लो, अपनी पृथ्वी ने एक और चक्कर पूरा कर लिया है. वैसे ये चक्कर साल के किसी भी दिन पूरा हो सकता है. पर गिनने की आदत पहली जनवरी से हो गयी है तो लगता है कि पिछली रात के ठीक 12 बजे ही ये चक्कर पूरा हुआ है. पृथ्वी के चक्करों के बारे में सोचते-सोचते कभी-कभी तो चक्कर आने लगते हैं. शुक्र है कि हम बीसवीं सदी में पैदा हुए नही तो इसी बात पर उलझे रहते कि कि चक्कर कौन लगा रहा है और कौन केन्द्र में सत्ता की स्थिर कुर्सी पर बैठा है. गैलीलियो तुम्हें हम सलाम करते हैं. तुम इस पृथ्वी के चक्कर में शहीद हो गये. अपने देश की सीमा पर नहीं इस पृथ्वी के ज्ञान-विज्ञान की सीमा पर. पिछली रात जब करोड़ों कदम लड़खड़ा रहे थे तब पृथ्वी और उसकी बहिनों की चाल को नियमों में बाँधने वाले कैपलर और काॅपरनिकस भी बहुत याद आ रहे थे. अपने आर्यभट्ट, वराहमिहिर और भास्कर भी याद आए जो बाँस की नली से आसमान में झांक-झांक कर जाने कितनी गुत्थियां सुलझा गए. New year Old Revolution Devesh Joshi
अंतरिक्ष में लटकी-घूमती लाखों गेंदों में से एक है हमारी पृथ्वी. हर गेंद की अपनी गति है और अपनी दिशा. हर गेंद के पास अपने-अपने खजाने हैं. पर जिंदगी का खजाना फिलवक्त सिर्फ हमारी पृथ्वी के पास है. किसके इशारे पर घूम रही हैं ये सब. एक-दूसरे को थामे हुए भी और एक-दूसरे से बचते हुए भी. New year Old Revolution Devesh Joshi
पृथ्वी के चक्कर में ही हमारे सुख छिपे हुए हैं. ये न चक्कर लगाए तो न दिन होता और न रात. न गर्मी न सर्दी, बसंत और पतझड़ भी नहीं. फिर जलचक्र भी न होता. बादल भी नहीं और बर्फ भी नहीं. पहाड़ भी नहीं और समन्दर भी नहीं. फिर शायद जीवन भी नहीं होता और हम भी नहीं. वक्त ठहर-सा जाता. फिर साल ही न होता तो कैसा नया और कैसा पुराना.
शुक्र अदा करने का जी करता है उसका जिसने हमारी पृथ्वी और उसकी बहिनों को चक्कर लगाना सिखाया. अनवरत बिना वेतनवृद्धि लिए और बिना सेवानिवृत्ति की कामना के. हम नश्वर हैं पृथ्वी शास्वत. इस पृथ्वी को मांधाता ने भी भोगा, राम ने भी और युधिष्ठिर ने भी, वक्त के साथ सब चले गए, पृथ्वी किसी के साथ गयी नहीं, ऐसा भोज ने तलवार हाथ में लिए मुंज को समझाया था. सिकंदर, अशोक और अकबर जैसे प्रतापी सम्राट भी इसे ज्यों का त्यों छोड़ गए. लेशमात्र भी विचलित नहीं हुई ये अपनी धुरी से न ही अपनी कक्षा से.
पृथ्वी को अभी जीवनदान देना है अपनी बहिनों को. पृथ्वी को अभी बहुत ज्ञान देना है अपने पुत्रों को. पृथ्वी के गर्भ में अभी भी बहुत कुछ है. बहुत कुछ है इसके आसमान में. पृथ्वी के पास अपने वातावरण को थामे रहने की ताकत है जब तक, जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा इस पर. पृथ्वी के पास अपने सारे जीवधारियों की आवश्यकता के लिए पर्याप्त है पर लोभ के लिए ये शायद कम पड़ जाए. पृथ्वी के करोड़ों हैं पर करोड़ों की सिर्फ एक है पृथ्वी. New year Old Revolution Devesh Joshi
घनचक्करों ने पृथ्वी के चक्कर रोकने का सामान तैयार कर लिया है, इनके चक्करों से सजग रहने की जरूरत है. इन्होंने पृथ्वी की ओढ़नी में छेद कर दिए हैं और सीने में जख्म. हरियाला आँचल मटमैला कर दिया है और नीला पानी जहरीला. नए साल पर क्या लें हम संकल्प कि हम सलामत रखेंगे अपनी पृथ्वी को. और इस तरह अपनी सलामती भी.
पृथ्वी के चक्कर आने वाली पीढि़यों को शायद उतना न उलझायें जितने उलझे थे पुरखे. पर शर्त यही है कि पृथ्वी को चक्कर लगाते रहना होगा. धुरी पर भी और कक्षा में भी. चरैवेति, चरैवेति.
इक्कीसवीं सदी के नए-नवेले बीसवें साल (2020) की सभी को हार्दिक मंगलकामनाएँ. बीते साल और इस नए साल में बस उन्नीस-बीस का ही फर्क है. उसके 365 दिन थे इसके 366 हैं. ये एक दिन किस पर भारी पड़ेगा, ये जानने के लिए पृथ्वी के एक और चक्कर का इंतज़ार करना पड़ेगा. New year Old Revolution Devesh Joshi
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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