यह किस्सा है नरोत्तम जोशी का. इस किस्से में न अल्मोड़ा है और न मैं. (Narottam Joshi of Almora)
नाम नरोत्तम चंद जोशी.पिताजी स्वर्गीय तारा चंद्र जोशी. उम्र लगभग पचहत्तर बरस. शिक्षा सन सैंतालीस के चौथी पास. निवास अल्मोड़ा के पांडे खोला में.कुल संतानें चार. दो लड़के इंजीनियर (एक अमेरिका में और एक गुड़गांव में)दो लड़कियां (एक आर्मी के अफसर की पत्नी दूसरी किसी सरकारी महाविद्यालय में परमानेंट टीचर). पत्नी कोई दस साल पहले विश्वनाथ घाट पर अलविदा ले चुकी. जमीन – है.घर – है. वर्तमान में उन पर कब्जा चल रहा है जिसका मुकदमा वो जीत चुके हैं. कब्जा प्रशासन को दिलाना है. न्यायालय का फैसला तीन साल पहले आ चुका है. (Narottam Joshi of Almora)
ऊपर की सूचना बेमतलब की सूचना नहीं है.
अल्मोड़ा कचहरी में वादकारी, वकील, पत्रकार और तीसरे दर्जे के अफसर, कर्मचारी और कई फरियादी रोज आते हैं.एक नियत समय पर आहिस्ता आहिस्ता एक भीड़ कचहरी में दाखिल होती है और एक नियत समय पर उस भीड़ का एक बड़ा हिस्सा आहिस्ता आहिस्ता कचहरी से चला जाता है. कुछेक महीनों में ज्यादातर चेहरों से (नाम से नहीं) वाकिफ हो चुका था.
उन्हीं में से एक थे नरोत्तम चंद्र जोशी.
जमीन कब्जे के एक सामान्य से मुकदमे के वादी जोशी जी बंद गले की नीली फुल आस्तीन वाली शर्ट जिस में ऊपर की तरफ दो पॉकेट होते हैं मे॑ ढंके, हल्का लगड़ाते, रोज ठीक सुबह सवा ग्यारह बजे पर लाला बाजार की तरफ से कचहरी में दाखिल होते.लाला बाजार की तरफ से गेट के ठीक नीचे लगे पत्थर जो कि प्रथम दृष्टया लोहे के दरवाजे को रोकने के लिए बनाया गया होगा परंतु कालांतर में श्रद्धा का केंद्र बन गया को पूर्ण श्रद्धा भाव से नमन करके दाखिल होते.
कचहरी प्रांगण में दाखिल होकर पहला काम, मल्ला महल स्थित भगवान राम सीता के विग्रह को नमन करना कुछेक मिनट तक कुछ बुदबुदाना, फिर दोनों हाथों को क्रॉस करके कानों की लौ को दो बार छूना और अंत में घंटी बजाना होता.
इसके बाद वह लगड़ाते हुए आबकारी दफ्तर के बाहर बैठे अर्जीनवीस से- जो अपने ढाई बाई साढ़े तीन के तहत पर दीवाल से टेक लगाकर आधा लेटा बैठा होता था, के पास जाकर हाथ मिलाना, उसके बाद कंधे पर लटके चनौदा खादी भंडार के झोले में से कुछ मुडॆ तुड़े कागज, कुछ फाइलें जिनके कोने पलटते पलटते काले हो चुके थे, निकालकर उनके सामने रखना और मुद्दे पर आगे की कार्यवाही के लिए संक्षिप्त रणनीति बनाना जिसमें अंत का सिर्फ एक ही वाक्य पल्ले पड़ता “दाजू सब है जाल”.
फिर किसी न किसी दफ्तर में साये की तरह गुम हो जाना.दो-तीन घंटे बाद पुनः उसी अर्जी नवीस के पास बैठकर सुरती मिलकर फांकना और फिर लाठी के सहारे किसी दूसरे विभाग के दफ्तर में गायब हो जाना.
पांच बजे से ठीक आधा घंटे पहले एक हताश मायूस चेहरा लेकर फिर राम जानकी विग्रह के पास जाना फिर कुछ बुद्बुदाना, दोनों हाथों को क्रॉस कर कानों की लौ छूना, घंटी को बजाना और धीरे-धीरे कलेक्ट्रेट से बाहर हो जाना. जाते जाते उस पत्थर के पुनः पैर छूना जिसके सुबह-सुबह छुए थे और फिर आहिस्ता आहिस्ता लाला बाजार की भीड़ में गुम हो जाना.
यह नरोत्तम चंद जोशी का रोज का क्रम था, अनवरत क्रम, शाश्वत क्रम. कुछ लोगों को उनमें एक निठल्लेपन, एक अवसाद], एक मनोरोग और एक पागलपन की झलक तो कुछ को व्यवस्था में, सरकारी तंत्र में खोट नजर आती. सबको अपनी मर्जी के मुताबिक नरोत्तम चंद्र जोशी में कुछ ना कुछ नजर आ ही जाता. पर किसी ने आज तक नहीं जानने की कोशिश की कि एक लगभग पचहत्तर वर्ष का बूढ़ा व्यक्ति जो ठीक से चल नहीं पाता, रोज बिला नागा आखिर इस विशाल दफ्तर में आता क्यों है.
अल्मोड़ा के फालतू साहब और उनका पीपीपी प्लान
माना कचहरी में भीड़ होती है, लोग होते हैं पर दिन बदलने के साथ ज्यादातर लोग बदल भी तो जाते हैं. नरोत्तम जोशी अल्मोड़ा कचहरी से एक प्रेत की तरह चिपके हुए थे या अल्मोड़ा कचहरी नरोत्तम जोशी के भाग्य में प्रेत बनकर बैठी थी उनकी रोज रोज की स्थिति को देखकर यह कहना मुश्किल था. (Narottam Joshi of Almora)
निश्चित समय पर वह बची खुची ऊर्जा और आशा -जिसे सुबह सुबह उनके चेहरे पर बिना किसी प्रयास के बांचा जा सकता -लेकर आने वाला व्यक्ति शाम होते-होते निराशा और एक अपराध बोध सा कुछ अपने झुके कंधों पर लेकर बाहर निकलता. इसे नोटिस करने का वक्त कचहरी में, अल्मोड़ा में और बाजार में किसी के पास ना था.
चार बच्चों (सफल और स्थापित) के बाप नरोत्तम जोशी के मकान के एक हिस्से और लगभग सारी जमीन पर उनके परिवार के ही एक भाई ने कब्जा कर लिया था.यह वही मकान था जिसमें जोशी ने अपने को दूल्हा बनते देखा, बाप बनते देखा फिर बूबू बनते देखा. यह वही मकान था जिसमें खांसते खांसते उनकी पत्नी उनका साथ छोड़ कर चली गई.यह वही मकान था जिससे जोशी जी के सारे बच्चे एक एक करके सैटल होने बाहर निकल गए.नरोत्तम जोशी एक बड़े अरसे तक इस बदलाव को स्वाभाविक और विकास प्रक्रिया का परिणाम मानते हुए अपने आप को समेटे रहे ,बिखरने से बचाते रहे और धीरे-धीरे खर्च होते रहे.पर आज वह मकान भी टूट रहा है.छूट रहा है वह पार्वती सदन जिससे नरोत्तम जोशी की आखिरी सांस उम्मीद की तरह चिपकी हुई थी.
आज न बच्चे थे, न ही ईजा थी, न बाबू थे, न बूबू थे ना खुद पार्वती. आज नरोत्तम जोशी के साथ कोई नहीं था बस दो जोड़ी फुल आस्तीन की नीली शर्ट ,नीला पैंट और एक गांधी आश्रम के झोले और मुकदमे के कुछ कागजात के सिवा. किसी तरह अपना गुजारा करने वाले जोशी रोज अनुशासित तरीके से एक उम्मीद लेकर आते और रोज अनुशासित तरीके से एक उम्मीद (कम से कम दिखावे भर को) लेकर लौट जाते.
उनका रोज रोज इस तरह आना परिवार, समाज, शहर, शहरीयत, आदमी, आदमीयत, कानून, कल्याणकारी राज्य तथा कथित विकास, इन सबके चेहरे पर रोज करारा तमाचा होता.
जोशी रोज पूरी ऊर्जा के साथ एक अनकही लड़ाई जो नामालूम किन सिद्धांतों को ढाल बना कर लड़ी जा रही थी लड़ते और एक वीर मजबूत टिकाऊ लड़ाके की हैसियत से रोज हार जाते. उनका रोज-रोज का यह क्रम उनके साथ साथ पूरे तंत्र को खोखला कर रहा होता और पूरे शहर से पूरे पहाड़ से पूछ रहा होता कि “जो आमा बूबू आज गांव में टूटी बाखलियों में प्रेत बन कर रह गए हैं उनकी मुक्ति कब होगी, उनका तर्पण कब होगा? “.
पर नरोत्तम जोशी सुर्ती मलते मलते, हंसते हुए यही कहते “दाज्यू सब है जाल! (सब ठीक हो जाएगा बड़े भाई!)”
इसके साथ-साथ आंसू की एक बूंद उनके चश्मे के मोटे लेंस के पीछे से चेहरे की झुर्रियों में से सरक कर सुर्ती में गिर जाती है और उन्हें इसका पता भी नहीं चलता.
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