प्रो. मृगेश पाण्डे

कोई बताए मेरे महबूब को, मेरे पास प्याज की दौलत है

बड़ा बेदर्द है ये कमबख्त प्याज. हर जगह से गायब और जहां कहीं नमूदार तो जेबों में सुराख करने पे उतर आया. ठंड का मौसम. मुंह से भाप झड़ रही है. बाहर फिज़ाओं में नन्ही नन्ही बुंदनियां तपक रही हैं. बस अलसाए रह बैठे ठाले कुछ हो जाए की आरज़ू मचल रही है. ऐसी समस्या का फौरी निदान है गर्मागरम पकोड़ी. जो पूर्ण रोजगार दिलाने में  प्रभावपूर्ण मांग पैदा करने का भी अचूक नुस्खा बताई जाती रही. जी हां पकोड़ी, जो सबसे आला दर्जे की बनती हैं निखालिस प्याज से प्याज में ही है वो तासीर जो आपको इग्यारा किस्म के फायदे पहुंचाता है, जिस्मानी भी रूहानी भी. ऐसे में सर्वगुण पकोड़ी हो तो बस प्याज की. चलो आलू को थोड़ी छूट मिल जाए पर और कुछ डालने की सोचें भी ना. हां पकोड़ी के जरिए किसी से बदला लेना हो तो बिना शक बेगन,करेला मिलाएं. नफरतें सब्र के पैमाने से बाहर छलक रही हों तो बेशक भिंडी की पकोड़ी खिलाएं. पर नवाब तो प्याज है. साहिब बहादुर है. रसोई की मेजिस्टी का मैजिक है. परतदार है. राजे उल्फत छुपा के रखता है पर काटने छीलने की गुस्ताख़ी में सरे आम कभी नयनों से असली सुच्चे बसरे के मोती लुड़काता है तो बाज वक़्त मेकअप पे अपने स्याह निशान छोड़ देने की हिमाकत भी कर बैठता है. अब परत दर परत बिछ जाए तो दो प्याजे की लज़ीज़ डिशों का फरमा बदार बन देसी मुगलई दरखसतानों की सौंधी खुशबू बिखेर देता है. बहुत नरमदिल है जहां चाहे दिल आशना कर लें. Article by Prof Mrigesh Pande

अपनी पाक नीयत के चलते प्याजी जमात के शायर भी अर्ज कर गए कि मोहब्बत भी रुसवा हुई प्याज के मानिंद जब कटी तो कर्ज आंखों ने चुका दिया. कवि क्यों पीछे रहें, प्याज के विरह में  वह भी लिख गया, “मुर्गा दारू है सुलभ, दुर्लभ रोटी प्याज. प्याज बना इस दौर का महराजाधिराज. “तो बस इसके पतले मोटे छल्ले राजधानी बेसन में बिन पानी मिलाएं जाते रहे फिर दही के साथ नमक मिर्च डाल खूब गूंथे भी गए. अब चाहे कोल्हू में पिरा गांधी आश्रम हो या अदानी का फॉर्च्यून या फिर पी ब्रांड कड़ुआ तेल पंजाब वाला. डालना तो कढ़ाई में ही है. नरम हाथों से मंद आंच पे सब्र के साथ इन्हें  एक सी फितरत में उतारा जाए. हल्दी की रंगत सुनहरे भूरे होने के इंतजार तक तला जाए. दिल्ली के मास्क अगर नाक मुख पे कसे हैं तो उतार लिए जाएं. इसमें पड़ी हरी मिर्च की सी सी गरमागरम चाय के साथ साझी सरकार  सी झनझन जगाती है तो खुश्क सर्द फिज़ाओं में गुनगुने पानी का शगुन बूढ़े साधु के साथ इसका अधिकतम सामाजिक लाभ देता है. अपनी अपनी हैसियत से उसका इंतजाम अलग मुद्दा है. याद रहे कि सिर्फ खा देना तो भकोसना कहलाता है. आप खुश्बू पे भी गौर फरमाएं. प्याज के ज़र्रे जर्रे की अहमियत जानें. पर्यावरण प्रेम छलकाने के लिए थोड़ी कसूरी मेथी हरी धनिया डाल ही रखी है आपने. अब तलने पे सब्र. आंच का खयाल. देखिए कैसे धीमे से कढ़ाई के तले को जुदाई दे उप्पर को उभरती है. यहीं है पकोड़ी. हां जनाब निखालिस प्याज की. जो कमबख्त बड़ी महंगी हो चली है. अब जहां जहां ये पड़ेगा तोहमत का शिकार बनेगा कि मंहगाई बढ़ा दी नासपीटे ने.

इसके रंग बदलते जा रहे. सुर्ख होते जा रहे. हल्दी जैसी पीली पड़ी रंगत जो आजकल की इकोनॉमी जैसी  बताई जा रही. अब सुनहरी बादामी होने का  जतन करने लगी  है. शेयर बाज़ार की तरह जंप मार ऊपर सतह पे ठाठ मारती है. लोग भूल जाते हैं कि सुस्ती का दौर है. प्याज की तासीर ही ऐसी है गरमा  देती है हर खासो आम को. पर सवाल तो इसकी कीमत का है. जिसे तय करने के लिए मंत्रालयों की स्पैशल मीटिंग बिठाई जा रही निगहबानी – निगरानी के लिए. पांच मंत्रियों की समिति ने काम भी शुरू कर दिया है. मामला इस कदर सीरियस है कि गृह मंत्री की अगुवाई में दूसरी बैठक बैठने वाली है. एक्सपोर्ट पर रोक और इंपोर्ट  को तवज्जो दी जा रही . उप्पर बैठे लोग झुर्र झस्स की गिरफ्त में आ  गए हैं. 1980 का इतिहास याद कर रहे हैं. इसी कमबख्त बेगेरत पियाज़ ने चुनावी मुद्दे की कुकुर बिलावी शुरू की थी. ग्रेट लेडी तक चुनाव प्रचार के दौरान जम्हूरियत में प्याज के दाम की तलवार ले जंग में कूच कर गईं थीं. बहुतों को रुलाया था. खूब आंसू बरसे थे. हुक्मरानों का उलटफेर यहीं कमबख्त कर गया था.

शाहे तख्त तो 1998 में भी डावांडोल हुआ था बंदापरवर. अब फिर ये मिट्टी पलीद  करने पे तुल आया. देश में पैदावार भी सबसे ज्यादा राजस्थान, कर्नाटक,  मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में होती है नासपीटे की. जहां अलग ही शोरबा पक रहा. बर्तन तो एक ही है जिंस कुछ खड़ी साबुत, कुछ दली और कुछ धुली. जहां तक रकबे की बात है तो पिछले दस सालों में यह त्रेपन फी सदी बढ़ा बताया गया तो पैदावार सत्तर फी सदी उछली. 2008 में पैदावार 15 मिलियन टन थी जो 2019 तक 1500 मिलियन टन को छू नहीं पाई. इसकी आवक मई महीने में सबसे ज्यादा होती है जिसके बाद इसका स्टोरेज शुरू हो जाता है. असल खेल तब से ही शुरू हो जाते हैं. उतार चढ़ाव दिखाई देते  हैं हर बरस. पर  2010 में प्याज की राजधानी नासिक में जब बहुत बारिश हुई तो आवक औंधे मुंह  गिरी. मनमोहना ने तुरंत निर्यात पे रोक लगाई,इंपोर्ट टैक्स धटा दिया और सरहद पार पाक से मंगाया. फिर 2013 और 2015 में प्याज के भाव खूब बढ़े,दिल्ली की आजादपुर मंडी में अस्सी रूपए किलोग्राम हो गए. अब नवंबर 2019 में थोकदाम 55 से 60 रुपए था तो फुटकर में 100 रुपए को छू ग या. वहीं महाराष्ट्र के लासल गांव में सुना प्याज 26 रुपए थोक चल रही जबकि सितम्बर में इसका भाव 51 रुपए किलोग्राम था. राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी एन ए च आर डी एफ के अनुसार प्याज की इसी सबसे बड़ी मंडी से भाव तय होते हैं. प्याज का अधिकतम भाव 30 रुपए व न्यूनतम 15 रूपए तयशुदा है. अब घरेलू बाज़ार में असल भाव मंडी टैक्स,  कमीशन एजेंट की फीस और निर्यात सौदे पर निर्भर करता है.

अब यहां अगर कोई घालमेल हैं तो इनकी चीरफाड़ भी उसी तर्ज पर होती है. प्याज की खानदानी परंपरा रही कि जब भी यह कटे तो कर्ज आंखों को चुकाना पड़े. कालाबाजारी जमाखोरी के सितम तो हर जिंस पर हैं जनाब. ज्यादा और कुछ नहीं बस यह याद रखिए कि इस साल  भारी बारिश से महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में प्याज की फसल चौपट हो गई. उत्तरप्रदेश,बिहार कुछ खास उखाड़ नहीं पाया. भारी आवक बस राजस्थान से हुई. अब यहां कुछ सियासी अंदाजे हों इसका कोई प्रूफ तो जुटता नहीं. बस पासवान साब फरमाते हैं कि मानसून देर से आया. पच्चीस फ़ी सदी प्याज की कम बुवाई हुई. वैसे सरकार प्याज की काला बाजारी वा जमाखोरी पर सख्त कार्यवाही कर इसके स्टॉक की लिमिट भी बांध ही रही है. खुदरा व्यापारी 100 क्विंटल तक और थोक व्यापारी 500 क्विंटल तक भंडारण कर सकते हैं. वहीं दिल्ली के आका केजरीवाल कह रहे कि केंद्रीय सरकार उन्हें प्याज दे ही नहीं रहीं जिससे वह आम जनता को राहत दर पर प्याज नहीं बांट पा रहे. वहीं मनोज तिवारी जी का कयास है कि केजरीवाल दिल्ली में एयर प्यूरी फायर की हवा सूंघ रहे तो दिल्ली की जनता भारी प्रदूषण के बीच सौ रुपए किलो का प्याज खा रही. अब एक प्याजी कवि भी दोहा सुना रहे कि, “दाल बराबर धन नहीं प्याज बराबर जेब. क्यों गरीब से कर रही किस्मत आज फरेब “.

अब सरकार चाहे तो धान, गेहूं और दलहनों की तरह ही प्याज का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर सकती है. नुक्ताचीनी यह कि प्याज ही क्यों ?तो बरखुरदर इसलिए कि इसमें जायके और शोरबे को लज्जत बख्शने का हुनर है तो सियासत को हिला देने का दम भी. इसलिए तमाम किस्म की कोशिशें की जा रही हैं. सरकार की ओर से आयातित प्याज में धूम्र उपचार से संबंधित नियमों में ढील की समय सीमा को भी साल के आखिरी दिन यानी 31 दिसंबर तक बढ़ा दिया गया है जिससे आयात में कोई रुकावटें अड़चनें ना आएं. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की एजेंसियों के जरिए प्याज आयात की छूट है. निजी कारोबारियों ने भी आयात का ऑर्डर दिया है सो एक हजार टन प्याज देश के भीतर आ जाएगी. सरकारी स्वामित्व वाली एम् एम् टी सी के जरिए भी एक लाख टन आयात करने का फैसला हो चुका  है. इसके द्वारा 4000 टन प्याज के आयात के लिए बोलियां भी आमंत्रित कर ली गई है. अफगानिस्तान से 7 ट्रक प्याज लाए. अभी 27 नवंबर को मिस्र से 1500 टन आवक हुई. सरकार ने भी कमर कस ली है. Article by Prof Mrigesh Pande

अब जब तक कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता तब तक प्याज के ऐबों को दिमाग में रखिए. इसे ज्यादा खाने से सीने में जलन होती है. जी हां जनाब इसमें पोटेसियम होता है. जो कार्डी पोलीवर सिस्टम को नुक्सान पहुंचाता है. इसमें फेक्टोज ग्लूकोज भी तलाशे गए हैं जिनसे सुगर बढ़ती है. फाइबर ज्यादा है जिससे कब्ज और पेट दर्द अलग. खाने के साथ ज्यादा मिकदार में ले लो तो खाना पचता नहीं बस गैस बनती है. वैसे ही सांस लेना हराम हो रहा फिज़ाओं में. मुंह से बास अलग आती है.

कश्मीर वाले कोका पंडित कह गए कि एक हाथ में प्याज की गांठ तो दूसरे हाथ में उस्तरा थामे रखें. जवानी बरकरार रहेगी. ऊपर वाले की दुआ रही तो हर किसी के हाथ में प्याज  होगा और पकोड़ा स्वाध्याय बुलंदियों को छुएगा. Article by Prof Mrigesh Pande

फोटो भी निखालिस नासिक के प्याज की हैं जो अभी शॉर्ट सप्लाई में है. दीदार फरमाएं.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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