आज जब नैनीताल समेत उत्तर भारत के सभी विख्यात हिल स्टेशनों में क्रिसमस-न्यू ईयर पर पर्यटकों की भीड़ उमड़ा करती है, तमाम ट्रेवल एजेंसियां तरह-तरह के ऑफर्स दे रही हैं, छोटे-छोटे कस्बों में क्रिसमस केक बनने और बांटे जाने लगे हैं, हमें साहसी और पर्वतप्रेमी पीटर बैरन और उसके दोस्तों के द्वारा मनाये गए नैनीताल के पहले क्रिसमस की याद आना स्वाभाविक है.
नैनीताल नगर को संसार की निगाहों के सामने लाने का श्रेय असंदिग्ध रूप से पीटर बैरन नाम के एक अँगरेज़ को दिया जाता है. पीटर बैरन ने पिलग्रिम के उपनाम से 1844 में लिखे ‘नोट्स ऑफ़ वान्डरिंग्स इन द हिमाला’ में अपनी इस ‘खोज’ का विस्तृत वर्णन पेश किया है. यह वर्णन आगरा अखबार प्रेस में एच. टैंडी द्वारा संपादित और टी. डब्लू. ब्राउन के द्वारा मुद्रित हुआ था. वह 18 नवम्बर 1841 को अपने दो साथियों जे. एच. बैटन और कैप्टन वेलर के साथ पहली बार नैनीताल पहुँचने में कामयाब हुआ था. यहाँ की अप्रतिम सुन्दरता को देख कर वह इस कदर अभिभूत हुआ कि उसने वहां बसने की ठान ली. उसने अपने और अपने दोस्तों के लिए उन जगहों का भी चुनाव कर लिया जहाँ वे अपने रहने के लिए घर बनाने का इरादा रखते थे.
बैरन ने अपने साथियों के साथ नैनीताल में तम्बू में एक रात गुजारी. अगले दिन यानी 19 नवम्बर 1841 को जब वह वापस लौटा उसके मन में नैनीताल की सुन्दरता इतने गहरे बस गयी थी कि अपने उक्त नोट्स में वह लिखता है कि “अपनी 1500 मील की हिमालय यात्रा में मैंने ऐसी सुन्दर कोई दूसरी जगह नहीं देखी.” बैरन सात पहाड़ियों से घिरी नैनी झील की तारीफ तो करता ही है, यह भी बताता है कि उस रात उन्हें अपने तम्बू के आसपास से वन्य प्राणियों को भगाने में भी बहुत मशक्कत करनी पड़ी.
पीटर बैरन उन दिनों उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर के रौजा कस्बे में रहकर चीनी और शराब का कारोबार किया करता था. पहाड़ों और विशेषतः हिमालय से मोहब्बत करने वाले बैरन ने 1841 की अपनी जिस हिमालयी यात्रा के दौरान पहली बार नैनीताल को देखा था उस पूरी यात्रा के तरतीबवार विवरण ‘नोट्स ऑफ़ वान्डरिंग्स इन द हिमाला’ में देखे जा सकते हैं.
शाहजहांपुर वापस आने के कुछ ही समय बाद पीटर बैरन ने कुमाऊँ के सीनियर असिस्टेंट कमिश्नर जे. एच. बटन बेटन को एक पत्र लिखा. 26 फरवरी 1842 के इस पत्र में उसने अनुरोध किया था कि उसे नैनीताल में घर और उद्यान बनाने के लिए लीज पर ज़मीन आवंटित की जाय. इस प्रार्थनापत्र के प्रत्युत्तर में सरकारी कागजी कार्रवाई चलती रही जब तक कि उसी साल दिसंबर में इस बाबत एक ठोस निर्णय लेकर बैरन द्वारा आवेदित जमीन का सर्वेक्षण कराये जाने की राय दी गयी.
पीटर बैरन की अगली नैनीताल यात्रा दिसम्बर 1842 में हुई. वह 9 दिसम्बर को शाहजहांपुर से बरेली होता हुआ हल्द्वानी पहुंचा जहाँ से उसने भीमताल तक का सफ़र एक डोली में किया. यहाँ उसकी मुलाक़ात अपने उन्हीं दोनों मित्रों यानी जे. एच. बैटन और कैप्टन वेलर से हुई जो वहां एक बंगले में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे.
11 दिसम्बर 1842 को वह दूसरी बार नैनीताल में था. इस बार नैनीताल उसे पहले से भी अधिक आकर्षक लगा. वह अनेक मजदूरों की मदद से अपने साथ भीमताल से एक नाव भी लेकर आया था. गौरतलब है कि उस समय तक अंग्रेज सरकार ने न केवल बैरन की एप्लीकेशन को बल्कि नैनीताल में घर बनाने हेतु आये आठ-दस अन्य आवेदनों को भी मंजूर कर लिया था. कुमाऊँ के उस समय के कमिश्नर जी. टी. लूशिंग्टन का बंगला तो बनना भी शुरू हो गया था. बंगले के लिए बनाए जा रहे एक आउटहाउस में बैरन और उसके मित्रों ने डेरा डाला.
इस बार बैरन नैनीताल में तीन दिन रहा और दोस्तों के साथ नौकायन करते हुए उसे सामने की पहाड़ी पर काला जंगली भालू देखा. बैरन द्वारा मौके पर मौजूद नरसिंह नामक एक थोकदार को नाव में बिठा लेने और उस से जबरन कुछ कागजों पर दस्तखत करा लेने के अनेक किस्से अनेक तरह के संस्करणों में पाए जाते हैं लेकिन फिलहाल उस विषय को रहने देते हैं.
बैरन के 14 दिसम्बर 1842 को वापस लौटने से पहले नैनीताल के मौसम और अन्य विवरणों पर जरूरी नोट्स बनाए और पचास के आसपास मजदूरों को वहीं रहकर उसके अगले नैनीताल आगमन तक नाव-स्टैंड बना देने की हिदायत दी.
अगले साल यानी 1843 की 23 अक्टूबर को पीटर बैरन ने पीलीभीत से अपनी यात्रा प्रारम्भ की और 25 अक्टूबर को लोहाघाट के रास्ते अल्मोड़ा पहुंचा. 4 नवम्बर को वह फिर से नैनीताल में था.
तब तक नैनीताल में उसका विशाल बंगला बनना शुरू हो गया था. इसके अलावा पांच और इमारतें बन रही थीं. उल्लेखनीय है कि उसके इस बंगले और अंग्रेजों के द्वारा बनाए जा रहे अन्य बंगलों का निर्माण कार्य अल्मोड़ा के एक ठेकेदार मोतीराम साह की देखरेख में हो रहा था. पंद्रह दिन नैनीताल रहकर वह वापस लोहाघाट चला गया. जैसा कि ऊपर बताया गया बैरन को पहाड़ों से बहुत प्रेम था. वह अगले कुछ दिन पहाड़ी इलाकों में घूमता रहा और 3 दिसंबर को पुनः नैनीताल लौट आया.
उसके नैनीताल आने के बाद मौसम बहुत खराब हुआ और 9 दिसम्बर को वहां एक भीषण बर्फीले तूफ़ान ने जनजीवन को अस्तव्यस्त कर दिया. वहां रह रहे अन्य लोग और श्रमिक वगैरह नीचे मैदानी इलाकों में चले गए पर पिलग्रिम वहीं रहा. नैनीताल की झील पर जम गयी बर्फ की परत को देख वह अपनी डायरी में एक अतिशयोक्तिपूर्ण प्रविष्टि करता है कि झील पर ऐसी मजबूत बर्फ जमी है उस पर हाथी भी खड़ा हो सकता है.
दिसम्बर का महीना था और क्रिसमस आ गया था. पीटर बैरन के बंगले जिसका नाम उसने पिलग्रिम लॉज रखना तय किया था, में बहुत सा निर्माण कार्य बचा हुआ था अलबत्ता चार कमरे रिहाइश के लिए तैयार थे. क्रिसमस के दिन यानी 25 दिसम्बर 1843 को पिलग्रिम लॉज में पीटर बैरन को मिलाकर कुल नौ अंग्रेज मौजूद थे. इनमें छः पुरुष और तीन महिलाएं थीं . ये सब बैरन के अन्तरंग मित्रमंडल के सदस्य थे.
इन लोगों ने साथ-साथ मोमबत्तियों की रोशनी में, कड़ाके की ठंड के बीच क्रिसमस का डिनर किया और थोड़ी बहुत आतिशबाजी वगैरह की.
एक दिन और नैनीताल में रहकर 27 दिसम्बर 1843 को पिलग्रिम खुर्पाताल और कालाढूंगी के रास्ते होता हुआ मैदानी इलाकों की तरफ चला गया.
अगले वर्ष 1844 में कलकत्ता से आये ईसाई बिशप डेनियल विल्सन ने नैनीताल में पहले गिरजाघर का निर्माण कार्य करवाना शुरू किया. निर्माण शुरू होने के कुछ ही समय बाद बिशप बीमार पड़ गए और उन्हें एक तनहा कमरे में कुछ दिन गुजारने पड़े. इसी वजह से उन्होंने इस चर्च का नाम सेंट जोन्स इन द विल्डरनेस रखा. नैनीताल नगर ने अगले दशकों में उत्तरोत्तर विकास किया और शिक्षा के क्षेत्र में अपने झंडे गाड़े. नैनीताल में अनेक ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा के बड़े केंद्र स्थापित किये जिनमें सेंट जोसेफ़ कॉलेज, ऑल सेंट्स कॉलेज और सेंट मैरी कॉन्वेंट का नाम आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है.
कहना न होगा, नैनीताल में बसने का पीटर बैरन का देखा सपना असंख्य लोगों की आँखों में बसता गया और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तूर इस हद तक जारी है कि वहां रहने-बसने को एक इंच ज़मीन भी नहीं बची है.
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यह तो मालूम था की पिटर बैरन ने नैनीताल की खोज 1840 41 में की परंतु उन्होंने सबसे पहले क्रिसमस केक अपने कुछ साथियो के साथ नैनीताल में कटा इसकी जानकारी आज आपके माध्यम से हुए । नैनीताल में क्रिसमस के आगमन पर काफी विस्तार से लिखा गया है ।नैनीताल तथा बैरन के संबंध में बहुत कुछ सामग्री इसमें दी गई है ।आपका बहुत-बहुत ।।आभार।
खीम सिंह रावत हल्द्वानी से