किंवदंतियों के मामले में पड़ोसन (1968) शायद शोले के बाद दूसरे नंबर पर पड़ती होगी. हिंदी सिनेमा के इतिहास में यह फिल्म ऑल टाइम क्लासिक रोमांटिक कॉमेडी (Padosan: All Time Classic Romantic Comedy) साबित हुई. यह महमूद की बहुप्रतीक्षित फिल्मों में से एक थी. दरअसल महमूद का विचार था कि, सिनेमा के धुरंधर हास्य कलाकारों को लेकर एक फिल्म बनाई जाए. स्वयं महमूद ऐसे कलाकार रहे, जिन्हें कॉमेडी के स्तर को बदलने का श्रेय जाता है.
‘एक चतुर नार’ गीत, मूल रूप से झूला (1941) फिल्म में अशोक कुमार द्वारा गाया गया था. इस प्रतिस्पर्धायुक्त गाने में खूब एक्सपेरिमेंट किए गए. बताया तो यह भी जाता है कि, मन्ना डे उससे खुश नहीं थे. गीत में ‘काला जा रे जा रे…’ का सुर ‘चंदा रे जा जा… (जिद्दी) से उठाया गया था, जो कि क्लासिक ठुमरी ‘कागा रे जा रे जा रे…’ पर आधारित था. इस फिल्म में किशोर कुमार ने इसका इंप्रोवाइजेशन इस हिसाब से किया कि, वे राग झिंझोटी से सीधे राग छायानट पर स्विचओवर कर जाते हैं, जो ठेठ हिंदुस्तानी राग है. वैसे भी फिल्म में पिल्लई मास्टर (महमूद) कर्नाटक संगीत में दक्ष है, उसे गच्चा देने के लिए विद्यापति को यह राग गाना पड़ा. इस गाने में चतुर शब्द का प्रयोग अठ्ठाइस बार हुआ है. फिल्मकारों को पिल्लई के चरित्र-चित्रण से तमिल भावनाओं के आहत होने की आशंका थी, लेकिन जैसे ही फिल्म चेन्नई में रिलीज हुई, वहाँ के कला प्रेमी दर्शकों ने इसे हाथों हाथ लिया. किशोर कुमार की सदाबहार फिल्म चलती का नाम गाड़ी
जहाँ एकओर बनारसी(मुकरी), कलकतिया (केस्टो मुखर्जी), लाहौरी(राजकिशोर) गुरु की शागिर्दी में रहते हैं, तो दूसरी ओर मास्टर पिल्लई अकेला हैं. खास बात यह है कि, ये सभी किरदार, देश के अलग-अलग कोनो का प्रतिनिधित्व करते हैं और बोलचाल, लहजे और वेशभूषा में उसे बखूबी अभिव्यक्त भी करते हैं.
‘बिंदु रे बिंदु…’गीत के फिल्मांकन के दौरान कोरियोग्राफर मौजूद नहीं थे. किशोर कुमार को इन बातों से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. उन्होंने खुद पहल की और पात्रों को ब्रीफ किया. कोरियोग्राफर की गैरमौजूदगी में ही, उन्होंने गीत गाना और नाचना शुरू कर दिया. इतना ही नहीं, ऊलजलूल हरकतें करनी शुरू कर दी और मंडली के कलाकारों से अपना अनुकरण करने को कहा. बिना किसी पूर्व योजना के गाया और फिल्माया गया यह गीत, हिंदी सिनेमा के हल्के मूड के गीतों में से स्मरणीय साबित हुआ.
विद्यापति की भूमिका के लिए आर डी बर्मन, महमूद की पहली पसंद थे. भूत बंगला में अभिनय करके पंचम दा अभिनय कर्म से तौबा कर चुके थे. यही नहीं उन्होंने अपने पिता को इस आशय का वचन भी दे दिया कि, वे अब कभी भूलकर भी, अभिनय नहीं करेंगे. किशोर कुमार को मनाने में महमूद को एक महीने से ज्यादा वक्त लगा. रात भर उनके घर के आगे खड़े होकर, वे उन्हें मनाते रहे, तब जाकर किशोर कुमार राजी हुए.
दत्त साहब और महमूद को विद्यापति के चरित्र से आच्छादित होने का खतरा महसूस हुआ. कहा तो यह भी जाता है कि, महमूद ने उनके कुछ दृश्यों में काट- छाँट की. इसके बावजूद जब फिल्म रिलीज हुई, तो दर्शकों ने विद्यापति के कैरेक्टर को सबसे ज्यादा सराहा .
फिल्म की सफलता में सबसे ज्यादा श्रेय फिल्म के मेलोडियस गीत-संगीत को जाता है. ‘मैं चली…मैं चली…’ गीत में लता और आशा की शानदार जुगलबंदी है. कॉलेज छात्राओं पर फिल्माया गया यह गीत, तब खूब चर्चित हुआ और इसके फैशन को दोहराने में रमणीयों ने जरा भी देरी नहीं की.
लता मंगेशकर का दूसरा गीत, ‘भाई बत्तूर…’ खूब पसंद किया गया. सायरा बानो की कमनीयता ने इस गाने में चार चाँद लगा दिए.
किशोर कुमार का गाया गीत, ‘मेरे सामने वाली खिड़की में…’ कल्ट गीत साबित हुआ. आगे की पीढ़ियों में भी शायद ही कोई ऐसा नौजवान रहा होगा, जिसने इस गीत को न गुनगुनाया हो. वासु चटर्जी की फिल्म: चमेली की शादी
उनका दूसरा गीत, ‘कहना है.. कहना है.. आज तुमसे.’भी खूब पॉपुलर हुआ.
मन्ना डे एक चतुर नार.. और साँवरिया.. गीतों की शास्त्रीय गायकी में खूब जमे.
चाहे, वह चलती का नाम गाड़ी हो अथवा पड़ोसन, दोनों फिल्मों में एक खास रुझान देखने को मिलता है. फिल्म की सफलता के लिए जिन आवश्यक तत्वों की दरकार रहती है, उनमें दोनों में मेलोडियस गीत-संगीत, पहले नंबर पर रहा. दूसरे नंबर पर रहा, नायिकाओं का अनिंद्य सौंदर्य, उनकी मोहकता और कमनीयता. फिर विद्यापति और उसकी मंडली, महमूद का मिजाज और लहजा, भोला का भोलाभाला पन और प्रैंक्स ने फिल्म की सफलता में चार चाँद लगा दिए. भोला में तो कहीं-कहीं पर ‘मदर इंडिया’ के बिरजू की झलक दिखती है. इन सब तत्वों ने मिलकर, फिल्म को अविस्मरणीय बनाने में खास भूमिका निभाई.
भोला, एक भोला-भाला नौजवान है, जो अपने मामा कुंवर प्रताप सिंह (ओम प्रकाश) के यहाँ रहता है. मामा अधेड़ है. पहली पत्नी के रहते हुए, वह दूसरी शादी की फिराक में रहता है. भोला का आश्रम व्यवस्था में गहरा विश्वास रहता है. पूरी फिल्म में, वह एक नीति की किताब को पढ़ते हुए दिखाई देता है. पच्चीस बरस तक ब्रह्मचर्य, पचास तक गृहस्थ. एक बार तो वह, उस पंक्ति को पढ़कर चौंक जाता है, “अरे! मैं तो छब्बीस बरस का हो गया. गृहस्थी के छह महीने बर्बाद भी हो गए.
उसे छब्बीस बरस का होने का बड़ा मान रहता है. तालाब के किनारे, सैर- सपाटे को आई बिंदु(सायरा बानो) और उसकी सखियों से उसकी भिड़ंत हो जाती है. वह उसे पानी में धकेल देती हैं . भीगा हुआ भोला, इक मीठे-मीठे अहसास के साथ, विद्यापति गुरु (किशोर कुमार) की शरण में जाता है और उन्हें वाकये की तफ्सील सुनाता है.
मामा के मंसूबे देखकर, वह उनसे रूठकर, मामी के यहाँ रहने को चला जाता है.
संयोग से बिंदु, मामी के पड़ोस में रहती है. भोला को रहने के लिए, जो कमरा दिया जाता है, वह बिंदु के कमरे के ठीक सामने पड़ता है. दोनों कमरों की खिड़कियाँ, सिनेमा हॉल के परदे के आकार की दिखाई पड़ती हैं. कथा-संयोजन के हिसाब से यह आकार उपयुक्त सा दिखता है, क्योंकि आगे का सारा वाद-विवाद हो, या प्रतिस्पर्धा अथवा संगीतमय प्रस्तुति, सब-की-सब, बजरिए खिड़की ही होती है.
भोला को भाई बत्तूर…भाई बत्तूर…गाने के बोल सुनाई पड़ते हैं. गीत, सायरा बानो पर फिल्माया गया है. यह अवस्था-बोध का गीत है, श्रृंगार काव्य पर आधारित है. गीत का खूबसूरत फिल्मांकन हुआ है.
भोला की मामी, बिंदु पर टिप्पणी करते हुए कहती है, “…दिन भर या तो गाना गाती है या घुंघरू झलकाती है.” खिड़की से दर्शन होते ही, भोला चिल्ला उठता है, “जलपरी.”
बिंदु, मिजाज की तेज है. दोनों में अच्छी- खासी तकरार होती है. वह भोला पर भारी पड़ती है तो, ऐन मौके पर भोला को गुरू याद आ जाता है.
मंडली, खिड़की की ओट से बिंदु पर निगाह रखती है. गुरु, भोला की पसंद की दाद देता है, “वो ढूंढी है, फ्रंट पर अकेली चली जाए तो, दुश्मन हथियार डाल दे. तभी मास्टर जी (महमूद) बिंदु को संगीत सिखाने आ पहुँचते हैं. परिदृश्य में उनकी एंट्री, ठोकर लगने के साथ होती है. वे बिंदु से कहते हैं , फर्श का लेबल बराबर नहीं है. वे नसवार सूँघते हैं, तमिल लहजे में हिंदी बोलते हैं. दक्षिण मूल के होने के कारण, महमूद पिल्लई मास्टर की भूमिका में सहज लगे, भाषा, लहजे और नृत्य सभी में.
गुरु और उनकी मंडली आधी चिक खोलकर उनकी स्पाईंग करती है. गुरु, ऑब्जर्व करता है कि बिंदु भी, उसे लजा-लजाकर प्रीतभरी मुस्कान दे रही है. मास्टर पिल्लई, ‘सुन रे सजनिया.. सांवरिया..’गीत गाता है. कुंदन शाह की कालजयी कॉमेडी फिल्म: जाने भी दो यारो
मंडली हालात का विश्लेषण करती है और इस नतीजे पर पहुँचती है, “क्या हम नचैया से हार मान लेंगे.”
बिंदु के बारे में उनकी राय है- “लड़की रोमांटिक और फॉरवर्ड है, लेकिन है तो खानदानी.”
तो मंडली, डांस मास्टर की छुट्टी करने का संकल्प लेती हैं.
आउटडोर दृश्य है- मास्टर पिल्लई, बिंदु को अपना सपना सुनाता है. सपना काफी प्रतीकात्मक है; चिड़े और चिड़िया का. गुरु और उसकी मंडली, पेड़-पौधों की ओट में, कैमोफ्लेज करके, सारी बातें सुनते रहते हैं. बहुत सोच-समझकर, गुरु इस नतीजे पर पहुंचते हैं, “बिंदु को मास्टर की शक्ल से कोई दिलचस्पी नहीं, अगर दिलचस्पी है तो, उसकी कला से. थोड़ा सा संगीत, थोड़ा सा नृत्य.” गुरु, भोले को नृत्य-संगीत की शिक्षा देने को फौरन तैयार हो जाता है, तो भोला उतावलेपन में कहता है, “छब्बीस बरस का हो गया हूँ. दो दिन में सीख जाऊँगा गुरु.”
भोला का संगीत प्रशिक्षण शुरू होता है. वह गुरु और उसकी मंडली को बुरी तरह निराश कर देता है. इस प्रयोग में विफल होने पर भोला बच्चों की तरह रोने लगता है. विद्यापति और उसकी मंडली, भोला के इर्दगिर्द गोल-गोल चक्कर लगाती हैं. वे आइडिया खोजते हैं, जुगत भिड़ाते हैं, विद्यापति उछलकर कहता है, “भोले! बन गया काम. गाना मैं गाता हूँ. तू सिर्फ होंठ हिला.” वह उसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “आवाज मेरी, शक्ल तेरी.”
तो सिलसिला आखिर शुरू हो जाता है. ‘मेरे सामने वाली खिड़की…’ गीत को विद्यापति तन्मयता से गाता है, तो तख्त पर बैठकर भोला, उसी तल्लीनता से अभिनय करता है. बिंदु इस मधुर स्वर में कहीं खो सी जाती है.
गीत पूरा होने के बाद विद्यापति, बिंदु की प्रतिक्रिया जानना चाहता है. खिड़की पर तो भोला ही मौजूद रहता है, तो गुरु भोला से पूछता है, “क्या वह खिड़की पर आई? क्या वह बात करना चाहती है?” फिर कमांड देते हुए कहता है, “बंद कर दे दरवाजा.”
भोले का बात करने को बहुत मन करता है, लेकिन गुरु और उसकी मंडली जबरदस्ती खिड़की के दरवाजे बंद कर देती है. भोला रूठ जाता है. वह उदास रहता है. कई दिनों तक खोया-खोया सा रहता है तो, गुरु और उसकी मंडली उसे ढांढस बँधाती है. ‘मेरे भोले बलम…’ गीत गाकर उसका मन बहलाने की कोशिश करती है. मास्टर पिल्लई बिंदु को गीत सिखाने के लिए आ पहुँचता है तो, वह खिड़की बंद करने को आगे बढ़ता है, लेकिन बिंदु उसे टोक देती है, “देखने दो. सुनने दो. इन्हें भी पता चले, गाना क्या होता है.” वह भोला को इंगित करते हुए कहती है, “बड़ा आया तानसेन का बच्चा.” ऐसा कहकर वह खिड़की पर बुरी तरह मुँह चिढ़ाती है.
मास्टर पिल्लई और भोला के बीच तकरार होती है. मंडली की आड़ में भोला, मास्टर पिल्लई की चुनौती स्वीकार कर लेता है. ‘एक चतुर नार…’गाने में दोनों जोर आजमाइश करते हैं. अच्छी-खासी होड़ मचती है. बिंदु का लंगड़ाकर, खिड़की की ओर झपटना एकदम नेचुरल लगता है. शास्त्रीय गायकी की स्पर्धा कहें या सांसारिक जीवन का वाद-विवाद, हर एंगल से यह गीत मुकम्मल सा लगता है. भोला, पिल्लई मास्टर ताल देते, ताव खाते नजर आते हैं.
बिंदु, भोला को बहला-फुसलाकर नीचे बुलाती है और उसे तमाचा रसीद कर देती है. अपना दुखड़ा लेकर वह पुनः मंडली की शरण में जाता है. विद्यापति गुरु श्रीकृष्ण की भूमिका में उसे ज्ञान देते हैं, “भोले! ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा.”
भोला, बिंदु का पीछा करता है. किसी जल सारणी के किनारे, बिंदु मास्टर पिल्लई को उससे भिड़ा देती है. भोला का कसरती बदन, मास्टर पर भारी पड़ता है. किसी तरह भोला और बिंदु में सुलह हो जाती है, लेकिन तभी मास्टर पिल्लई भाड़े के अपराधियों से उस पर हमला करवा देता है. वह बुरी तरह जख्मी हो जाता है. तीमारदारी के दौरान, बिंदु के मन में भोला के लिए प्रेम पनपने लगता है.
पंडित जानकीदास (सुंदर) बिंदु के लिए भोला के मामा का रिश्ता लाता है. इस पर भोला, बिंदु से मजाक करता है कि अब तुम मेरी मामी लगोगी.
बिंदु की सालगिरह है. भोला, उदास बैठा है. लगभग रोने को तैयार. गुरू मंडली सहित उसकी मदद को आ धमकता है. उसके हाल पर तरस खाते हुए विद्यापति कहता है, “इसमें रोने की क्या बात है. हम किस मर्ज की दवा हैं.” भोला, बिंदु के प्रेम में उसे सच-सच बता देना चाहता है, लेकिन मंडली की राय रहती है कि मोहब्बत और जंग में सब जायज है. गुरु की एक्सपर्ट राय रहती है, “जब तक ऐसा चलता है, चलाते चलो. शादी के बाद, सब कुछ बता देना.”
बिंदु के मनुहार पर, भोला सालगिरह पर मनमाफिक गीत गाता है, ‘कहना है… कहना है… आज तुमसे पहली बार…’
गीत के मध्य में बिंदु की सखी, बिंदु के कान में कहती है, “ये तो विद्यापति है.”
“विद्यापति? कौन विद्यापति?”
“मैं इसे जानती हूँ. बहुत बड़ा गवैया है.”
बिंदु सच नहीं मानती तो, वह उसे हाथ पकड़कर असलियत दिखाने के लिए भोला के घर तक खींच ले जाती है.
प्लेबैक और मंचीय प्रस्तुति देखकर, उनकी असलियत जाहिर हो जाती है. जैसे ही उन पर भोला की नजर पड़ती है, वह अफरा-तफरी का शिकार हो जाता है. विद्यापति तो गाने में मशगूल रहता है.
रंगे हाथ पकड़े जाने पर, भोला और उसकी सहयोगी मंडली पर घड़ों पानी पड़ जाता है. इस फरेब से सहसा आवेश में आकर, बिंदु, एक विचित्र सा निर्णय ले बैठती है. वह फुफकारते हुए कहती है, “अब तो मैं तेरी मामी बनकर दिखाऊँगी.” इस फैसले के पीछे, सबसे अधिक प्रिय को सबसे गहरी चोट पहुँचाने का मनोविज्ञान काम करता है.
पंडित, फौरन मामा को लड़की और उसके मां-बाप के रिश्ते के लिए हाँ बोलने की खुशखबरी सुनाता है. तभी, मंडली मामा के घर जा पहुँचती है. विद्यापति मामा से कहता है, “आप हमारे बुजुर्ग हैं.”
‘बुजुर्ग’ शब्द सुनकर मामा का मुँह बन आता है. गुरु आगे कहता है, “आपसे जरूरी मशविरा लेना है.” वह बाकायदा लय-ताल में गाकर सिचुएशन बताता है, “फर्ज करो कि आपका कोई जवान बच्चा होता. फर्ज करो कि वह जवान हो गया है.”
मामा भी सुर में ही जवाब देता है, “चलो जी! हो गया है.”
“फर्ज करो कि उसका प्यार, एक बड़ी ही खूबसूरत लड़की से हो गया है.”
मामा एक कदम आगे बढ़कर लय में गाता है, “इसमें फर्ज करने की क्या जरूरत है, अगर लड़की खूबसूरत है तो, प्यार होगा ही.”
“समझ लो, उसकी शादी का मुहूर्त निकल आया है, और वो लड़का सेहरा बाँधकर घोड़े पर बैठने वाला है-2”
इस पर मामा परेशान होकर कहता है, “ये मुझको क्यों सुना रहे हो.”
“उस लड़के को पता चला, कि उसका मामा मामा शादी करने जा रहा है.”
मामा के सिर पर मंडराते हुए गुरु खुलासा करता है, “वो लड़का भोला है, वो लड़की बिंदु है और वो मामा तुम हो.”
मंडली भी, मामा के चक्कर लगाते हुए कोरस में गाती है, “वो मामा तुम हो.”
मामा, भोला के लिए पिघल जाता है.
मामा की मनाही, बिंदु के घर तक पहुँच जाती है, लेकिन इतने पे ही समस्या खत्म नहीं होती. संयोग से मास्टर जी, बिंदु के घर आ जाते हैं. एक विकल्प के तौर पर, बिंदु झट से उनका चयन कर देती है. मास्टर जी की तो मुँह माँगी मुराद पूरी हो जाती है. वह भोला के सामने, इस नए रिश्ते का अच्छा-खासा भाव-प्रदर्शन करते हैं. भोला को मंडली के सामने ही मूर्छा छा जाती है. शेक्सपियर के नाटक ‘द कॉमेडी ऑफ एरर्स’ पर आधारित फिल्म : अंगूर
मास्टर पिल्लई की बारात, पूरी धज के साथ द्वाराचार तक पहुँचती है. वह अपने सारे रीति-रिवाज निभाता है..
गुरु की तरकीब के मुताबिक, भोला को फांसी लगानी पड़ती है. उधर दुल्हन का श्रृंगार चल रहा होता है. इधर भोला के घर में रोना-पीटना मच जाता है. रोना-धोना सुनकर, बिंदु भोला के घर आ पहुँचती है और दहाड़ मारकर रोती है. मास्टर पिल्लई भी दुःख जताने पहुँचता है. विद्यापति, बिंदु से कहता है, “प्यार, पत्थर में भी प्राण डाल सकता है. यदि, तेरे हृदय में प्रेम है, तो उसे जता. हो सकता है, भोला जी उठे.”
करुणा भरा दृश्य देखकर, मृत होने का नाटक निभा रहा भोला, जोरो से रो पड़ता है.
विद्यापति, भावना के आवेग में आकर कहता है, “धन्य हो बिंदु, तू सावित्री है. तेरे प्यार ने इसे यमराज से वापस छीन लिया.
अंतिम दृश्य ही क्या, पूरी- की-पूरी फिल्म, विशुद्ध प्रहसन होकर भी, भावना प्रधान है. डार्क ह्यूमर का शानदार नमूना पेश करती फिल्म : नरम गरम
विद्यापति का किरदार निभाते हुए, किशोर कुमार के जेहन में अपने मामा धनंजय बनर्जी बने रहे. मामा शास्त्रीय गायक थे. माथे पर आई जुल्फों को तर्जनी से हटाना, आँखों में सुरमा, पान से रँगा मुख, बेलौस, बिंदास और मस्तमौला चरित्र, उन्होंने मामा के अनुकरण से ही तैयार किया.
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ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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