कुमाऊॅं (उत्तराखण्ड) में प्रचलित रामलीला सम्भवतः संसार का एक मात्र ऐसा गीत नाट्य है जो ग्यारह दिनों तक लगातार क्रमशः चलता है और जिसमें कई-कई बार बाजार का पूरा एक हिस्सा-पूरा इलाका ही मंच बन जाता है. मिसाल के तौर पर ‘‘राम बारात, खर-दूषण की बारात वाले सीन. खर-दूषण की सेना को बारात ही कहा जाता है यहां. इस संदर्भ में एक मुहावरा प्रचलित है- ‘खर-दूषपैकि जसि बरया’. मतलब-एक रूपता विहीन, अनुशासनहीन, नशे में धुत. अजीबोगरीब किस्म के लोगों का हुड़दंगी समूह.
इन्हीं उदाहरणों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस वृहद गीत-नाट्य (ओपेरा) में पात्रों/कलाकारों की संख्या कितनी अधिक होती होगी. लेकिन फिलहाल मैं रामलीला के इन पक्षों पर नहीं बल्कि रामलीला के बहाने अपने-अपने समय में जिन रचानाकारों / प्रयोगधर्मियों ने जो नये-नये प्रयोग किये उनमें से कुछेक का जिक्र करना चाहता हूं. चारेक बानगियॉं रखना चाहता हूँ – यह मानते हुवे कि रामलीला कुछ हद तक स्वयं का एक प्रयोग है.
दरअसल रामलीला का मंच स्थानीय प्रतिभाओं की अभिव्यक्ति का भी सशक्त माध्यम रहा है. इसलिए जहां – जहां भी रामलीलायें होती थीं और हाती हैं – उनमें से अधिकतर स्थानों में नये-नये प्रयोग होते रहे. वह चाहे हल्के स्तर के रहे हों या गंभीर. पर स्थानीय प्रतिभायें अपनी सामर्थ्य भर प्रयोग करती रहीं. कुछ प्रतिभायें तो अपने समय में इतनी चर्चित रहीं कि प्रदर्शन से लेकर प्रयोग तक कि उन्हें देखने दर्शकों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती थी. कुछ हद तक उदयशंकर जी की ‘शैडो रामलीला’ भी इसमें शामिल की जा सकती है. ज्योंकि वह कुमॉऊनी रामलीला कही नहीं जा सकती है. पर यहां की धरती में रामलीला को लेकर एक प्रयोग तो था ही जिसने स्थानीय रंगकर्मियों को प्रभावित किया.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आंदोलन से जुड़े लोगों ने भी इस मंच का सदुपयोग किया. बद्रेश्वर (अल्मोड़) की रामलीला का तो इस सिलसिले में उदाहरण ही दिया जाता. सीता-हरण वाले दृश्य में कार्यकर्ता साधूवेष धारण कर संघर्ष के लिये चंदा जमा करते थे- ‘‘एक चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गॉधी.’’
कमण्डलों में मिली भिक्षा (खिरची) को खुले आम मंच पर ही गिना जाता था, सिक्कों की अलग-अलग ढेरी लगाई जाती थी – पाई, पैसा, अदन्नी, इक्कनी, दुअन्नी आदि -आदि. यह प्रक्रिया अपने आप में एक आइटम हुआ करती थी. क्योंकि इसी बीच कोई एक साधू वेषधारी आंदोलनकारी प्रवचनों के बहाने दर्शकों को देश-विदेश के हाल-चाल सुनाते हुए संघर्ष का संदेश में भी दे जाता था – ऐसा बुजुर्ग बताते हैं.
‘राम’ का रामलीला का उपयोग वर्तमान में भी खूब हो रहा है. पर नीयत में राजनैतिक उद्देश्यों में धरती-आसमान का अंतर है. यद्यपि युग परिवर्तन के साथ-साथ विशेष रूप से टेलीविजनी-व्यापारिक दौर के बाद-रामलीलायें अपेक्षाकृत फीकी पड़ने लगी. लेकिन यह भी बहुत बड़ी सच्चाई है कि टी.वी. को अपने पांव जमाने के लिए, धन कमाने के लिए कुछ हद तक रामायण, महाभारत आदि-आदि का सहारा लेना पड़ा. आज भी ये सीरियल चल रहे हैं. इस सच्चाई को समझा और विश्लेषित किया जाना चाहिये और यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि हमारी पीढ़ी के बाद तक के रचानकारों / रंगकर्मियों को कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रामलीला ने स्पर्श अवश्य किया. इसी परिप्रेक्ष में मैं रामलीला के बहाने किये गये तीन-चार प्रयोगों की बात कर रहा हूं जिन्हें मैंने क्रमशः सुना, देखा और किया है.
सुने में, पहला जिक्र तो कर चुका हूं. अब दूसरा रानीखेत का – जिसकी जानकारी पूर्व में स्व. तारा दत्त सती जी से तथा वर्तमान में कविराज स्व. राम दत्त पंत जी के पुत्र भाष्कर पंत से मिली.
हिन्दी के सुपरिचित नाटककार, कथाकार, उपन्यासकार स्व. गोविन्द बल्लभ पंत जी ने रानीखेत में रामलीला के लिये ही ‘नारद-मोह’ और ‘लव-कुश’ नाटक लिखे. ये दोनों नाटक वहां खेले भी गये. नारद-मोह के प्रथम मंचन में नारद का अभिनय लेखन पन्त ने स्वंय किया था. यह दोनों नाटक उस समय की सर्वाधिक प्रचलित ‘पारसी थियेटर’ शैली में रचे गये हैं. बानगी देखिये-
कामदेवः यह कामदेव की काम कला जिसका हर दिल में निशाना है. यह लड्डू – मोहन भोग नहीं लोहे के चने चबाना है. यदि आज्ञा होये स्वामी की – मैं जीतूं तीनों लोकों को – मैं वश कर लाऊॅ शिव को भी नारद तो एक खिलौना है.
इसी अंदाज में रावण का गीत/छन्द/डायलॉग जो भी कहें –
वह इन्हीं भुजाओं का बल था जिसने ब्रह्माण्ड को हिला दिया. हिलवाया क्या कम्पाय दिया, सब वीरों को थर्राय दिया. मेरी तलवार के नीचे अब शत्रु किस तौर से दबते हैं – जो दबते हैं वो बचते हैं जो दबते नहीं वो कटते हैं.
गोविन्द बल्लभ पंत जी ने ‘नारद मोह’ और ‘लव-कुश’ ये दोनों नाटक ‘व्याकुल भारत थियेटर कम्पनी से बीमार होकर लौटने के बाद लगभग सन् 1928-30 के दरमियान रचे. इन्हें कविराज रामदत्त जी ने छापा भी. क्योंकि उन दिनों रानीखेत में वह प्रेस भी चलाते थे. पर वर्तमान में इन नाटकों की छपी हुई प्रति अप्राप्य है. संभवतः हस्तलिखित प्रति (मतलब कोई रजिस्टर) रानीखेत में उपलब्ध हो – ऐसा भास्कर पंत बताते हैं.
( जारी )
पुरवासी के 23वें अंक में गिरीश तिवाड़ी ‘ गिर्दा ‘ का लेख रामलीला और सामाजिक सरोकार.
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