समाज

आपदा के बीच घ्यूं त्यार के दिन ढुस्का गाते धापा गांव के परिवार

मैंने मुनस्यारी से 15 किमी दूर धापा गांव में सन् 1991 में जन्म लिया. तब गांव में न बिजली थी, न टीवी और न फोन. संस्कृति का मतलब फेसबुक में पोस्ट डालना या फोन में पहाड़ी गीत देखना नहीं था बल्कि आम जीवन में लोगों ने सांस्कृतिक तानों-बानों को अपना कर रखा था.
(People of Dhapa Village in Munsiari)

मुझे अब भी याद है घ्यूं त्यार का पूरा महिना मेरा गांव ढुस्का, झोड़ा और चांचरी से सारोबार हो उठता, गांव के अलग-अलग हिस्सों में झोड़े के अलग-अलग झुंड एकत्रित मिलते. तलीगों, मलीगों, धप्वालपट्टी, रिलकोटियापट्टी, ढोकटीपट्टी, बामनपट्टी… एक प्रतिस्पर्धा सी रहती की किस झोड़े के झुंड में ज्यादा संख्या और रौनक नजर आ रही है.

मैं उम्र में बहुत छोटा था लगभग 7-8 वर्ष का रहा हूंगा तो मैं अपने दगड़ियों के साथ पूरे गांव का चक्कर लगाता था ये देखने के लिए कि किस पट्टी का ढुसका सबसे अच्छा है. हर दिन दोपहर के बाद ढुस्का, चांचरी के लिए अलग-अलग जगह लोग इकट्ठे तो हो जाते लेकिन शाम ढलने तक गांव के सबसे बडे़ खौल (आंगन) या पंचायत घर के मैदान में चल रहे झुंड में बाकि सभी ढुसकिए एक हो जाते.
(People of Dhapa Village in Munsiari)

इस तरह एक विशाल झुंड इकट्ठा हो जाता और शुरू हो जाता जोड़ों का रमेल जो जुन्याली रात तक चलते रहता.

मार मछ्याली,मछ्याली ,मछ्याली को झ्वांक,
छोड़ी दे धना,गढ़ की गुडाली को ध्वांक,
ऊंटों ऊकाल,ऊकाल बाकुरी थाक्युंछ,
नै बुबाज्यू मेरो मन स्वे लाग्यूंछ
मार बाकुरी बाकुरी-बाकुरी की बसी,
कसि कै छोड़ूं ,दुतिया की जून जसी,
मार तितूरी,तितूरी-तितूरी को रसी,
कसीक छोड़ूं रिखू की आंखुली जसी..

उन तमाम यादों के आगोश में समाना तो सुखद होता है लेकिन बाहर निकलने पर आज की दुनिया में उन पलों को ढूंढने लगूं तो ठगा सा महसूस करता हूं. खैर जो भी हो घर-गांव से दूर हूं, फेसबुक पर ही घ्यूंत्यार मना कर खुश दिखने के सिवाय और कुछ है भी नहीं.
(People of Dhapa Village in Munsiari)

आज इसलिए भी उस वक्त के बारे में सोचकर आंख के घेरे में आंसू के बूंद निकल पड़ते हैं कि मेरा गांव आज आपदा की चपेट में हैं और शायद यह गांव अब कुछ समय बाद वीरान गधेरे में तब्दील न हो जाये.

नीचे जो वीडियो है, यह आज उसी धापा गांव का वीडियो है जहां ढुस्का गाते ये परिवार अपने घरों को छोड़कर स्कूल, पंचायत घर और गुफाओं में शरण लिये हैं. इन तमाम परिस्थितियों के पश्चात भी इन ग्रामीणों ने अपने दुखों को भूलकर अकर्मण्यता को पराजित कर कर्म के त्यौहार घ्यूं त्यार को मनाने की ठानी है. सलाम है ऐसे जीवट ग्रामवासियों के जीवनशैली को.
(People of Dhapa Village in Munsiari)

मुनस्यारी की जोहार घाटी के खूबसूरत गांव मरतोली के मूल निवासी गणेश मर्तोलिया फिलहाल हल्द्वानी में रहते हैं और एक बैंक में काम करते हैं. संगीत के क्षेत्र में गहरा दखल रखने वाले गणेश का गाया गीत ‘लाल बुरांश’ बहुत लोकप्रिय हुआ था.

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