सुवा कैं नराई लागी आंचली में फेड़ी- वियोगावस्था में आलम्बन के प्रति आश्रय के मनोगत भावों की यही सबल अभिव्यक्ति साहित्य की अनमोल धरोहर है. सुवा अर्थात प्रेयसी (प्रेयसी और प्रियतम दोनों के लिए) को अपने प्रिय से मिलने की लालसा वियुक्तावस्था में इतनी तीव्रता से अभिभूत कर उठी कि उसने प्रियतम के साहचर्य की अनुभूति अपने ही आंचल में अपना मुंह छिपाकर प्राप्त की.
(Narai Meaning Kafal Tree)
आश्रय के वियोगजन्य अनुभाव की इतनी तीव्र अनुभूति कराने वाला दूसरा शब्द कदाचित् ही कोई हो ‘नरै’ या ‘नराई’ से तात्पर्य प्रिय के साहचर्य की उस अतीत की मधुर स्मृति से है जिसकी बार-बार आवृत्ति की अभिलाषा प्रत्येक प्रेमी को हुआ करती है. सामान्यतः नराई का अर्थ है- किसी अपने अत्यधिक प्रिय स्थान, वस्तु या व्यक्ति से पुनर्मिलन की बलवती अभिलाषा. यही पुनर्मिलन की अभिलाषा की कोमलतम अनुभूति ही नराई को जन्म देती है.
‘जै घड़ी समजी रूंछू, कल्जिया का टुकड़ा’ (जिस समय तुम्हारी नराई लगती है, कलेजा टुकड़े-टुकड़े हो जाता है.) प्रवासी पर्वतियों को जब उत्तरी भारत की ग्रीष्मकालीन गरम हवाओं का वेग झुलसाने लगता है, उन्हें अपने पहाड़ों की शीतल घाटियां पहाड़ों के शिखर, बांज चीड़-देवदार के सघन वनों की याद व्याकुल कर डालती है, यही है- नराई, अपने घरों की याद और उनमें लौट पड़ने की उत्सुकता.
परदेशी सुवा की नराई तो बहुत ही विलक्षण अनुभूति है. अपने बिछुड़े प्रियतम से मिलने की अभिलाषा को उसने अपना आंचल पकड़ कर निवारित किया. यहाँ पर ‘फेड़न’ या ‘फेड़ण’ शब्द समझना आवश्यक है. साधारणतया जिसे हम उतारना या निकालना कहते हैं, यह उसी का द्योतक है. यदि किसी को किसी बात पर किसी से नाराजगी हो जाय और उसका प्रतिकार न हो पाये तो वह अपना गुस्सा या तो दूसरे पर उतार कर अपने को ठण्डा करता है या उसके सामने कोई वस्तु पटककर अथवा जली-कटी सुनाकर अपनी भड़ास निकालता है. जब प्रियतम से मिलने में कोई बाधा या विवशता हो तो अपने जी की जलन कम करने के लिए प्रिय से सम्बन्धित किसी वस्तु को लेकर या उसके प्रिय स्थान में कुछ देर बैठकर से लेना या सिसकियाँ लेकर आहे यही ‘नराई फेड़ना’ है.
नराई फेड़ने के तरीके भी अजीबो-गरीब होते हैं, पैर के नाखूनों से या दरांती से जमीन कुरेदना, गले में पड़ी माला के दाने चबाना, अपने आंचल के पल्लू को दाँतों से भींच लेना, इसी तरह की अनेक हरकतें बिछड़े लोगों की आन्तरिक पीड़ा को व्यक्त करने वाली हुआ करती हैं. जो नराई लगने पर याद नहीं करते, प्रेम का मूल्य नहीं समझते, समर्पण का उपहास करते हैं, उनको प्रेमीजन शरापते हैं- कभै बाटो जन पाये, म्यारा सरापले (मेरे शाप से तेरी मुक्ति कभी नहीं हो).
नराई होती नहीं, लगा करती है. ‘होने’ में प्रयत्न या उद्योग का भाव है, लगने में नैसर्गिकता है. ‘नराई’ नैसर्गिक है, नराई से माया से लगती है . माया यानी प्रेमजन्य आसक्ति दो प्रेमियों के बीच पला करती है जो संयोग-वियोग दोनों में समान रूप से विद्यमान रहती है किन्तु नराई वियोग में ही लगा करती है. चाहे अपनी जन्मभूमि में लौटने की तीव्र अभिलाषा हो अथवा अपने बिछुड़े प्रियतम से पुनर्मिलन का औत्सुक्य नराई लगाता है. जो मिल नहीं पाते वे नराई फेड़ लिया करते हैं. ‘नराई’ उसी की लगती है जो कहीं विद्यमान हो या वर्तमान हो, मृत या नष्ट की ‘नराई’ नहीं लगा करती है. ‘नराई’ मंगलमय कामना है. ‘नराई’ में यह दृढ़ विश्वास रहता है कि जिसकी ‘नराई’ लगी हुई है, उससे हम मिल पायें या न मिल पायें वह सकुशल है.
(Narai Meaning Kafal Tree)
नराई की तरह निश्वास (निसास, निशाश, निस्सास) शब्द भी प्रचलित है. इसका अर्थ भी नराई से लगभग मिलता-जुलता है. अपने प्रियजनों या अपने प्रिय स्थलों की वियोग के दिनों में स्मृति आने पर उदासी में खो जाना निश्वास लगना है. पहले-पहल किसी नये अपरिचित स्थान में आकर रहने लगना पूर्णतया अपरिचित व्यक्तियों के बीच पड़ जाने पर लोग ‘निश्वाशी’ जाते हैं. धीरे-धीरे नये स्थान में रहने के अभ्यस्त हो जाने और लोगों से हेल-मेल बढ़ जाने पर ‘निश्वाश’ कम हो जाता है.
खूंटा बदले जाने पर पशु को भी निश्वास लगता है. वह दो-तीन दिन तक कम घास खाता है या वहाँ से भागने का प्रयत्न करने लगता है. ढ़ीम घाट या ‘ढींमीं’ जाने (हिल-मिल जाना) के बाद फिर ‘निश्वाश’ जाता रहता है. ‘नराई’ में कितना ही परिचय या अभ्यास नयी परिस्थितियों या व्यक्तियों का क्यों न हो जाय, उसकी निरन्तरता में कोई अन्तर नहीं पड़ता.
सूर की गोपियों की विरह कथा की तरह नराई साहचर्य की बलवती उत्कण्ठा है जो मिलने पर ही शांत हो सकती है. इसलिये प्रेमीजन अपने प्रिय को बिछुड़ते हुए इस प्रकार समझाया करते हैं- ‘आंखि में सूरत राखे रूमाल में माया’ (आंखों में मेरी मुखाकृति रखना और अपने रूमाल में मेरी माया यानी लगाव). आँखों में मेरी सूरत रहेगी तो तुमको मेरी याद आते ही या नराई लगते ही आंसू गिरने लगेंगे और उनको पोंछने के लिए जब रूमाल हाथ में लोगे तो मेरे प्रति तुम्हारा जो अमिट लगाव है, वह तुम्हारे आँसुओं से नम हो उठेगा. इस प्रकार तुम्हें मेरी गैरमौजूदगी भी नहीं खलेगी और मुझे भूल भी नहीं पाओगे.
इसी तरह प्रेयसी को भी प्रियतम का कहना है- पैशा बादे पिछौड़ी में रूमालै में माया (पैसे पिछौड़े में बांधना, माया को रूमाल में रखना) अर्थात् प्रेम में रुपयों-पैसों को बांधकर एक किनारे कर देना, मेरा प्रेम अपनी मुट्ठी में बंद रुमाल में हर समय अपने सामने रखना|
ज्यों-ज्यों प्रिय स्थान या व्यक्ति की प्रतीक्षा अस हो जाती है, ‘नराई’ भी प्रगाढ़ हो जाती है . नराई का समानार्थी गढ़वाली शब्द खुद है. कभी-कभी निश्वास भी नराई का स्थान ले लेता है और उसका प्रयोग नराई के विकल्प में भी होने लगता है किन्तु नराई में जितनी गुढ़ता है, उतनी निश्वाश में नहीं.
परदेश में पराये लोगों के बीच उदेख लगा करता है और परिचित व्यक्तियों व स्थानों का उदाश-उदास भी लगा करता है तथा व्यक्ति उदासी जाता है. फिर भी नराई का स्थान सबसे ऊपर है. कुमाऊंनी के हजारों प्रेमगीतों में बिछुड़े हुए लोगों के मानसिक उद्वेलन की अभिव्यक्ति ‘नराई’ के द्वारा हुई है.
नराई अधिकांशतः अपने समकक्षों की ही लगा करती है, अपने छोटों का निश्वास या निशाश लगा करता है. अपने से बड़ों को मिलने की आतुरता या उत्कण्ठा के लिए कुमाऊं के कुछ भागों में ‘शोशया’ शब्द का भी प्रयोग होता है.
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‘में इजू की भौत शोराया’ (मुझे मां की बहुत याद आती है या मां से मिलने की मेरी उत्कट अभिलाषा है) . ‘नराई’ ‘निश्वास’ ‘उदाण’ शोराया’ (श्वराया) ‘खुद’ सभी में ‘बाटुली’ (‘बाटुई’ हिचकियां)’ भी बहुत लगा करती हैं. बाटुली आती है तो नराई का भी वेग बढ़ जाता है. कभी-कभी बिछुड़े हुए प्रिय जनों के एक पक्ष को किसी की नराई’ लगती है तो दूसरे को ‘बाटुली लगती है. इस प्रकार किसी पक्ष को बाटुली पहले लगती है तो फिर ‘नराई’ लगती है और दूसरे पक्ष को नराई लगी तो बाटुली भी लगने लगती है. नराई फेड़ने के साथ-साथ गला रूध जाता है आखों से आंसू ढुल-ढुल करके गिरने लगते हैं. नराई को कम करने के लिए आग्रह किया जाता है-
हरिया रुख छपक्या पात, भरिया रुख छाया
चिठी में जवाब दिये, बाटुली में माया
बाटुली, नराई लगने पर अवश्य लगती है. बाटुली से माया (प्रेम या आसक्ति) की तीव्रता का आभास होता है.
प्राचीनकाल में जब हमारे पूर्वज अपने आहार, आवास, चरागाह और कृषि योग्य स्थलों की खोज में पहाड़ों की घाटियों ढलानों पर स्थित घने बीहड़ वनों, गहरी नदियों और नाना हिंसक पशुओं के बीच से गुजरते हुए अज्ञात दिशा की ओर बढ़े होंगे उन्हें शायद ही कभी अपने बिछुड़े लोगों से पुनर्मिलन का अवसर मिल पाता होगा. उनको उन प्रारम्भिक दिनों में मार्गों और दिशाओं का पता भी नहीं लग पाता होगा. एक पूर्णतया अपरिचित नये स्थान में पहुंच कर उनको अपने बिछुड़े स्थानों व व्यक्तियों की ‘नराई’ लगती होगी ‘निश्वास’ लगता होगा. ‘बाटुली’ लगती होगी. तब उनके मुंह से एक आह निकलती होगी- दिगोऽऽऽला!’ इस शब्द में बिछुड़े जनों की मर्मान्तक पीड़ा, टीस या हूक भरी है.
कभी-कभी बहुत दिनों में मिलने वाले प्रेमीजन अपने अतीत के सुखमय दिनों की याद में आह भरते हुए कहते हैं- दिगो ! या कठो ! कठोऽऽऽला! (कठै, का भी प्रयोग होता है.) अपने अतीत के सुनहरे दिनों को वर्तमान में वापस न ला पाने की विवशता इन करुण उद्गारों में छायी हुई है. अपने मां-बाप, भाई-बहिन प्रियजन की याद में विसूरती पुत्री, बहन, प्रियतमा, भाई संयोग के दिनों की मधुर स्मृति इन उद्गारों से प्रारम्भ करते हैं. (कभी-कभी दिगो ! कठो) जैसे शब्दों का प्रयोग उनके लिए भी हुआ करता है जिनके पुनर्मिलन की आशा समाप्त हो चुकी होती है). सब मिलाकर करुण, दैन्य, निराशा, बिवता जन्य व्याकुलता, जड़ता, ममता… अनुराग, स्नेह, प्रेम आदि जैसी असंख्य मनोदशाओं की अभिव्यक्ति ‘नराई’ में पुंजीभूत हुई है.
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‘सुवा’ में ‘ह्यांक’ (मिलने की लालसा) बढ़ता है तो ‘नराई’ लगती है. फिर तो संसार के सारे अपवादों, प्रलोभनों को लात मार कर ठुकरा देने के बाद एक ही अभिलाषा शेष रह जाती हैं-
शिलघड़ी का पाला चाला हाइभाला जोग्याला.
कालीगाङा तरना की कठै ! हिट सुवा दुदम्याला..
तैं ले आये इस बाटा हायभाला जोग्याला .
झुरी-झुरी मरनैं कि कठै ! हिट सुवा दुदम्याला..
-डॉ. रामसिंह
पुरवासी के 1989 में ‘नराई’ अंक में छपा यह लेख डॉ. रामसिंह द्वारा लिखा गया था. डॉ. रामसिंह का यह लेख पुरवासी पत्रिका से साभार लिया गया है.
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