फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन – 1

जिस तरह पुराने हीरो अब हीरो नहीं रहे, एक दम ज़ीरो हो गए हैं या दादा-नाना बनकर खंखार रहे हैं, उसी तरह अपने शहर के दो सिनेमाघरों में भी एक वीरान पड़ा है तो दूसरा मॉल बन गया है. अपने को पुराने अभिनेताओं से भला क्या हमदर्दी? मगर उनके छायाचित्रों की क्रीड़ास्थली सिनेमाघरों की हालत पर खुल्लम-खुल्ला अफ़सोस है क्योंकि उनके साथ कई यादें वाबस्ता हैं.

सिनेमा हॉल में पहली बार मेरा पदार्पण यही कोई १२-१४ वर्ष की उम्र में हुआ होगा. ज़िन्दगी में जो पहली फ़िल्म देखी थी उसका नाम था – गरम खून. फिर धीरे-धीरे सिलसिला चल पड़ा और लत सी लग गई जो सिनेमा हॉल बन्द होने तक लगी ही रही.

क्या-क्या जतन करते थे सिनेमा देखने के लिए. चोरी, ठगी से लेकर कबाड़ बीनने तक. एक बार तो हद कर दी – हमारे लिए कोई हद वाली बात इसमें नहीं, सुनने वालों के लिए हो तो हो – हम दो-तीन दोस्त यूं ही टहल रहे थे. इत्तफ़ाक़न सिनेमा हॉल कके आसपास और इत्तफ़ाक़न ही पिक्चर का पहला शो शुरू होने वाला था. अब यह भी संयोग ही था कि एक कुष्ठ पीड़ित महिला वहीं सड़क पर अपना डब्बा लिए बैठी थी. हमें उसका मांगने का अन्दाज़ पसन्द था. वह एक स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ बातें किया करती, जिसमें दीन-हीनता न के बराबर हुआ करती थी. उसे सिर्फ़ आपके सिक्कों में दिलचस्पी नहीं थी. वह लोगों से घर के हालचाल, स्वास्थ्य वगैरह भी पूछती थी. एक तरह का ममत्व था उसमें. बस इसी नाते हमारा उससे परिचय था. उस दिन भी उसने हमें पुकारा. मैंने कह दिया कि आज तो हमारे पास कुछ नहीं है. हो सके तो तुम हमें कुछ दे दो. उसने कहा – लला, मैंने तो ज़िन्दगी भर मांगा ही मांगा, भाग ही ऐसे ठहरे. दिया किसी को नहीं. आज मौक़ा है, बोलो कितने दूं …. उसने बोरे की तहें टटोलना शुरू किया. हमने तीन लोगों के सिनेमा और चाय के पैसे ले लिए इस शर्त पर कि दो-तीन दिन में वापस कर देंगे कुछ बढ़ा के.

एक दिन मेरा एक दोस्त और मैं पिक्चर के ही जुगाड़ में चार-छः पव्वे-अद्धे लिए कबाड़ी के पास जा रहे थे. रास्ते में एक जगह टेलीफ़ोन के खम्भे पर मैकेनिक चढ़ा बैठा था और समस्या के समाधान में बुरी तरह उलझा हुआ था. मेरे दोस्त ने नीचे पड़ी उसकी प्लास्टिक की चप्पलें झोले में डाल लीं. गर्मियों के दिन थे. कबाड़ी को दुकान में बैठे-बैठे झपकी आ गई थी. उस माई के लाल ने कबाड़ी के माल से भी दो-तीन पव्वे झोले में रखे तब कबाड़ी को जगाया. अफ़सोस कि ऐसी प्रचंड प्रतिभा का धनी वह किशोर उचित वातावरण न मिल पाने के कारण आगे चल कर कोई नामी चोर नहीं बन पाया. वर्ना मन्त्री न सही मन्त्री की नाक का बाल तो तब भी होता.
घर से भेजा जाता कि पांच लीटर मिट्टी का तेल ले आओ. तेल साढ़े चार ही लीटर लाया जाता. ढाई रूपये की बचत – पिक्चर का जुगाड. सबसे सस्ती क्लास का टिकट और मध्यांतर में चार आने की चीज़. उन्हीं दिनों एक तथाकथित अनुभवी ने बताया कि पिक्चर दूर से अच्छी दिखती है और रामलीला नज़दीक से. पर दूर यानी बालकनी से देखते कैसे? वह तो हमारे लिए दिल्ली से भी ज्यादा दूर थी. छुटभय्ये राजनेता के लिए जिस तरह विधानसभा संसद होती है वैसी ही हमारे लिए बालकनी और सेकेण्ड क्लास थे. यह दूर-नज़दीक वाली तो उसकी बात खैर ठीक थी, मगर इसके साथ ही उसने एक बड़ी जोर की गप्प हांकी जो उस वक़्त हमारी कनपटियों में खून बजा देने के लिए काफी थी. गप सुनिए – बाथरूम में मुसलमान औरतें नंगी होकर नहाती हैं. उस वक़्त दिमाग ने नंगी शब्द के अलावा कुछ नहीं सोचा.

एक बार पिताजी ने किएसी बात पर नाराज़ होकर पहले तो मुझे पीटा फिर मेरी कापी-किताबें और लत्ते-कपडे आंगन में फेंक दी कि जा निकल जा घर से. उस सामान में मेरा मिट्टी का गुल्लक भी था, जिसने आँगन को सिक्कों से पाट दिया. प्राथमिकता के आधार पर मैंने सिक्के बीने. सिक्कों ने मुठ्ठियाँ तानकर बावाज-ए-बुलंद कहा – हम एक हैं और कुल जमा छः रुपए हैं. उस समय इतने हीरे-जवाहरात. मैं किस मुगल वली अहद से कम था? निकल गया घर से. जाकर एक दूकान में फुल प्लेट छोले के साथ दो बन खाकर चाय पी. फटीचर क्लास का टिकट लेकर पिक्चर देखी और हाफ टाइम में भी कुछ खाया. मौजां ही मौजां.

एक दिन क्लास के कुछ लड़के हेड मास्साब से इसलिए पिट रहे थे कि वे पिछले दिन स्कूल न आकर पिक्चर चले गए थे. बात न जाने कैसे लीक हो गयी. लड़कों ने हालांकि काफी बचाव किया. किसी ने कहा कि मास्साब मेरे घर में पूजा थी इसलिए नहीं आया. दूसरे ने कहा – मैं जीजाजी के साथ चितई गया था. एक ने कहा – मेरी ईजा को छूत हो गयी थी मुझे खाना पकाने में देर हो गयी थी. मास्साब पर कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने सुताई जारी रखी – सालो घर से आते हो स्कूल और जाते हो पिक्चर. पिक्चर देख के बनेगा तेरा भविष्य? अच्छा बताओ कौन सी पिक्चर देखी? बता रे तू बता? एक ने बक दिया – जी, सुहागन. बगल में ही प्राइमरी स्कूक की अध्यापिकाएं थीं. मास्साब उनमें से ज़्यादातर से खार खाए रहते थे. एक अध्यापिका से खासकर जो उम्र हो जाने के बावजूद अविवाहित थी. मास्साब के मुताबिक उनके चिडचिडेपन का कारण अविवाहित होना था. अच्छा मौका था उदगार व्यक्त करने का. आए-हाए सुहागन. किसे कहते हैं सुहागन जानते हो, किसी होती है? ऐसे ही हो जाते हैं सुहागन, इतनी अकड के साथ. शादी बाप नहीं करता, गुस्सा और नखरा हमसे. टांग तोड़ दूंगा सालो जो फिर स्कूल से भाग कर पिक्चर गए तो.

(जारी)

(अगली क़िस्त)

शंभू राणा शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.

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