2014 के पिछले वर्ल्ड कप में दक्षिण कोरिया और जर्मनी के खिलाफ जिस तरह का खेल अल्जीरिया ने दिखाया था, उसे अफ्रीकी फुटबॉल का एक पावरहाउस माना जाने लगा था. ‘डेज़र्ट फ़ॉक्सेज़’ के नाम से जानी जाने वाली यह टीम इस बार वर्ल्ड कप का हिस्सा नहीं बन सकी – पिछले साल सितम्बर के महीने में अपने ही घर में जाम्बिया से 0-1 से हारने के बाद टूर्नामेंट की दौड़ से बाहर हो गयी थी.
अल्जीरिया की फुटबॉल टीम की बाबत लिखने का बहाना साहित्य से जुड़ा हुआ है. साहित्य से मतलब एक बड़े साहित्यकार से जिसने बीसवीं सदी के लेखन को विश्वस्तर पर प्रभावित किया. ‘अजनबी’ और ‘पतन’ और ‘द मिथ ऑफ़ सिसिफ़स’ जैसी कालजयी रचनाओं के लेखक अल्बैर कामू (१९१३-१९६०) की बात कर रहा हूं मैं.
मात्र चवालीस साल की आयु में कामू को साहित्य का प्रतिष्ठित नोबेल पुरुस्कार दिया गया था. रूडयार्ड किपलिंग के बाद इस सम्मान को पाने वाले वे सबसे युवा लेखक थे. आलोचकों ने कामू को अस्तित्ववादी कहा अलबत्ता वे खुद ऐसा मानने से इन्कार करते रहे.
कामू फ़ुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे. उनका कहना था “नैतिकता और कर्तव्य की बाबत जितना भी मुझे निश्चित ज्ञान है, उसके लिए मैं फ़ुटबॉल का ऋणी हूं.”
कामू ने 1930 के दशक में अल्जीरिया विश्वविद्यालय की तरफ़ से गोलकीपर की हैसियत से कई मैच खेले थे. उनकी टीम ने नॉर्थ अफ़्रीकन कप और नॉर्थ अफ़्रीकन चैम्पियन्स कप के ख़िताब दो-दो दफ़ा जीते. बाद में टीबी की बीमारी के कारण कामू का फ़ुटबॉल कैरियर ख़त्म हो गया.
कामू का मानना था कि धर्म और राजनीति नैतिकता को खासा जटिल विषय बना देते हैं सो नैतिकता को लेकर उन के पास एक बहुत साफ़ सुथरा और सादा दर्शन था – वे कहते थे कि आपने अपने दोस्तों के प्रति वफ़ादार बने रहना चाहिये. इसके लिए साहस तथा ईमानदारी दो सबसे ज़रूरी वांछित गुण होते हैं. जैसा कि फ़ुटबॉल में आपको करना होता है.
कामू बचपन से ही गोलकीपर की तरह खेला करते थे. इसके पीछे एक खास कारण था. एदुआर्दो गालेआनो ने अपनी किताब ‘सॉकर इन सन एन्ड शैडो’ में इस बारे में लिखा है –
“… क्योंकि गोलकीपर की पोज़ीशन में खेलते हुए आपके जूते उतनी जल्दी नहीं घिसते. बहुत गरीब परिवार वाले कामू के पास मैदान में दौड़ने की सुविधा उठाने लायक संसाधन नहीं थे. उनकी दादी हर शाम उनके लौटने के बाद उनके जूते के तलवों को ग़ौर से देखा करती थी. उनके जल्दी घिस जाने पर कामू की धुनाई होती थी.”
फ़ुटबॉल प्रैक्टिस के दौरान कामू ने कई बातें सीखीं. “मैंने सीखा कि जब जब आप गेंद को अपने पास आने की उम्मीद करते हैं, वह आपके पास नहीं आती. इसका मुझे ज़िन्दगी में बहुत लाभ मिला, ख़ास तौर पर बड़े शहरों में रहते हुए, जहां लोग वैसे नहीं होते जैसा वे खुद को दिखाने का यत्न करते हैं.”
कामू आगे बताते हैं: “मैंने यह भी सीखा कि बिना ख़ुद को ईश्वर जैसा महसूस किये जीता जा सकता है और बिना ख़ुद को कचरा जैसा महसूस किये हारा भी जा सकता है. मैंने पाया कि किसी भी तरह का कौशल बहुत आसानी से नहीं प्राप्त किया जा सकता.”
फ़ुटबॉल के माध्यम से कामू दर असल मनुष्य की आत्मा के रहस्यों के पाताललोक में उतर रहे थे. टीबी ने उनकी फ़ुटबॉल पर लगाम ज़रूर लगाई पर फ़ुटबॉल जिन चीज़ों से वंचित रह गया, उनके बदले में वह दुनिया को एक महान पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, दार्शनिक और मानवाधिकारों के मुखर वक्ता के रूप में प्राप्त हुआ. फ़ुटबॉल कैरियर का तो कुछ निश्चित पता नहीं पर जीवन और दर्शन के मैदान में गोलकीपिंग करते हुए कामू का रेकॉर्ड शत प्रतिशत रहा.
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समाज, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति एवं साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों पर रोचक और ज्ञानवर्धक लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। पत्रिका के संपादक एवं रचनाकारों को साधुवाद।