सोचा, चौलाई के दाम आसमान पर हैं तो चलो कोई और हरी सब्जी खोजते हैं जो हमारी जेब पर भारी न पड़े. देखा, चौलाई का बिरादर हरा-भरा पालक बाजार में आ चुका है. इससे बेहतर भला क्या हो सकता है?
(Palak Ki Sabji Uttarakhand)
बचपन से पालक की यादें मन में उमड़ती रही हैं. पहाड़ के ‘पालंग’ यानी पहाड़ी पालक की ‘टपकिया’ की शिद्दत से याद आई. ऊंचे पहाड़ों में, हम सूखे खेतों में धान की खेती करते थे. वर्षा हो गई तो हो गई तो गई, नहीं तो भजगोविंदम्! वह लाल चावल होता था जो लकड़ी की ढेकी में मूसल से कूट कर हासिल होता था. जब वह चावल बनता था तो उसके संग-साथ थाली में उड़द-राजमा की दाल और पहाड़ी पालक का टपकिया होता था. ‘टपकिया’ यानी टुपुक भर, मतलब थोड़ा-सा.
वह टपकिया हमारी थाली में कब से चला आ रहा होगा? दो सौ साल पहले तो कुमाऊंनी भाषा के आदि कवि लोकरत्न गुमानी भी इसके बारे में लिख गए हैं- ‘कालो-कालो टपकिया’. लेकिन, लाल-गुलाबी कोमल तने और तिकोनी तीर की शक्ल की पत्तियों तथा कांटेदार बीजों वाले पहाड़ी पालक की उपमा तो उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोकगाथा ‘मालूशाही’ के लोककवि ने आठवीं-नौवीं सदी में ही नायिका राजुला से कर दी थी-
बैसाखी सुरिज जसी, चैत की कैरुवा जसी
पूस की पालंगा जसी
याबा मेरा रे भागी रे बाना!
मतलब, राजुला अब बैसाख के सूरज जैसी, चैत के कैरुवा (शतावरी) और पूस माह के पालक जैसी हो गई है रे भाग्यवान श्रोताओं!
और, भला प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की नजरों से कैसे छूटता पालक? उन्होंने अपनी ‘ग्रामश्री’ कविता में लिखा
लहलह पालक, महमह धनिया
लौकी औ’ सेम फली, फैली.
यह तो हुई पहाड़ों की बात. मैदानों में भी पालक की सब्जी खूब लोकप्रिय है. मन पूछता है आखिर इस धरती पर इस प्रिय पत्तेदार सब्जी पालक का जन्म कहां हुआ होगा? वनस्पति विज्ञानियों का कहना है कि इसका जन्म मध्य और पश्चिम एशिया में हुआ और अगर सही जगह की बात की जाए तो इसका जन्म फारस में हुआ. फारस, जिसे आज ईरान कहा जाता है.
(Palak Ki Sabji Uttarakhand)
रोचक बात यह है कि वनस्पति वैज्ञानिक इसे स्पिनेशिया ओलेरेसिया कहते हैं. स्पिनेशिया इसके वंश का नाम है और ओलेरेसिया प्रजाति का. वंश के नाम स्पिनेशिया में इसकी जन्मभूमि का रहस्य छिपा है. फारसी भाषा में इसे अस्पैनाख कहा जाता है. इसी अस्पैनाख शब्द से वनस्पति विज्ञानियों ने इसका नाम स्पिनेशिया रख दिया. और, ओलेरेशिया का लैटिन भाषा में मतलब है सब्जी. इस तरह फारस की यह सब्जी वनस्पति विज्ञान में स्पिनेशिया ओलेरेशिया हो गई!
फारस से पालक दुनिया के सफर पर निकला तो 647 ईस्वीं में समुद्री सौदागरों के साथ यह पहुंचा भारत. फिर भारत से नेपाल. लोग इसे तब फारसी सब्जी कहते थे. नेपाल के राजा ने सातवीं सदी में चीन के राजा को फारसी सब्जी की सौगात भेजी. उधर ग्यारहवीं सदी में पालक स्पेन पहुंचा और वहां से इंग्लैंड. अंग्रेजों ने सोचा, यह नई पत्तेदार सब्जी स्पेन से आई है तो वहीं की होगी, इसलिए उन्होंने इसे स्पेनी सब्जी कहा. जब पालक फ्रांस पहुंचा तो वहां इसे एस्पिनाचे कहा गया. यूरोप में पहली फ्रोजन सब्जी का श्रेय पालक को ही दिया जाता है.
पालक के इटली से फ्रांस पहुंचने का किस्सा तो दुल्हन के साथ ससुराल पहुंचने का किस्सा है. हुआ यह कि सोलहवीं सदी में इटली के फ्लोरेंस शहर में पालक की सब्जी सुप्रसिद्ध कुलीन मेडिसि परिवार की बेटी कैथरीन डी मेडिसि की प्रिय सब्जी बन गई. इतनी प्रिय कि जब उसकी शादी फ्रांस के राजा हैनरी द्वितीय से हुई तो दुल्हन कैथरीन अपने साथ पालक के स्वादिष्ट व्यंजन बनाने वाले रसोइयों को भी अपने ससुराल ले गई. उसकी देखा-देखी पालक के लिए लोगों का चाव बढ़ता गया और धीरे-धीरे पालक संग परोसे जाने वाले व्यंजन ‘अ’ला फ्लोरेंटीन’ कहलाने लगे. आज भी ‘अ’ला फ्लोरेंटीन’ व्यंजनों की एक विशेष पहचान है.
अमेरिका जरा देर से पहुंचा पालक. कहते हैं वहां यह सन् 1828 में पहली बार वहां पहुंचा. लेकिन, कुछ यों पहुंचा कि आगे चल कर हर जुबान पर चढ़ गया. इसमें एक मशहूर कार्टून का हाथ बताया जाता है. सन् 1929 में कार्टूनिस्ट एल्जी सैगर ने एक कार्टून श्रंखला रची जिसका नाम रखा ‘पोपाइ द सेलर मैन’. वे खुद शाकाहारी थे इसलिए साग-सब्जी के बूते शरीर की ताकत बढ़ाने की बात सोची. उन दिनों पालक को सुपर सब्जी माना जाता था और कहा जाता था कि उसमें लौह तत्व की मात्रा बहुत अधिक है. आप जानते ही होंगे, हमारे खून का हीमोग्लोबिन इसी लौह तत्व की मदद से हमारे फेफड़ों से आक्सीजन शरीर के तमाम हिस्सों में पहुंचाता है.
पालक में लौह तत्व तो होता है लेकिन उतना नहीं जितना दशमलब बिंदु की एक गलती के कारण कभी दर्ज़ हो गया था. डॉ. ई. वॉन वोल्फ ने सन् 1870 में पालक में लौह तत्व का पता लगाया. टाइपिंग की गलती के कारण 3.5 की जगह लौह तत्व की मात्रा 35.0 हो गई. यानी दस गुना अधिक लौह तत्व! वह तो सन् 1937 में जर्मन रसायनशास्त्री प्रोफेसर सुपान के परीक्षण से पता लगा कि पालक में लौह तत्व 3.5 मिलीग्राम ही है. लेकिन, खबर तो आग की तरह दुनिया भर में फैल चुकी थी और अत्यधिक लौह तत्व के कारण पालक को शरीर की ताकत बढ़ाने वाला अचूक नुस्खा मान लिया गया.
(Palak Ki Sabji Uttarakhand)
हां तो हम अमेरिका की बात कर रहे थे. वहां सन् 1930 के दशक में भयंकर मंदी का दौर चल रहा था. उसी बीच ‘पोपाई द सैलर मैन’ कार्टून लगातार लोकप्रिय होता चला गया. कार्टून का शीर्षक गीत ‘आइ एम पोपाई द सैलर मैन’ मन मोह लेता था. हिंदी में उसके बोल कुछ इस तरह होंगे-
मैं हूं पोपाई सैलर मैन
मैं हूं पोपाई सैलर मैन
मैं इतना जो ताकतवर
खाता हूं मैं पालक
मैं हूं पोपाई सैलर मैन
बच्चों में यह कार्टून इतना लोकप्रिय हो गया कि उस दौर में उनके खाने की तीन सबसे पसंदीदा चीजों में पालक भी शामिल हो गया. वे तीन चीजें थीं टर्की, आइसक्रीम और पालक! कहते हैं अमेरिका में मंदी के उस दौर में पालक की खपत 33 प्रतिशत बढ़ गई थी. एहसानमंद लोगों ने अमेरिका के क्रिस्टल सिटी शहर, टैक्सास में इस कार्टून के मुख्य चरित्र पोपाई की एक शानदार प्रतिमा स्थापित कर दी.
किस्सा कोताह यह कि पालक बेशक एक पौष्टिक सब्जी है जिसमें विटामिन ए, विटामिन सी, विटामिन बी-6 के साथ ही कैल्सियम, आयरन (लौह), मैग्नीशियम, मैंग्नीज और पोटाश आदि खनिज तत्व भी पाए जाते हैं. इसलिए इसके विभिन्न व्यंजन बना कर इसे भोजन में जरूर शामिल करना चाहिए. यह सब तो ठीक, लेकिन कीटनाशकों के अंश का क्या करें? बहुत मन से पालक ला कर, जब कढ़ाई या कुकर में उसे चढ़ाते हैं तो पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से ही कीटनाशकों की गंध पहचान लेने वाली इस नाक का क्या करूं? गंध सूंधते ही यह आगाह कर देती है कि खबरदार इसमें कीटनाशकों का अंश है. पकाते-पकाते कई बार पालक की पूरी सब्जी फेंकनी पड़ी है. सन् 60-70 के दशकों में विज्ञान लेखिका और वैज्ञानिक रचेल कार्सन की किताब ‘द साइलेंट स्प्रिंग’ ने पूरी दुनिया को आगाह कर दिया था कि अगर कीटनाशकों का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग न किया गया तो ये हर चीज में जहर घोल देंगे. आज वह सच हो गया है. इसलिए जो भी खाएं, संभल कर खाएं ताकि कीटनाशक शरीर में न पहुंच सकें.
(Palak Ki Sabji Uttarakhand)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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