पहाड़ों में 80 के दशक में पले बढ़े युवाओं के लिए भोजन के नाम पर अधिक व्यंजनों की गुंजाइश नहीं थी. घर में तो दाल ,रोटी, सब्जी, झूंअरे का चावल, जो दूध के साथ चीनी मिलाकर स्वीट डिश का काम भी करता था. इसके अलावा भट के डूबके, ठटवानी, चैंसा झोली आदि-आदि ही पकवान थे. विशेष पकवान में बेडू रोटी, बिस्वार के चीले, लापसी साल में एक आध बार मिल ही जाती थी.
(Nainital Memoir Pramod Sah)
तब तक पहाड़ के बाजारों में चाऊमीन का चलन नहीं था. चटर-पटर के नाम पर आलू के गुटके और रायता ही सबसे लोकप्रिय था. अब तक कुछ दुकानों में टिक्की और समोसे भी चलन में आ गए थे. मटर और चना तो पहाड़ी रेस्टोरेंट/दुकानों का सरताज बना हुआ ही था.
उन दिनों चार दोस्त अगर पांच-पांच रुपये मिला लें तो ग्रान्ड पार्टी हो जाती थी. इंटरमीडिएट करने के बाद हमने द्वाराहाट डिग्री कॉलेज में ही आर्ट विषय जिन्हें अब ह्यूमैनिटीज कहते हैं, में एडमिशन लिया था.
साथ के कुछ दोस्त पढ़ाई के लिए एम.एन.आर, एम.बी.बी.एस में गए तो कुछ बी.एस.सी करने के लिए अल्मोड़ा, नैनीताल निकल गए. इस प्रकार नियति ने हमें घंवेटिए का घंवेटिए ही बने रहने दिया .
छुट्टी में आए दोस्तों से अल्मोड़ा के जागनाथ और रीगल, नैनीताल के विशाल, कैपिटल सिनेमा हाल की दास्तान, फ्री में लव स्टोरी और क्रांति जैसी फ़िल्में को देखने के मजेदार किस्से हम भी सुन चुके थे. साथ में फ्लैट में डोसा और इडली जैसे साउथ इंडियन दिव्य भोग के लार टपकाने वाले किस्से भी हम दोस्तों की जुबानी सुन चुके थे. इन किस्सों ने ईडली, डोसा के प्रति एक अलग तरह की उत्सुकता और स्वाद पैदा कर दिया था.
उस दौर में साल में दो बार खूब धड़ल्ले से बैंक क्लर्क भर्ती निकलती थी. इंटरमीडिएट पास कर एग्जाम देने की पात्रता मैंने भी हासिल कर ली थी. हमारा नजदीकी सेंटर नैनीताल ही होता था. यह साल 1985 में जून का महीना था. मुझे मध्य क्षेत्र बैंकिंग भर्ती बोर्ड लखनऊ की परीक्षा देने नैनीताल पहुंचना था.
(Nainital Memoir Pramod Sah)
नैनीताल उन दिनों तक हमारी पहुंच का सबसे बड़ा शहर था इसलिए यहां आने की तैयारी भी कुछ खास ही, अलग तरीके की होती थी. टेरीकॉट की पैन्ट और पॉलिस्टर की शर्ट, ऊंची एड़ी वाले जूते अलग से नैनीताल दौरे के लिए तैयार किए गए थे तांकि हीरोपंथी में कमी न रह जाए. वह जमाना हीरो में जितेंद्र का था. हेयर स्टाइल से पैंट और खट-खट एड़ी वाले जूते तक में हम जितेंद्र की ही नकल कर रहे थे.
रहने को हमारा ठिकाना ब्रुक हिल हास्टल था ही. नैनीताल-मासी बस से नैनीताल तक का सफर तय कर लगभग दिन के 2:00 बजे पहले मल्लीताल रिक्शा स्टैंड पहुंचे. फिर वहां से फ्लैट की उन दिनों की चकाचौंध (आज के मुकाबले बेहद शांत) में खोता हुआ चीना बाबा में प्रकट होता हूं. फिर वहीं फूलों के बगीचे में दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए की शूटिंग ख्वाबो में करते हुए ब्रुक हिल हॉस्टल में दाखिल होता हूं. कैंटीन में साल भर का फिक्स मीनू काले चने और भात सपोड़ने के बाद शाम को उन दिनों तक लगभग पूरा आकार ले चुके भोटिया मार्केट और फ्लैट में घूमना हुआ.
दो घंटे नैनादेवी, भोटिया मार्केट और फ्लैट में घूमने के बाद भूख जोर से लग गई थी. हॉस्टल के साथी साथ में थे. इरादा बना कि आज डोसा, मसाला डोसा खाया जाए. फ्लैट में बने ओम रेस्टोरेंट की मेज में हमने भी तशरीफ़ रखी. पूरा फ्लैट और रेस्टोरेंट का बड़ा भाग सैलानियों से भरा था.
यहां फ्लैट रेस्टोरेंट में ज्यादातर की प्लेट में डोसा ही परोसा गया था. सब लोग छूरी-कांटे का इस्तेमाल बड़े इत्मीनान से कर डोसे का स्वाद ले रहे थे. प्लेट में खटर-पटर करते हुए छूरी कांटे की आवाज, मैं अपने सिर पर महसूस करने लगा था क्योंकि छुरी-कांटे से आज मेरा पहला इम्तहान होना था.
(Nainital Memoir Pramod Sah)
मैं नई दुल्हन सा घबराया हुआ था. थोड़ी देर में हमारी टेबल में भी चार प्लेट मसाला डोसा हाजिर थे. मेरे तीन अन्य साथी भी मेरी तरह ग्रामीण परिवेश के थे लेकिन वे छुरी-कांटे से डोसा खाने में पहले हाथ अजमा चुके थे इसलिए कॉन्फिडेंट थे. साथियों ने आधा डोसा खा लिया था मैं छुरी-कांटा एक हाथ से दूसरे हाथ में बदल रहा था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि छुरी किस हाथ में हो और कांटा किस हाथ में.
मैं जिधर से भी डोसे पर छुरी कांटे का प्रहार करता डोसा बड़ी चालाकी से प्लेट के दूसरे छोर पर खिसक जाता. पांच-सात मिनट छुरी-कांटे और डोसा में यह दोस्ताना मैच चलता रहा. मैं लजाते हुए कभी अपने दोस्तों को और कभी अगल-बगल की टेबल्स में बैठे दूसरे मेहमानों को देखता लेकिन मैं छुरी-कांटे से डोसे को काबू नहीं कर पा रहा था. नैनीताल के सुहाने मौसम में मेरे माथे पर पसीना चमक आया था. अब तक मेरी दुविधा मेरे साथी भी पढ़ चुके थे उन्होंने मेरी हिम्मत बढ़ाई और छुरी-कांटा किनारे रख, कुट्टू रोटी जो बचपन से खाते रहे हैं, बना कर खाने को कहा. मैंने आखिर में एं-एं करते हुए डोसा जो पहले ही कुट्टू रोटी जैसा था, हाथ से जकड़ लिया और किनारे रखे छुरी-कांटे को विजयी मुस्कान से देखा. गांव की अपनी कुट्टू लेशू रोटी में भरी हरी सब्जी को यादकर गबा-गब डोसा पचका गया.
वक्त के साथ छुरी-कांटे से जुड़ी झेंप भी मिटती रही. कभी छुरी-कांटे से तो कभी हाथ से अब भी डोसा खा ही लेते है लेकिन नैनीताल फ्लैटस का छुरी-कांटे वाला वह पहला डोसा मुझे आज भी याद है जिसे याद कर डोसे का स्वाद बढ़ जाता है.
(Nainital Memoir Pramod Sah)
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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Wonderful, sir!
Nicely explained 👌 👏 👍
I am also from Nainital; however, at that time, I was only 6-7 years old, but during the reading of "Nainital ka pahla dosa," the whole picture of Nainital I had seen.
Thank indeed for sharing 😊