अबाउट टर्न करके आश्चर्य के पाले में पहुँच जाता है

-`हाँ, मैं ही तो हूँ उनका ओएशडी मल्लब माननीय फलाना मेरे ही पिताजी हैं’ उसने हर ह पर उतना ही जोर दिया जितना जोर उस तबके में स्कोर्पियो की जगह अब इन्नोवा खरीदने में दिया जा रहा है.

मेरा आश्चर्य टें बोल चुका है. उसकी जगह सतत पिटी हुई मुस्कराहट ने ले ली है. मुस्कुराते हुए वहीं निचले पायदान से इशारा करता हूँ `जाने दो अंदर’. मेरा इशारा था कि ओएशडी साहब बरामदे को दौड़ पड़े, वैसे ही जैसे खूँटा छुड़ा के भैंस भागती है. आगा-पीछा देखे बिना. उसे दिखता नहीं, ये देखना नहीं चाहते थे. अब उनके शरीर के सारे मोड़ एक सीध में थे. जानता हूँ बड़ा भदेस है इस बिम्ब में. भैंस दौड़ने के लिए सबसे खराब च्वाइस है, खुद भैंस के लिए भी. बुरी दिखती है. उसे पगुराते दिखना चाहिए.

उन्होंने बरामदा पार कर लिया है और हॉल के दरवाज़े पर हैं. वो पीछे मुड़ कर नहीं देख रहे हैं. मुझे लगता है मैं अपने माननीय को अंदर भेज रहा हूँ. वो पगुरा रहे हैं – गंगा मेरी माँ का नाम बाप का नाम हिमाला!

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

यह भी पढ़ें: मातृभाषा राजभाषा सम्पर्क भाषा राष्ट्रभाषा… कौन सी भाषा?

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अमित श्रीवास्तवउत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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