यारसा गम्बू उच्चहिमालय के कुछ क्षेत्रों में 3500 से 5000 मीटर तक की उंचाई में होता है. यारसा गम्बू, तिब्बती भाषा का शब्द है.
स्थनीय भाषा में इसे जडि, क्यूर झार, कीड़ा, कीड़ाघास कहा जाता है. गर्मियों के दिनों में हिमालयी बुग्यालों में पाए जाने वाले एक पतंगे के लार्वा के भीतर घास, फूस खाने से एक कवक भी चला जाता है. इसकी गणना दुनिया की सबसे महंगी जड़ियों में की जाती है.
पिछले डेढ़ दशक में यार्सा गम्बू के उत्पादन ने छिपलाकेदार के दोनों ढलानों के जीवन में जबरदस्त परिवर्तन लाया है. स्थानीय बाज़ार में यारसा गम्बू की कीमत सामान्य तौर पर तकरीबन 10 लाख रुपये किलो है जबकि अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में यह तकरीबन 50—60 लाख रुपये प्रति किलो तक बिकता है.
इन ढलानों पर आपको घुटनों के बल हथेलिया जमीन में टिकाये सभी बच्चे, जवान और प्रौढ़ अपनी आंखें चुपचाप नम घास में जमाये हुये दिख जायेंगे. खड़ी ढलानों और चट्टानों पर जान की परवाह किये बगैर सभी कीड़ाजड़ी घुमते नजर आते हैं.
कीड़े का भूरा-काला शीर्ष होता है जो जमीन के ऊपर दिखता है. जिसे पांच से दस सेटीमीटर सीधा खोदने पर साबूत निकाला जाता है. इसे बड़ी सावधानी से खोदा जाता है क्योंकि जड़ी के फफूद भाग और कीट भाग दोनों को एक साथ सुरक्षित बनाए रखना जरुरी है.
खोदे गये कीड़े को सूती के कपड़े के थैले में रखा जाता है. इसपर बुग्याल की नम मिट्टी को सूखने के बाद निकाला जाता है.
इसके अलावा यहां से लोग हिमालयी लहसुन और रुकि जैसी अन्य जड़ी भी ले आते हैं.
संदर्भ : डॉ लोकेश डसीला द्वारा लिखे लेख कीड़े की खोज.
धारचूला की ओर से छिपलाकेदार के ढलान पर यार्सा गम्बू और उसकी खोज में गये लोगों की कुछ तस्वीरें देखिये :
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मूलरूप से पिथौरागढ़ के रहने वाले नरेन्द्र सिंह परिहार वर्तमान में जी. बी. पन्त नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन एनवायरमेंट एंड सस्टेनबल डेवलपमेंट में रिसर्चर हैं.
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