समाज

सुल्ताना डाकू का किला और खूनीबड़ गाँव की कहानी

बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में सुल्ताना डाकू का खौफ था. कोटद्वार से लेकर बिजनौर यूपी और कुमाऊं तक उसका राज चलता था. बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू लूटने से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूट करता था. लगभग चार सौ साल पूर्व नजीबाबाद में नवाब नजीबुद्दौला ने किला बनवाया था. बाद में इस पर सुलताना डाकू ने कब्जा कर लिया था.
(Najimabad Sultana Daku Kila History)

उस समय कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह थे. कोटद्वार निवासी आलोक रावत ने बताया उमराव सिंह उनके रिश्तेदार थे, उनकी मां इस बारे में जानकारी देती हैं. उन्होंने बताया कि सुल्ताना डाकू ने करीब 1915 से 1920 के बीच कोटद्वार-भाबर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम फलाने दिन उनके घर लूट करने आ रहे हैं. जिससे उमराव सिंह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई. भाबर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था.

उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी कि इसे कोटद्वार थाने में दे आ. भाबर से कोटद्वार तक उन दिनों सड़क मार्ग नहीं था. लेकिन भाबर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी. कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमांचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी. जो वन विभाग के अंतर्गत आती थी. रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी. जिसमें बांस काटकर ले जाया जाता था.

उमराव सिंह के घर में काम करने वाला भी चिट्ठी लेकर कोटद्वार पुलिस के पास जा रहा था. उमराव सिंह ने पैदल जाने में अधिक समय लगने के कारण उसे अपना घोड़ा दिया था. ताकि वह जल्दी से पुलिस को सूचना दे दे. जैसे वह घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्ताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे. डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी. सुल्ताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका. उसने कहा कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है. घोड़े से जा रहे व्यक्ति ने भी सुल्ताना और उसके साथियों को पुलिस जानकर चिट्ठी दे दी और वहां से घर लौट गया. चिट्ठी पढ़ कर सुल्ताना भड़क गया.
(Najimabad Sultana Daku Kila History)

नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया. उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे. सुल्ताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी. अगर उमराव सिंह पुलिस को सूचना न देते और सुल्ताना का कहना मान लेते तो शायद उनकी जान बच जाती.

उमराव सिंह का कोटद्वार-भावर के विकास में बड़ा योगदान है. उन्होंने कई लोगों को भाबर क्षेत्र में बसाया. आज भी उनके नाम से भाबर क्षेत्र में उमरावपुर जगह है. कोटद्वार क्षेत्र में सुल्ताना की काफी दहसत थी. भाबर के खूनीबड़ गांव में एक बड़ का पेड़ था, लोकउक्ति है कि सुल्ताना लोगों को मारकर उस बड़ के पेड़ पर टांक देता था, जिससे उसका डर लोगों में बना रहे. इसीलिए उस गांव का नाम आज भी खूनीबड़ है.

सुल्ताना डाकू के किले में लेखक

1923 में तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद ज़िले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया. सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे. इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी.

नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुक़दमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया. उसे फांसी की सजा सुनाई गई. हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया तो उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे.

जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ में एक जगह लिखा है, ‘एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी ग़रीब आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी. सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी. जब-जब उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दोगुना दाम चुकाया.’

नजीबाबाद में जिस किले पर सुल्ताना ने कब्जा किया था आज भी उसके खंडर है. उस किले के बीच में एक तालाब था. बताया जाता है कि सुल्ताना ने अपना खजाना यहीं छुपाया था. बाद में वहां खुदाई भी हुई पर कुछ नहीं मिला. कुल लोगों का कहना है कि किले के अंदर से सुल्ताना ने नजीबाबाद पुलिस थाने तक सुल्ताना ने सुरंग बनाई थी. जहां बंद होने पर भी वह आसानी से निकल जाता था और जरूरत पड़ने पर वहां से बंदूकें भी लूट लाता था. पुलिस भी उसे पकड़ नहीं पा रही थी. 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू’ बनाई, जिसमें मुख्य किरदार दारा सिंह ने निभाया था.
(Najimabad Sultana Daku Kila History)

विजय भट्ट

पेशे से पत्रकार विजय भट्ट देहरादून में रहते हैं. इतिहास में गहरी दिलचस्पी के साथ घुमक्कड़ी का उनका शौक उनकी रिपोर्ट में ताजगी भरता है.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें : सुल्ताना डाकू की अजब दास्तान

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

3 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

7 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

7 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

7 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

7 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

7 days ago