हैडलाइन्स

पंडित नैनसिंह रावत : घुमन्तू चरवाहे से महापंडित तक

मुनस्यारी से शुरू होने वाली जोहार घाटी के कोई दर्ज़नभर गाँवों में रहने वाले अर्द्ध-घुमन्तू, पशुचारक, व्यापारी शौका समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे. इसी जोहार घाटी के आख़िरी गाँव मिलम में 1830 में जन्मे नैनसिंह रावत लड़कपन से ही अपने परिवार के बड़े-बूढ़ों के साथ व्यापार के सिलसिले में कई बार तिब्बत जा चुके थे.
(nain singh rawat milam)

1855 में जर्मनी के विश्वविख्यात भूगोलशास्त्री बैरन हम्बोल्ट ने अडोल्फ़ और रॉबर्ट श्लागिनवाईट नामक दो प्रतिभाशाली भाइयों को भारत भेजा था ताकि वे सर्वे ऑफ़ इण्डिया की सहायता से तिब्बत का भौगोलिक सर्वेक्षण कर सकने का कोई रास्ता निकाल सकें. उस समय तक तिब्बत सारे संसार के लिए अदेखी-अनजानी पहेली जैसा था.अनेक संयोगों के चलते श्लागिनवाईट भाइयों ने अपने शुरुआती शोधकार्य के लिए नैनसिंह और उनके दो चचेरे भाइयों की सेवाएं लीं. दुर्गम हिमालय की वैज्ञानिक मैपिंग करने का यह अपनी तरह का पहला प्रोजेक्ट था.

शोध की समाप्ति के बाद 1863 तक नैनसिंह रावत मिलम गाँव के वर्नाक्युलर स्कूल में हैडमास्टर नियुक्त किये गए. उनके जीवन में अगला बड़ा मोड़ उसी वर्ष आया जब उनके पिछले कार्य से प्रभावित होकर देहरादून के ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे दफ्तर से उन्हें और उनके चचेरे भाई मानी सिंह को दो साल की ट्रेनिंग के लिए बुलावा आया. इन वर्षों में उन्हें तमाम वैज्ञानिक उपकरणों से परिचित करवाने के साथ साथ अजनबी जगहों में भौगोलिक शोध करने में आने वाली दिक्कतों के बारे में भी बतलाया गया. (इतिहास रावत कौम का अन्तिम हिस्सा – पंडित नैनसिंह रावत की डायरी)

अति प्रतिभाशाली नैनसिंह ने सब कुछ जल्दी-जल्दी सीख लिया. इसके अलावा अपने गाँव-इलाके में बिताये चरवाहा-जीवन के लम्बे अनुभव से वे सभी प्रमुख नक्षत्रों और तारामंडलों और उनकी गति को अच्छी तरह समझते-जानते थे. देहरादून में उनके प्रशिक्षण के दौरान उन्हें तिब्बती लामाओं द्वारा मंत्रोच्चार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली माला को दूरी नापने के उपकरण के रूप में काम लाने का तरीका सिखाया गया. पारम्परिक माला में 108 मनके होते हैं. इन दो भाइयों के लिए बनाई गयी माला में 100 मनके डाले गए. सौ कदम गिनने के बाद अगले मनके पर उँगलियाँ फेरी जानी होती थीं. सो माला का एक चक्र पूरा होने का मतलब होता था दस हज़ार कदम की दूरी. साढ़े इकतीस इंच का एक कदम माना जाता था और इस लिहाज़ से एक मील करीब 2000 कदमों का होता था.

इस ट्रेनिंग के बाद दोनों भाई तिब्बत के सर्वेक्षण के लिए निकले जहाँ उन्होंने कभी व्यापारी का तो कभी भिक्षुक का भेस धरा. 1865-66 में नैनसिंह ने काठमांडू से ल्हासा तक की 1200 किलोमीटर की यात्रा की और वहां से मानसरोवर होते हुए वापस भारत पहुंचे. यह उनके बेहद अर्थवान जीवन की अनीक महत्वपूर्ण यात्राओं की शुरुआत थी.

तिब्बत के सुदूरतम इलाकों की वैज्ञानिक मैपिंग का यह पहला कार्य था. उसके बाद के कोई डेढ़ दशक की उनकी यात्राओं के विवरण पढ़े जाएं तो पता चलता है वे अनेक महत्वपूर्ण भौगोलिक मिशनों का हिस्सा बनकर सतलुज और सिंध नदी के उद्गम स्थलों से लेकर लेह, लदाख, असम, बंगाल और भूटान जैसी जगहों तक पहुंचे. इस दौरान उन्हें एक बार अठारह दिन जेल में बंद भी कर दिया गया. ल्हासा और मानसरोवर का पहला आधिकारिक नक्शा भी उन्होंने ही तैयार किया था.

रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने 1877 में उनके कार्य की महत्ता को रेखांकित करते हुए उन्हें सोसायटी का सबसे सम्मानित स्वर्ण पदक दिया जिसे पाने वाले वे पहले भारतीय थे. उनके सम्मानपत्र में लिखा गया था – “For his great journeys and surveys in Tibet and along the Upper Brahmaputra, during which he determined the position of Lhasa and added largely to our knowledge of the map of Asia.”

पेरिस ज्योग्राफिकल सोसायटी ने भी उनका सम्मान किया. उनके ज्ञान और अनुभव की विषदता ने उन्हें पंडित की उपाधि भी दिलाई. (इतिहास रावत कौम का पहला हिस्सा – पंडित नैनसिंह रावत की डायरी)
(nain singh rawat milam)

यह नैनसिंह रावत थे जिन्होंने पहली बार ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई और अक्षांश-देशांतर जैसे विवरण नापे. अपनी अंतिम आधिकारिक यात्रा में में वे 1874-75 में लद्दाख से ल्हासा और वहां से असम तक गए. इस दौरान उन्होंने कई ऐसे इलाके भी पार किये जहां तब तक कोई मनुष्य नहीं पहुंचा था. एक अतीव दुर्गम गाँव में पैदा हुए इस असाधारण व्यक्ति ने भौगोलिक अनुसंधान और मैपिंग के क्षेत्र में जो कार्य किया उसे आज तक दुनिया भर में मील का पत्थर माना जाता है. 1 फरवरी 1895 में उनका देहांत हुआ.

पंडित नैनसिंह रावत का पैतृक गाँव मिलम आज तकरीबन उजाड़ हो चुका है. मिलम तक सड़क बनाने का सरकारी कार्य पिछले तीन-चार दशकों से चल रहा है. जेसीबी-बुलडोज़र की सहायता से टुकड़ों-टुकड़ों में किये जा रहे उस काम को पूरा होने में ठीक-ठीक कितना समय लगेगा, कहना मुश्किल है. अभी तो मुनस्यारी नगर में ही काम पूरा नहीं हुआ है.
(nain singh rawat milam)

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • डा मृगेश पांडे जी, आपके द्वारा प्रेषित लेख काफी रोचक होते हैं
    डॉ गोपाल कृष्ण शर्मा
    नेत्र सर्जन
    पिथौरागढ़

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago