फुलदेई का त्यौहार (Phool Dei Festival) उत्तराखण्ड में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है. जितने रंग बसंत के हैं उतने ही इस त्यौहार के भी.
गढ़वाल मंडल (Garhwal) में यह त्यौहार पूरे एक महीने तक मनाया जाता है. फाल्गुन के आखिरी दिन सभी बच्चे रिंगाल की कंडियों में फूल इकट्ठा कर उसमें पानी के छींटे मारकर खुले में रख देते हैं, ताकि उनमें ताजगी बनी रहे. फूल इकट्ठा करने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है. अगले दिन इनमें सुबह-सुबह चुनकर लाये गए प्योंली के फूल मिला दिए जाते हैं. यह काम सूर्योदय से पहले ही कर लिया जाता है. इस बीच आवाजाही करते बच्चे गाते हैं—
ओ फुलारी घौर, झै माता का भौंर.
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर, डंडी बिराली छौ निकोर.
चला छौरो फुल्लू को, खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को,
हम छौरो की द्वार पटेली, तुम घौरों की जिब कटेली.
इन फूलों को घरों की देहरी और खिड़कियों के कोनों पर रखा जाता है.
बैसाखी के दिन विभिन्न प्रकार के फूल और ज्यादा मात्र में इकट्ठा किये जाते हैं. बच्चे एक डोली बनाकर उसे लाल रंग के कपड़े से सजाते हैं. इस डोली में फूल और पकवान सजाकर रखे जाते हैं. फिर इस डोली का उपयुक्त स्थान पर विसर्जन करने के बाद गाँव के सभी घरों की देहरियों पर फूल रखकर मंगलकामना करते हैं. इसके बदले में उन्हें तोहफे दिए जाते हैं. बसंत के इस्तकबाल का त्यौहार फूलदेई
गढ़वाल के जौनसार बावर में भी यह त्यौहार एक महीने तक मनाया जाता है. गांव भर के बच्चे सामूहिक रूप से फूल चुनते हैं. फूल चुनने के लिए रिंगाल की रंग-बिरंगी टोकरियाँ बनायी जाती हैं. शाम के समय प्योंली, बुरांश, आडू, खुमानी, पुलम, पय्याँ, पद्म, बासिंग आदि के फूल चुने जाते हैं.
इसके बाद सभी बच्चे गाँव के मंदिर (चौरों) पर इकट्ठा होकर गोल घेरे में बैठ जाते हैं इसके बाद इन फूलों की पंखुड़ियों को अलग-अलग करके अपनी टोकरियों में सजाया जाता है. इस दौरान सभी– ‘गोगा फूलूटे बाई घोघा, उचेणे लाये बाई घोघा’ गाते हैं. जौनसार बावर: जहाँ सामूहिकता व सामुदायिकता जिन्दा है
इसके बाद सबसे पहले इष्ट देवों को फूल अर्पित किये जाते हैं. इसके बाद के घर के चारों कोनों, चूल्हे और चक्की पर फूल चढ़ाये जाते हैं. इसके बाद घर के सभी बड़े-बुजुर्गों के सर पर फूल चढ़ाकर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है.
गाँव का कोई सामूहिक मंदिर न होने की स्थिति में बच्चे गाँव के पास ही तय जगह पर पत्थर व मिट्टी से एक मंदिर का ढांचा तैयार करते हैं. इस स्तूपाकार ढांचे के शीर्ष पर एक गोल पत्थर रखा जाता है.
विषुवत संक्रांति के दिन महिलाएं इस जगह पर इकट्ठा होकर दूब और अनाज की बालियों से घोघा पूजती हैं और चावल के पकवान चढ़ाकर घर-परिवार और समाज की सुख, शांति व समृद्धि की कामना करती हैं.
गढ़वाल के जौनपुर में फुलदेई को फुल्यारी नाम से जाना जाता है. इस दौरान बच्चे महीने भर तक घरों की देहरियों में फूल चढ़ाते हैं. इस दौरान पहले आठ दिनों तक सिर्फ प्योलीं के फूल ही चुने जाते हैं, यह काम नन्हीं बालिकाएं किया करती हैं. फुल्यारी के अगले दिन आटे के हिरन बनाकर जंगल में बच्चों के देवता के मंदिर में चढ़ाने के बाद प्रसाद के रूप में खाए जाते हैं. इस दौरान इन बच्चों को हलवा पूड़ी खिलाया जाता है.
(सभी फोटो: ‘Fuldeyi Festival फूलदेई त्यौहार,’ फेसबुक पेज से साभार)
वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…