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हो हो होलक प्रिय की ढोलक : पावती कौन देगा

दिन गुजरा रातें बीतीं और दीर्घ समय अंतराल के बाद कागज काला कर मन को चटक बना, होठों पे मुस्कान भर देने वाले गुदगुदी सम्राट ने यक्ष प्रश्न पूछा “पावती कौन देगा” प्रिय ने भेजी है.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

अरे भैया पता नहीं क्या कुछ भरा हो इसके भीतर. पहला पेज पलटते ही धमाका हो सकता है. ऐसा कि किसी और को न तो धुंवा दिखे, ना ही आस-पड़ोस में किसी को कोई बमगोला फटने की आवाज सुनाई दे. हाँ, दिमाग के शिथिल पड़े तंतुओं में अचानक कोई सिहरन हो और पेट से उभरी ऊर्ध्व वायु गले के पास अटक जाये. न खी-खी हो और न मुस्की खिले. बस रह-रह यह अहसास हो कि हौले-हौले खटखटाने वाला ये प्रिय अपनी चाशनी में ऐसा डुबा दे कि बुढ़ापे की याददाश्त और ठरकीपन में कहां याद रहे, जे आपने जलेबी चाही या इमरती पाई. बस गोल गोल जो इसने ठूँस दिया वह तो मालपुआ रहा.

अपना माल परोसते बड़ी मासूमियत से प्रिय मास कॉम की विघ्न बाधा रील से कई बिखरी कड़ियाँ जोड़ रिझाने के लिए तत्पर हो गया है. ऐसा माल जो दस बारा रुपे वाली अखबारी रद्दी में परोस दिया जाता रहा, अब मात्र दो सौ निनियानबे रूपये के शनि दान से अद्धे की शकल में लिपट आपके हाथ में बेताब हुआ फड़क रहा. उस पर छूट भी जिससे निम्बू मिर्ची की माला ले लें. जेब में छेद करने में माहिर निकला ये प्रिय. साथ में खुशी भी जाहिर करे कि एक कॉपी तो ठिकाने लगी. डायलॉग बाजी में अव्वल नारद मुनि यानी क्लासिकल भारत का खोजी पत्रकार, बताता है कि हिंदी लेखकों के लिए कॉपी ठिकाने लगाना लाश ठिकाने लगाना जैसा है.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

अपने बड़े ज्ञानी गुरू का कान छूते स्मरण करता हूँ कि उनके कांटेक्ट इतने घने सघन थे कि हम चेलों के, उनकी देहलीज पर हाथ में डब्बा जैसी वस्तु का अवलोकन करते ही वह गदगद हो कहते कि मेरी बेल फैल रही. अब जरा ‘ब’ की जगह ‘भ‘ कर दो तो हो गया ना व्यंग. परिहास की शुरुवात यूँ होती है कि गुरूजी के जितने रिस्तेदार उससे अठगुन ज्यादा चेले. उनकी जॉइंट फैमिली इतनी विशाल कि अपने महाग्रन्थ में आभार प्रकट करने पर हर किसी का नाम लिखने की मज़बूरी में उन्हें माइनर स्ट्रोक आ पड़ा. भला हो हर बखत उनके साथ डोलिने वाले परम चाटू कुत्ते का जिसे डॉग कहा जाना उन्हें कतई न सुहाता. आखिर वही तो है जो उनके सामने अनवरत दुम हिला मछर-माख उड़ाता है. कोई बेफालतू बात करे तो भोंक-भोंक कान कल्या देता है. आभार लिखने के चक्रव्यूह में रिवील्ड प्रिफरेंस का निर्धारण कर उनके दिमाग की नस में ऐसा बूजा लगा कि अनुलोम-विलोम स्थिर हो पड़ा. रिक्त हवा सरकने लगी. अब पशु तो कई इन्द्रियों के अधिपति होते हैं तो उनका गुलदाढू भाँप गया कि मालिक का विलय पंच तत्वों में होने के अंदेशे हैं. उनके बिन उसकी गति तो शूकर से भी बदतर होगी. मालिक छोड़ बाकी सब दुर-दुर ही करते हैं. सो स्वामिभक्ति की अनोखी मिसाल दे लगातार उनका थोबड़ा चाट कर उसने कृतार्थ किया. चेहरे के पास अपनी सरहद भी बनाई. अर्धचेतन में मालिक ने इस वफ़ादारी का अनुभव किया. अंततः सरकारी खरीद में कई संस्करण आपूर्ति वाला वह विषद ग्रन्थ उनने अपने वफादार डॉगी को समर्पित कर दिया. प्रिय भी ऐसी ही उलझन सुलझे ना के कुचक्र का संधान कर समस्या का समाधान करता है “जिस काम से एक धेले की कमाई ना हो, उस काम के लिए मैं लिखूंगा कि मेरी पत्नी ने हमेशा मेरा सहयोग किया और (तुमसे और कुछ न हो सकता, तुम बस लिखो-पढ़ो कह कर ) मेरा उत्साह बढ़ाया. अंततःअम्मा भी याद आई और पप्पा भी लाइन में. अब किसे अधिमान दूँ पर सोच-सोच राष्ट्र को इस किताब की महती आवश्यकता है वाला बोध प्रकट हुआ.

वस्तुतः राष्ट्र तो अनावश्यक चीजों के पीछे भाग रहा है. ऐसी एहसासे कमतरी होते ही अपनी किताब को प्रिय अपने सोशल मीडिया के मित्रों और पाठकों को समर्पित कर डालते हैं. धकाधक बातें उठा ऐसे परोसते हैं कि भुक्खड़ चना जोर गरम ठूँगने वाले रसिक टुंडे के कबाब की तरह सारे अक्षर-विराम-चार विराम निगल जाएं. फिर भी हसरत रहे कि कुमार की फालूदा कुल्फी भी सफाचट हो. साथ में गुलाब की खुशबू वाली रेवड़ी भी कटकाऐं. आखिर अवध के अंदाज में पेश किया है लखनऊ वाला खीस निपोरने का हुनर. पूरा स्कोप है कि पन्ने पलटते रहें तो पंजाब के छोले भठूरे जैसे फूले-फले चटपटे भी उदरस्थ हों. फिर भी मन भावना टिकी रहे परांठे वाली गली के भोजन थाल पर. साथ में शुद्ध देशी घी के सोहन हलवे की कटक ली जाए. सोसिअल मीडिया से बेसब्र मन वाले झक्की दिमाग को रुस्तमे हिन्द की तरह हर वार झेलने के लिए मजबूत भी बनाया जाए .खारी बावली में बिक रही गोखरू-मूसली-शतावारी की भी जगह है प्रिय के मेमोरी कार्ड में. रस-अरिष्ठ, आसव, क्वाथ, काढ़ा सब घोट पीस मर्दन कर पवित्र आसवन वाले ऋषि भी हुए वह जो राजधानियों की रेलपेल से उत्तर -मध्य सब प्रदेशों की आबो हवा का इल्म रखते हैं. गुजरात वाले रसिक भाइयों के कायम चूरन की फांक अंततः लगवा ही देते हैं. होते रहे शुद्धिकरण.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

कहीसुनी पे यकीन न हो तो पन्ने पलटिये. अँखियो के झरोखे से सुप्त मस्तिष्क में”, “पूंजीपुर स्टेशन पर क्रांति एक्सप्रेस” और “भारतीय रेल का तख़्ते ताऊस” का पाठ कीजिये . सब षटरस है. शब्द पाचन में ऊर्ध्व व वाम गति न करें तो ठंडाई भी है जिसके लिए नियमित अंतराल में “वे व्यंग लेखक थे “,”वह कवि था और घटना पर कविता लिख रहा था”,”पूरे लेखकों के अधूरे सपने “और खास तौर से “व्यंग विषय” के घूंट भरें इत्मीनान से. यक़ीनन जै शिब शंकर शुरुवात से ही शरीर को स्टेबल कर मन को घाट-घाट नचा मदमस्त कर देगा. हवा किसी दिशा से बहे खुमारी पुनः लौट आएगी तो “वीर भोग्या वसुंधरा”, “पटवारी साथ हो तो” के साथ “उसकी अदा निराली थी” का पान कर लें. इस दौर में लगता रहेगा कि घोटघाट रगड़ घिस बने बम गोला में ऐसी कूट-कुटकी भी खवा गया ये प्रिय कि रस तरंगिणी में उलट- पुलट झटके नमूदार होने लगें. सेकेंडरी लेवल पर तरंग सिमट अब सुरूर में बदल जाने का योग है..मूड के हिसाब से निखालिस ठर्रे वाला फर्स्ट गियर “वीर भोग्या वसुंधरा” चढ़ा दे तो दूसरे गियर से अगला पादान “सबसे बड़ा ध्वनि मत”, और “अपना घर समझो ” में ला पटके.” बात सन 2050 की छोटे छोटे मग्गोँ में छलके जिन की अनवरत शॉट से कई रुमानी -रूहानी बिम्ब गजबजाने लगेंगे. “एक पुरस्कार की यात्रा” तो वोदका रानी की लात से उभरी मुलायम झुरझुरी प्रतीत होगी . हाँ!हाँ!, बूढ़े साधु थ्री अक्स को कैसे भूलें,”ईश्वर कौन है”, “अनप्रापत वस्तु को कहा तजें”, “मदन जी का मदनोत्स्व” में वह नीट स्वरूप में विद्यमान है.

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कॉमेडी क्या है? अचानक हवा सरक जाये तो हमेशा सीरियस बने दूर्वासा बब्ब भी महक-चहक जाते पर बने रहते अनजान जैसे कोई हवा गुजरी ही न हो. सो प्रिय की जुगाली चरते रहें.कुछ ही समय में आपको अंदाज लग जाएगा कि इसकी हवा में ताजी चरी के साथ जैविक अनाज की नौ किस्में तो हैं ही थोड़ा गुड़ और पुराना भूसा भी. सुधी पाठक होने का अभिजात बाना लपेट अपने ज्ञान से नये पुराने कलमकारों को सबक देने के मूड वाले आलोचक याद कर लें इस विधा के पारंगत पी एच डी वालों को जिनमें एक हुए संजय कुंदन जो पत्रकारिता और साहित्य के पलड़े पर झूल “अख़बारनामा” लिख गए की झलक भी आप पा सकते हैं.  इसमें फसक पुराण को आज के जमाने वाली सिंगल माल्ट में रस सिक्त कर दिया गया है. डिजिटल युग में राजनीति के झोल के साथ समाज की कटफट को दीपक शर्मा ने गाजर-मूली -टमाटर की तरह सजापेश किया था तो आम आदमी की फटेहाल जिंदगी को अभिषेक कश्यप ने बीड़ी के सुट्टे खींच तितर-बितर किया था. यकीन न हो तो “हरिशंकर परसाई होने का मतलब” बांच लीजिये. “कहत कबीर, देख पराई चूपड़ी ” में सुशील सिद्धार्थ की धार नापिये जिनकी खाली बोतल से भी बारा तेरा बूंद टपकती हैं. अर्थशास्त्र के साथ बाजार और राजनीति की सान चढ़ा लम्बे समय एकाधिकारी बने आलोक पुराणिक को विस्मृत किया ही नहीं जा सकता जिनकी “व्यंग का सुपर 30″ व ” कॉमेडी इन कॉर्पोरेट” ऐसी फटाफट बिकी कि प्रिय की हार्दिक हसरत यही हुई कि पाठको अब मेरी किताब की ऐसी मांग करो कि बाजार में उसका नामों निशान न बाकी रहे .यह कह प्रिय कहीं न कहीं सबकी शैडो प्राइसिंग कर जाते हैं. वैसे ही जैसे नरसिंग राव की नीतियों की मनमोहन ने की थी और एक नया अध्याय रच दिया था बल.

सीरियस होने का तो झोल ही नहीं है.प्रिय के लेखन में तमाम चिकनी -चूपड़ी का मेल है जो ललित निबंध से ले फैमिली ड्रामा वाले धारावाहिकों की रेंज से कहीं आगे ओ टी टी तक जा पहुंचेगा.फिल्मों के दीवाने बना गये अपने दद्दा लोग हमें ऐसा ज्ञान सूत्र दे गए थे जिससे हमें कॉमेडी के गुण सूत्र पहचानने में सुविधा रही.उम्र के पड़ाव पार करते चेहरे बताते गये हास तो हर नाशवान वस्तु में विद्यमान है चाहे वह मोहरा हो या चेहरा. कौन नाक से बोलता है किसके हाथ पांव चलते हैं बोलने में और किसने जिंदगी भर धाड़ीदार कच्छा पहन ही ही ठी- ठी की. पहचानो जरा,ये हुआ गोप और ये है याक़ूब और यह सुक्खी लाला हुआ कन्हैया लाल.ससुरे कामेडी भी करें और नायिका के अधो वस्त्रो पर तिरछी नजर टिकाये रक्खें. जानी वाकर तो गाना भी गाए और सर चकराने पर प्यासों की मालिश कर अपनी लटैक दिखा गुदगुदी करे दे. भगवान का अलबेला डांस हो या बुढौती में रोमांस का जलवा दिखाने वाला ओम परकाश. काले को दिलवाले बना मेहमूद मियां की मधुर स्मृति बने या कादर खाँ साहेब जो डाइलोग भी लिख देँ और वक़्त जरुरत खीसें भी निपोरें. गोबिंदा को नाच सिखा शक्ति कपूर के साथ जुगलबंदी भी पटका दें. इन सब को मोटा मोटा दर्दरा कर राजिंदर नाथ से मुकरी और केस्टो का पंचांग मिला जितनी खीस निपोरी जा सकती है उसका ताना बाना एक ही जगह मिल जा रहा प्रिय के लेखन कौशल में.

सब को थेच कूट निचोड़ उत्पल बाबू और वर्मा देवेंन की भांति सभ्य शिष्ट बन प्रिय डार्क कॉमेडी के बोल बचन भी दे रहे जिसका पारायण कर हिंदी साहित्य के कई नामी गिरामी नुक्ताचीनी करते फाजिल पड़ा महसूस करेंगे. सही जगह सही समय पर प्रचंड झटका मुलायमियत से लगाना भी जानता है ये प्रिय और लालू की भांति खीस निपोर ठट्ठे बाजी की कीमियागिरी भी निकाल देता है जिसे कहते हैं जाबिर झटकेबाजी.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

इत्ते सारे लोगों के चूर्ण रस और अवलेह को मदनानंद मोदक की तरह आप गटकना चाहें तो पुलिंदा ले खड़ा है प्रिय. पशोपेश को एक झटके में दूर कीजिये.  पावती कौन देगा” का ये ट्रेलर देखिए पर भूलियेगा नहीं इसके 216 पन्ने पलटाने होंगे जिबह होने को. राष्ट्र अनावश्यक चीजों के पीछे भाग रहा तभी ये खीस चालीसा में दस कम समर्पित हो चुकी है सोसिअल वसुंधरा के यार दगडुओं को जिनने हर लाइक के साथ अपने खून के वेग का बीमा करा रक्खा. ससुरे ऐसे लीच कि उनके पढ़ने लिखने वाले तंतु तो गर्मी के गेंदे की तरह लुल्ल पड़ गये कम्बख्त. अब प्लास्टिक से रचे फूलों को तक रहे.दो लाइन पढ़ने पर इनका सर चकराता है और रील तो खाते हगते देखने का हुनर.

प्रिय अभिषेक की किताब ‘पावती कौन देगा‘ आप इस लिंक से मंगा सकते हैं

सबसे पहले “अरुण यह मधुमय देश हमारा” पढ़ते ही हमें तो विधान सभा में दी गई गाली और कइयों के खून खौल जानेवाला इपिसोड याद हो आया. प्रिय बता रहे कि ये अरुण कौन है जरूर किसी मंत्री उद्योगपति का बेटा होगा या साला. मैं अपनी भूली याददास्त से अंदाज लगा रहा कि ये उस रिसोर्ट का मालिक तो नहीं जिस पर एक नव यौवना की आत्मा के हरण के आरोप लगे. प्रिय लिख भी दे रहे कि,’ गोपियाँ ठगी गईं हैं तो पक्का है कि वह जनता है. संभव है कि उन गोपियों ने मिल कर कोई दुग्ध संघ बनाया हो…” सुना गया कि ऐसे एक मठाधीश तो कारागार में अस्वस्थ पड़े हैं, “है ना भक्तिकाल की रचनाओं का छायावादी मूल्यांकन?”अरे इस तुक को पहाड़ के नये ओ सी सी और कड़क भूमि कानून से मत जोड़ बैठना. और ना ही उस खबर से जिसमें पेड़ उगाने वाले करोड़ करोड़ रुपे से स्मार्टफोन कूलर टी वी, ऐ सी खरीद बैठने की कॉमेडी कर गए प्रजापति.

“कल दुकान बंद रहेगी”. अगला फ़ुस्सी बम है,”दो अक्टूबर पर गाँधी जी की याद में.” सो लपक के आज ही इंतजाम कर लिया “कह वह चलते बने और याद दिला गए कि बापू वाकई ब्रेकेट के भीतर हैं.

साल दर साल गुलजार रहने वाली रेलमपेल से भरी नैनीताल वाली पर्यटक नगरी की याद कीजिये जहाँ रोड-टैक्सी स्टैंड आते ही बापू की चलती मूरत है जिसके अहाते में धरना अनशन भी होते रहे. अब जगह तंग हुई सो प्रशासन की सुमति कि उसने ऐलान किया कि ये मूरत कहीं और ट्रांसप्लांट कर दें ताकि भीड़ के रेले की तरह ठूंस गए पर्यटक आराम से झील की मछलियां तो गिन सकें जो कम बरखा से सूख रही बेचारी. अरे कैसे हटेगी मूरत और क्योंकर टूटेगा अंग्रेजों वाला पोस्टऑफिस कह गिने चुने चट्टे-बट्टे बैठ गए धरने पे. कुछ समय शासन देखता रहा फिर उसने पुरानी मूरत के आगे चरखा कातती एक दूसरी प्रतिमा लगाने का ऐलान कर दिया. लो, इसे बोलते नहल पर दहल.

 प्रिय की रचना ‘नये राष्ट्र पापा’ का उन्वान भी यहीं से है. लिखते हैं “लो भई अब बापू न हुए बस की सीट हुए, सब अपने विचारों का रुमाल रख रहे”.

आगे प्रिय जो तुमने ‘नवीन कविता रहस्यम’ लिखा है उसके बादल फाड़ने का असाध्य रोग तो हमारे ग्रह की सरस्वती को रिटायरमेंट के तुरत बाद ऐसा लगा कि कितने रजिस्टर रंग गए. बोल-बोल नये स्मार्टफोन कविता छापने लगे.देशी छोड़ दुबई कनाडा माल्टा चिली सुरिनाम तक की इंटरनेशनल महिला कवि नेत्रियों के विश्व स्तरीय अभिनंदन पत्रों से एशियन पेंट की गई दीवारें ढक गईं. चौका बुहारी, धोबी पहाड़ और खानदानी खानसमा का तमगा जनम भर हम ढ़ोते ही रहे अब उनकी किताबों के विमोचन की मुंशीगिरी के दायित्व धारी भी बन गए.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

भला हो तुम्हारा कि इस सीमांत प्रदेश में रहते यॉरसा गुम्बा की जड़ के पीएच को बूढ़े साधु के घोल में द्रवित कर भी कोई रति कुमारी नहीं दिखी जिससे होली का मदन उत्सव मनता. इसे पढ़ते तो रेखा प्राणप्यारी के साथ तब का चिकना शेखर सुमन बरबस याद आता जिसके भोंदू हो गये बदन की नुमाइश कई कई उम्रदराज नायिकाओं के पार्श्व में उस नामी धामी निर्देशक ने कर दी जो अपनी फिल्मों में संगीत भी उम्दा बजा लेते हैं. फिर जैसे छुन्नू लाल जी मशाने की होली पेश करते हैं हमारे दौर में चीकट काली होली भी होती थी. आज के उन थोबड़ों में कहाँ वो माटी गोबर और टॉर्च के सैल के मेक ओवर वाली ताब जो हमने जवानी के दिनों में सोर घाटी की होली में पायी थी. काली होली के जश्न को मनाते हर चौथा घर फ़ौजी भाई का पड़ता था जिसके काले ट्रंक का सबको इंतज़ार रहता था. रंग ग़ुलाल सजा बड़ी चतुराई से प्रिय ढेर पर बैठी प्रॉब्लम का निवारण कृत्रिम बुद्धिमत्ता से दे “बात सन 2050 की” में सामाजिक स्तरीकरण की चीर सजाते हैं तो “पूंजीपुर स्टेशन पर क्रांति एक्सप्रेस” से कल्चरल रेवोलुशन की चिंगारी सुलग उठती है .

अब आता है टाइटल “पावती को दैगौ?”जैसे यमराज पूछ रहे कौन चलेगो मेरे साथ? गुरू गोविन्द सिंह पूछ रहे हों कौन करेगा शीश आगे?

“जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो ” वो देगा पावती.

“संबंधों की डंडी पर प्रेम की चम्मच बांधते, उन पर बातों का कपूर रखते और स्वाहा बोल आहुति दे देते वह”. यह “ॐ अग्नये स्वाहा का टीज़र है.

प्रिय बांचते हैं वह उत्तर-आधुनिक लोककथा भी जो शेर और गधे के बीच मजदूरी करने सपरिवार दिल्ली प्रवास कर गये मजूर के घर पर रखे आसव को शेर द्वारा अनिच्छा से चख देने से शुरू होती है. अब जो असली शेर है उसका नाम भी उन्होंने गधा रख छोड़ा है. यहां से कार्य कारण से जुड़ी कई घटनाएं उभरती हैं जिनकी तुक शेर का गधे में परिवर्तन होने वाले मूल्य से है. श्रम को पूंजी और पूंजी को श्रम की जरुरत से है. कार्यालय और घर में शेर और गधा बनने की प्रोबेबिलिटी से है. क्रांति की विफलता और मुआवजे में मिल रहे आसव से है जो असली वनराज गधा चट कर गया.

आगे नमूदार हैं शिथिल, क्लान्त कवि जिसकी दुविधा यह कि गुरु घंटाल समूह ने उसे पुरस्कार दे दिया है बाल कवि वाला. अपमान घोर अपमान से आहत वह थाने पहुँच जाता है दरोगाजी को रपट लिखाने.

प्रिय की कलम ऐसी बांकी है कि वह हर मौके पर नाजुक धागा पकड़ अपनी गिद्ध दृष्टि गढ़ा वारे-न्यारे करने से नहीं चूकती. रेल का सफर हो और लोवर बर्थ मिलने का मौका तो चौका इस बात पर कि कौन सा बीमार सब पर हावी है. ठेकेदार को बड़े साब की अटेची कैसे खुले का राज कैसे समझ आया और कैसे ये अटेची जात औकाद तय करती इसका बारीक तन्तु “थ्योरी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेटिव कॉन्ट्रैक्ट” में है.”वे व्यंग लेखक थे “तब तक हँस मुस्काएं जब तक दूसरे का व्यंग्य न देखें”.

“पटवारी साथ हो तो”, एक राजा के अपने तीन सुयोग्य पुत्रों के बीच उत्तराधिकारी चुनने की आर्थिक कथा है जिसमें शासन में पटवारी की जड़ों के सघन होने की रोचक पटकथा का समावेश है. अगली पायदान पर हर विषय पर कविता प्रस्तुत करने वाले कवि और आलोचक के रिश्तों की पड़ताल. टी वी की छतरी यानी एंटेना ने समूची ग्राम व्यवस्था को कैसे बदला इसे ह्रदयंगम करने के लिए आपको “उसकी अदा निराली थी” का पारायण करना होगा. मौत के बाद सिलसिले से क्या कुछ घट सकता है की बानगी “बड़े अच्छे आदमी थे ” में अभिव्यक्त है. व्यंग्यकार को अपनी घसीट के लिए कितने घूरे टापने पड़ते हैं इस गंभीर समस्या को समझने के लिए “व्यंग विषय” रची गयी है.यदि आप कविता से लगाव रखते हैं तो “साहित्य के सौंदर्य शास्त्र” में उसके शिल्प, ध्वन्यात्मक प्रभाव का अवलोकन करें.
(Paavati Kaun Dega Book Review)

पुरस्कार के भूखों से भरा जगत है यह. इसे हथियाने गुंडे भी पीछे पड़ते हैं तो सेठ जी बंगले में प्रतीक्षारत भी. लेखक बिचारा चिरकुट बना अपना आक्रोश व्यक्त करता है, “पुरस्कार के लिए नहीं लिखता मैं. मुझे इस गंदगी से अलग रखो, समझे!एक एक को सबक सिखा दूंगा मैं!”

पन्ने पलटते जाइये आगे आपको देश की सड़क पर इठलाते वाहन और उनकी पड़ताल को नियुक्त वर्दीधारी मिलेंगे जिनके द्वन्दात्मक राग की थाह अथाह है. “वीर भोग्या वसुंधरा” में शर्माजी के साथ इंद्र भगवान भी हैं तो कई टीपों में उल्लेखित भोगी लाल भी. सूचना के अधिकार की प्रचंड वेदना से आप झटक भी सकते हैं. हालांकि आपको झुलसा देने का इरादा वह स्पष्ट नहीं करते. “पूरे लेखकों के अधूरे सपने हैं” जिनमें उन्हें पद्मश्री मिलती है अब मुंगेरी लाल के हसीन सपनों की तरह वह चौतरफा डोल रहे. सरकार उन्हें गिरफ्तार कर रही. उनकी फांसी पर दुनिया रो रही. पद्म विभूषण भी पाते हैं. उनकी किताब की पच्चिस करोड़ प्रतियाँ छप कर बिक गईं. उनके लेखन से अभिभूत कन्या उनसे प्यार कर बैठी तो महिलाऐं प्रणय निवेदन. अब तो उनके लेख से लोकसभा में हंगामा हो जाता है. राज्य सभा की सदस्यता मिलती है. आखिर वह मानव संसाधन मंत्री बन जाते हैं. साहित्य का नोबल भी मिलता है और भारत रत्न भी. सरकार प्रिय विश्वविद्यालय की स्थापना करती है. जिस ऊंचाई पर रघुवीर यादव पहुंचे उससे आगे प्रिय को ले जाने की सोच बालाजी फ़िल्म ने उपजा ली है . शोभा व एकता एग्रीमेंट लिख चुके हैं बल.प्रिय की अनवार भी देवेंन वर्मा से मिलती जुलती है सो रिपीट करने में जोखिम भी नहीं और बगावती तेवर वह उत्पल दत्त की तरह पेश करने में माहिर हैं ही. अभी पहली सीढ़ी में हुए लेखक ही.

“मिच्छामि दुक्कड़म” में आर्यावर्त के लोगों को एक ऋषि के श्राप प्रभाव से लगातार लेखन का श्राप मिला, फलस्वरूप “हमने पत्थरों पर लिखा, भित्तियों पर लिखा, भोज पत्रों पर लिखा, कागज पर लिखा अब स्क्रीन पर लिख रहे. संविधान रच दिया, पंचशील लिख दिया. शिमला समझौता लिख दिया, दिल न माना तो लाहौर समझौता भी लिख दिया. चाहते तो आगरा समझौता भी थे पर पडोसी तैयार न हुए.” आगे घोषणा पत्र लिखे गए श्वेत पत्र लिखे गए. जो चाहे लिख के दे दो पर ये कहाँ लिखा कि जो लिख कर दिया है हम उसका पालन करेंगे.

लिख भी रहे हैं तो गलत. जिसे हम बुद्धिजीवी कहते हैं वह वाकई में बुद्धिजीभी है. इस रोचक वृतांत के मजे आप “यह तो असाध्य रोग हो गया” में लें. बुद्धिजिव्ही यदि लगातार बढ़े और उनसे पीड़ित भी तो परिश्रम करने वाला राज्य में कौन बचेगा? प्रश्न यह भी कि लोग बुध्दि जिव्ही होते ही व्यवसाय विमुख क्यों हो जाते? मात्र राजकीय सेवा के आकांक्षी क्यों रहते? ये राजधानी में ही रह अधिक कार्यकुशल होने का दावा क्यों करते? पृथक संस्थाओं, अकादमी की स्थापना क्यों करते?

सभी की अपनी चुनौतियाँ हैं और अपने संघर्ष. अब ये बात एक शादीशुदा मर्द ही समझ सकता है कि नहाते हुए पत्नी से तौलिया मांगना कितना बड़ा संघर्ष है. ये तो भारत के विश्व बैंक से उधार मांगने जैसा मामला है. अब किसानों का खेत में खटना मजूरों का झुग्गी में रहना हमेशा बीमार रहना, शायर कवि का मुफलिसी में जीना कोई संघर्ष थोड़ी हुआ. लोम हर्षक स्ट्रगल तो करती हैं नवोदित अभिनेत्रियां, बड़े नेता का भावी सांसद सुपुत्र. फिर जनवादी संघर्ष है जो ब्राह्मणों से ग्लैमर पाया – द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, चटर्जी, बनर्जी, मुखर्जी तो असल वामपंथी रहे भारद्वाज ऋषि इसीलिए इस गोत्र में जनवादी प्रगतिशील विचारों हेतु संघर्ष किया.

प्रस्तावना में ही साफ-साफ जता गए हैं प्रिय कि पहले क्या नहीं लिखा गया क्या उपेक्षित रहा उसे धीरे से घुसेड़ दिया जायेगा. जो भी गलतियाँ हों उन्हें प्रयोग समझा जाए. आखिर समाज पर उपकार करने के लिए उन्होंने ये सब रचा पर उस मृगनयनी का विवरण रहस्य ही रखा जिसने कहा था, “तुम्हारी किताब के बिना मैं जी ही नहीं सकती (उसने ये भी कहा था कि मैं अपनी गोदी में तुम्हारी किताब देखना चाहती हूँ )”

मेरी राय तो ये है कि झपट कर आप उसकी गोदी से ये किताब लपक लें. सनद रहे अनबाउंड स्क्रिप्ट ने युवान बुक्स के झंडे तले इसकी थोक आपूर्ति कर डाली है.

भूल-चूक तो लेनी देनी हुई फिर. आंगन में कभी तख्त पर बैठ, कभी झुरमुट में जा फिर कुर्सी पर बैठ इसे पढ़ जो हिचकोले खाये हँसा मुस्काया तो पड़ोसी ने श्रीमती जी को फोन कर डाला. एम्बुलेंस बुलाएं क्या? ये कैसी हरकत कर रहे?

श्रीमती जी दुगुन वेग से बोलीं, “अजी,ना तो ये आलोचक हुए न कोई पुरस्कार पाए लेखक. अभी अमेजन वाला पावती दे गया था. उसी की रगड़ घिस कर रहे कॉमन मैन की तरह “
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प्रिय अभिषेक की किताब ‘पावती कौन देगा‘ आप इस लिंक से मंगा सकते हैं : पावती कौन देगा

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : कलबिष्ट : खसिया कुलदेवता

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इन दिनों उत्तराखंड के मिनी स्विट्जरलैंड कौसानी की शांत वादियां शराब की सरकारी दुकान खोलने…

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वीर गढ़ू सुम्याल और सती सरू कुमैण की गाथा

कहानी शुरू होती है बहुत पुराने जमाने से, जब रुद्र राउत मल्ली खिमसारी का थोकदार…

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