स्कन्द पुराण के मानस खंड में द्वाराहाट से पांच किलोमीटर दूर स्थित विभाण्डेश्वर के माहात्म्य का उल्लेख किया गया है. यह स्थल देव, गन्धर्व और यक्षों द्वारा पूजित माना गया. (Vadabhandeshwara Temple Dwarahat Photos)
किंवदंती है कि यहां हिमवान के पवित्र तट पर ऋषि-मुनियों के आश्रम थे. रथवाहिनी गंगा की बायीं ओर नागार्जुन पर्वत उपत्यका की सेवा स्वयं नागराजा करते हैं ऐसा लोक विश्वास है.
इसी तलहटी पर अब विभाण्डेश्वर शिव मंदिर है. मान्यता है की इस स्थल के दर्शन मात्रा से ही आपदा-विपदा कटती है. कृपालु शिव की पूजा आराधना से रोग-शोक मिटते हैं. आशा-उत्साह का संचार होता है. रागात्मक अनुभूतियों से निश्छल हो उठता है भक्त. पार्वती से विवाह के उपरांत शिवशंकर ने इस मनोहारी स्थल का चुनाव अपने शयन हेतु किया.
विधिवत इस मंदिर की स्थापना संवत 1376 में हुई. तदन्तर चंद राज्यकाल में राजा उद्योत चंद ने दक्षिण में अपनी विजय के उल्लासित हो भगवन शिव की प्रतिमा पूर्ण विधि-विधान से स्थापित कर इस स्थल का विकास किया. लोकथात के अनुसार विभाण्डेश्वर के दर्शन से काशी-विश्वनाथ के पूजन-अर्चन सा पुण्य मिलता है और अश्वमेध यज्ञ सा फल प्राप्त होता है.
तदन्तर स्वामी लक्ष्मी नारायण दास जब 1943 में कैलाश दर्शन कर आये तब उन्होंने विभाण्डेश्वर की शक्ति का अनुभव कर यहाँ सिंह-द्वार, गणेश व हनुमान मंदिर के साथ रामकुटी बनवाई. पशुबलि रुकवाई. इस स्थल के पुरातन महत्वा को प्रकट करता नगर शैली का एक त्रिरथ रेखा शिखर शिव मंदिर विद्यमान है, जिसमें नागरीलिपि में लेख उत्कीर्ण है.
विषुवत संक्रांति के अवसर पर स्याल्दे-बिखौती के मेले के आरम्भ में परंपरागत वाद्ययंत्रों के निनाद, ध्वज व पताकाओं के साथ जनसमूह पहाड़ी पोशाकों से सज इस मंदिर में प्रवेश करते हैं तथा यहाँ के पोखर में स्नान करते हैं. लोक विश्वास है कि विभाण्डेश्वर तीर्थ के शमशान में अंतिम संस्कार कर परमगति प्राप्त होती है. शिव का सायुज्य प्राप्त होता है.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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