पहाड़ और मेरा जीवन – 40
पिछली कड़ी: भाषण देते हुए जब मेरे पैर कांपते रहे, जुबान हकलाती रही और दिमाग सुन्न पड़ गया
जैसा कि अब तक आप लोगों को मालूम चल ही चुका होगा कि बचपन से ही मैं खेलों का बहुत शौकीन था. हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट तो बहुत बुनियादी खेल थे, मैं लंगड़ी टांग, खो-खो, आइसपाइस, ऊंच-नीच, कबड्डी, पिट्ठू, कंचों आदि में भी अव्वल दर्जे के खिलाड़ियों में गिना जाता था. खेलों के प्रति मुझमें जितनी ज्यादा दीवानगी भरी हुई थी, इस मामले में घर की ओर से उतना ही कम सपोर्ट था. मैंने पहला ढंग का बैट कक्षा आठ में जाकर लिया था, वह भी चंदे के पैसों से. अपनी फुटबॉल तो मैं कभी खरीद ही न सका. टेनिस का रैकेट मैंने बाकायदा फौज में कमिशन लेने के बाद खरीदा. सिर्फ बैडमिंटन का रैकेट मैंने इंटर की पढ़ाई के टाइम खरीदा था क्योंकि मैं एक टूर्नामेंट में भाग ले रहा था. जीआईसी पिथौरागढ़ में नवीं कक्षा में दाखिला लेने के बाद मैं वह हर काम करना चाहता था, जिससे नाम और पैसा कमाया जा सके. मैं पहले ही आठवीं के प्राप्तांक के आधार पर मिलने वाली ‘मेधावी छात्र’ छात्रवृत्ति के लिए आवेदन कर चुका था और जब मुझे मालूम चला कि एनसीसी नाम की भी कोई चीज होती है, जिसका हिस्सा बनने पर मुफ्त में कपड़े, जूते इत्यादि मिलते हैं, मैंने तुरत-फुरत वहां भी अपना नाम लिखवा दिया. एक दिन हमारे एनसीसी के भैसोरा सर ने हमें एनसीसी के मुख्य दफ्तर भेजा जहां से हमें एनसीसी की युनिफॉर्म के साथ लाल रंग के परेड करने वाले जूते और दौड़ने के लिए कैनवस के भूरे रंग के जूते मिले. यूनिफॉर्म के तहत खाकी रंग की पैंट, कमीज, जर्सी, टोपी और बेल्ट भी मिली थी. मैंने केंद्रीय विद्यालय में कैनवस के सफेद जूते बहुत पहने थे क्योंकि वे जूते सप्ताह में एक दिन युनिफॉर्म का अनिवार्य हिस्सा होते थे, लेकिन उस जूते का कैनवस फटने तक मैं उसका इस्तेमाल करता रहता था क्योंकि तब नया जूता खरीदना बहुत भारी पड़ता था. इसलिए भूरे रंग के ही सही जब नए कैनवस के जूते हाथ आए, तो मेरे मन में धावक बनने की इच्छा जोर मारने लगी. जूतों के साथ खाकी रंग के मोटे गर्म मोजे भी मिले थे. ऊपर पहनने के लिए मेरे पास एक टीशर्ट थी, पर सवाल नीचे का था. मैं कुछ ऐसा पहनना चाहता था जिसे पहनकर टांगे फ्री रहें और जो दिखने में भी आकर्षक लगे. पर शायद वह महीने के आखिरी दिन रहे होंगे क्योंकि मेरे पास पैसे बहुत कम थे, मैं बाजार गया और एक दुकान के बाहर धावकों द्वारा पहने जाने वाले रंगबिरंगे नेकर से दिखते कपड़ों को देखकर रुक गया. बहुत भावतोल के बाद मैं एक हरे रंग का नेकर ले आया, जिसमें दोनों साइड में सफेद रंग की तीन-तीन धारियां लगी थीं. अगले रोज सूर्योंदय के साथ-साथ बेपनाह उत्साह से भरा हुआ मैं डिग्री कॉलेज के मैदान पर पहुंच गया. मैंने वही तीन धारियों वाला मुलायम कपड़े का बना नेकर, ऊपर टीशर्ट और भूरे रंग के नए फौजी कैनवस के जूते पहने हुए थे. मैंने अपनी तरह से दौड़ का अभ्यास किया. दौड़ा, थका, रुका और फिर दौड़ा, लगातार पैरों में कैनवस के नए जूतों और मुलायम कपड़े की नई नेकर के इस्तेमाल से पैदा हो रहे जोश को महसूस करते हुए. यह कई बरस बाद था जबकि मुझे यह ज्ञान हुआ कि उस रोज जिसे मैं धावकों की नेकर समझ हवा में उड़ते हुए दौड़ने की कोशिश कर रहा था वह असल में यू शेप वाला अंडरवियर यानी कच्छा था, बहुत ही सस्ती क्वॉलिटी वाला. मेरी ऐसी कारस्तानियों के बारे में भाई बहुत हंसी उड़ाता रहा मेरी. लेकिन मैंने इस बात को ज्यादा अहम समझा कि मेरे नए जूते और नई नेकर पहनकर दौड़ने का अभ्यास करने को लेकर मेरे नादान जोश के कारण कम से कम मैंने दौड़ने का अभ्यास करना शुरू तो किया, जो कि बाद में मेरे बहुत काम आने वाला था.
मेरे विद्यार्थी जीवन में एनसीसी की भूमिका कैनवस वाले भूरे रंग के नए जूते देने से कहीं ज्यादा रहने वाली थी. मेरे जीवन में अनुशासन की बुनियाद डालने का काम एनसीसी ने ही किया. मुझे अच्छी तरह याद है जब पहली बार स्कूल के एनसीसी कैडट्स को बाहर खड़ा करके भैसोरा सर ने पूछा था- कौन बनना चाहता है कमांडर? मैं हालांकि वहां मौजूद लड़कों में खुद को ज्यादा सुपीरियर समझता था, लेकिन बहुत देर तक मैं हाथ उठाने में झिझकता रहा, पर अंतत: बड़े भाई की बाद याद आई कि अवसर बार-बार आपका दरवाजा नहीं खटखटाते और मैंने अपना हाथ उठा दिया. मैंने देखा कि मेरे अलावा किसी दूसरे लड़के ने हाथ ही नहीं उठाया. भैसोरा सर ने मुझे सामने बुलाया और मुझसे परेड सावधान, परेड विश्राम के कमांड देने को कहा. मैंने भरपूर गले से चिल्लाते हुए परेड को सावधान, विश्राम करवाया. भैसोरा जी ने समझाया, गले से नहीं पेट से आवाज निकालो. और तब से लेकर आज तक मैंने हमेशा पेट से ही आवाज निकालकर कमांड दिए हैं. भैसोरा सर ने मुझे जीआईसी के जूनियर डिविजन एनसीसी स्क्वॉड का कमांडर बना दिया. उस वक्त तो भैसोरा सर ने भी कल्पना नहीं की होगी कि जिस छात्र को उन्होंने स्कूल की एनसीसी प्लाटून का नेतृत्व सौंपा वह एक साल बाद ही दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड के लिए एकत्रित पूरे भारत भर से आए कैडेट्स के इंडिया कंटिनजेंट का कमांडर बनेगा. पर वह कहानी बाद में.
कुछ ही समय में मेरी पहली तस्वीर अखबार में प्रकाशित होने वाली थी. मैं बहुत जल्दी ही भैसोरा सर का बहुत प्रिय छात्र हो गया था. उन्होंने देवसिंह फील्ड में गणतंत्र दिवस के अवसर पर होने वाली परेड के लिए मुझे पायलट बनाया. पायलट स्पेशल ड्रेस में सजे हुए दो कैडेट होते हैं, जो मुख्य अतिथि द्वारा परेड के निरीक्षण के दौरान उसके सामने धीमे कदमों से चलते हैं. उन दिनों शहर के सबसे लोकप्रिय अखबार अमर उजाला में परेड में पायलट की भूमिका में मेरी तस्वीर प्रकाशित हुई. क्योंकि तस्वीर में मेरा चेहरा नहीं दिख रहा था इसलिए बड़े भाई ने अखबार की बहुत प्यार से सहेजी गई कटिंग पर मेरी तस्वीर से एक तीर खींचते हुए वहां लिखा – ‘गणतंत्र दिवस की विशेष परेड के मुख्यअतिथि के सामने पायलट की भूमिका में.‘ वहां तारीख भी दर्ज की गई. यह कटिंग फौज में अफसर बनने तक मेरे जरूरी कागजातों का एक अनिवार्य हिस्सा बनी रही. एनसीसी में मैंने बाद में कई कैंपों में शिरकत की. हर कैंप की एक अलग दास्तां है. अंतत: मैंने एनसीसी का सर्वोच्च ‘सी’ सर्टिफिकेट भी हासिल किया. इस सर्टिफिकेट का मुझे कोई भौतिक लाभ मिला या नहीं, पर एनसीसी के अनुभवों ने सेना में अफसर बनने की प्रक्रिया में मेरी बहुत मदद की. आधा फौजी तो मैं एनसीसी में रहते हुए ही हो गया था और बाकी का आधा फौज की असली ट्रेनिंग ने बना दिया. लेकिन मुझे हमेशा झिझकते हुए ही सही, स्कूल के लड़कों का कमांडर बनने के लिए अपना हाथ उठाना याद रहा. वह एक पल मेरे लिए कितना अहम था. उस एक पल के फैसले ने ही वह आधार बनना था, जिस पर अंतत: मेरे जीवन की पूरी इमारत खड़ी हो सकी. इसलिए युवाओं को मैं कहना चाहता हूं कि जब भी अपनी ओर से पहल लेने का अवसर आए, वह कितना भी छोटा क्यों न हो, तो हाथ बढ़ाकर उसे लपक लेना चाहिए. एक छोटी-सी पहल बाद में आपके कितने बड़े मुकद्दर में तब्दील हो सकती है, ये कौन जानता है.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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