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पहाड़ों में पैदल चलने के बिना जिंदगी का जायका ही क्या

पहाड़ और मेरा जीवन -43

पिछली क़िस्त : हल चलाना, नौले से फौले में पानी भरकर लाना और घोघे की रोटी मक्खन, नून के साथ खाना

मेरे पिताजी ने पिथौरागढ़ के मिशन इंटर कॉलेज से दसवीं पास की थी और उसके तुरंत बाद वे मात्र 16 साल की उम्र में बच्चा कंपनी में भर्ती होकर फौज में चले गए थे. मेरे सहपाठी चंद्रसिंह थापा, जिसके एक बेटा फौज में अफसर बनने की ट्रेनिंग कर रहा है, के पिताजी कुमाऊं के मशहूर बॉक्सर हरि सिंह थापा भी पिताजी के साथ भर्ती हुए थे. पिताजी जब फौज छोड़कर आए थे, तो हरिसिंह थापा उनसे मिलने आए थे. पिताजी ने दसवीं पिथौरागढ़ के बाजार से करीब बारह किमी दूर भैलोंत में रहकर की थी. भैलोंत से मिशन इंटर कॉलेज के दूरी भले ही बारह किमी के करीब हो, पर इस फासले को तय करने में ढाई-तीन घंटे लगते थे.

उन दिनों भैलोंत जाने का रास्ता जंगल से होकर गुजरता था और जंगल में बाघ, भालू जैसे खतरनाक जानवर भरे हुए थे. सहज ही कल्पना की जा सकती है कि सुबह मुंह अंधेरे घर से निकलकर सूरज ढलने के बाद रात को ही घर पहुंच पाते होंगे पिताजी. लेकिन तब भी उन्होंने सफलतापूर्वक दसवीं पास की. उनसे जब मुझ पर बात आई तो स्कूल जाने के मामले में मैं ज्यादा किस्मत वाला था क्योंकि मुझे ज्यादा लंबा पैदल नहीं चलना पड़ा. ठूलीगाड़ में रहते हुए केंद्रीय विद्यालय बहुत नजदीक था.

बाद में सदगुरू निवास से जीआईसी की दूरी भी ज्यादा नहीं थी. लेकिन कई बार मैं कुजौली के किराए के कमरों में रहते हुए अपनी दीदी, जो कि बाद में मेरी भाभी बनी, से मिलने ठूलीगाड़ चला जाता था. वह लौटते हुए मुझे सब्जियों व खाने-पीने की दूसरी चीजों से लैस करके भेजती थी. उन दिनों रोडवेज और केमूं की बसें चला करती थी वड्डा से पिथौरागढ़, पर उनकी बारंबारता ज्यादा नहीं थी. जीपें भी चलना शुरू हो गई थीं, पर उनमें ज्यादा पैसा देना पड़ता था. इसलिए अमूमन मैं पैसा बचाने के चक्कर में ठुलीगाड़ से पैदल ही चल पड़ता था.

दीदी को भी मैं पैदल ही कॉलेज जाते हुए देखता था. वहां से कुजौली तक की दूरी लगभग सात किलोमीटर थी. मैं कमरे में आकर सामान रखता और उसके बाद तैयार होकर स्कूल निकल जाता. बाद के दिनों में जब मैं कॉलेज पहुंच गया, तब भी मैं कई बार ठुलीगाड़ से पैदल चलकर आया. पिथौरागढ़ की बाजार से ठुलीगाड़ तक पैदल आने की हमें ऐसी आदत पड़ गई थी कि दूरी का पता ही नहीं चलता था. रास्ते में पड़ने वाले एक-एक मोड़, एक-एक घर, दुकान का हिसाब दिमाग में रहता था. कहां कौन मिल सकता है, इसकी भी जानकारी रहती थी क्योंकि ज्यादातर लोगों को पहचानते थे- कम से कम शक्ल से तो जरूर ही क्योंकि अक्सर पैदल चलते हुए आमना-सामना हो जाता था.

वैसे पैदल चलने के मामले में हमारे गुरू कसनियाल जी का कोई सानी न था, जो रोज पिथौरागढ़ से अपने गांव कासनी पैदल आते-जाते थे. कुजौली में रहते हुए भी मैं लगभग रोज ही पिथौरागढ़ की बाजार पैदल जाया करता था, जहां हम चार-पांच कक्षा के सहपाठी मिलते थे और फिर भी जीवन और भविष्य की बातें करते हुए भाटकोट की ओर घूमने निकल जाते. शाम ढले वापस कमरे में पहुंचने तक मैं ज्यादा नहीं भी तो सात-आठ किलोमीटर चल चुका होता था. लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी मेरे दिमाग में पैदल चलने को लेकर कोई द्वंद्व पैदा हुआ हो. कॉलेज के दिनों में सहपाठियों के साथ कई बार पहाड़ों की चोटियों पर जाकर पिकनिक मनाई पर चोटियों पर पहुंचने से ज्यादा रास्ते में पैदल चलने में मजा आता था.

मां बताती है कि मेरे दादा के समय में लोग गुड़-चीनी, साबुन-तेल लाने हमारे गांव से करीब 120 किलोमीटर दूर टनकपुर तक पैदल जाते थे. साफ है कि पीढ़ी दर पीढ़ी पैदल चलना कम होता जा रहा है. मेरे कॉलेज के समय तक भी मैंने जिम या ट्रेडमिल का नाम नहीं सुना था. उन दिनों हमारे भोजन में पोषक तत्व ही ऐसा था या कोई और बात थी, पर आठ-दस किमी पैदल चलने के बाद भी हमें थकान नहीं लगती थी. मैंने जाने कितनी ही बार ठुलीगाड़ से सात किमी दूर स्कूल तक पैदल पहुंच बिना आंख झपकाए जीब दा (हमारे फिजिक्स के जुनूनी टीचर, जो दो-दो घंटे की क्लास ले लिया करते थे) की क्लास अटैंड करने जैसे घनघोर कारनामे भी करके दिखाए. आज याद करता हूं तो खुद पर ही फक्र होता है. मेरी बेटी को स्कूल पहुंचने के लिए सात किमी क्या सत्तर मीटर भी पैदल नहीं चलना पड़ा होगा.

क्या आपको भी यह विचित्र नहीं लगता कि 1980 के दशक में जब मैं इंटर कॉलेज में पढ़ रहा था और मुझे इतना पैदल चलना पड़ता था, तब भी लेकिन मेरे पास वक्त की भरमार रहती थी. दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ जाने कितना समय गुजारते थे हम. आज जबकि हम थोड़ा भी पैदल नहीं चलते क्योंकि इधर-उधर जाने के लिए अपनी गाड़ियां या ओला, ऊबर जैसी सुविधाएं हैं, हमारे पास दूसरों के लिए क्या, अपने लिए ही वक्त नहीं है. तो सारा वक्त गायब कहां हुआ? यह शोध का विषय हो सकता है.

हालांकि आप इन पंक्तियों को पढ़ते हुए सोच रहे होंगे कि कैसा लेखक है जिसे इतनी-सी बात नहीं पता कि जिस वक्त को वह खोज रहा है, वह तो मोबाइल खा चुका है क्योंकि हम सब अब असली दुनिया छोड़कर वर्चुअल दुनिया में ज्यादा रहने लगे हैं. हमें इस बात का एहसास नहीं हो रहा कि हमने अपने बच्चों को मोबाइल पकड़ाकर कितना बड़ा गुनाह किया है क्योंकि जो समय पेड़ों पर चझ़ने, नदियों, तालाबों में नहाने, मैदानों में भागने, पहाड़ों पर चढ़ने और लंबे रास्तों पर पैदल चलने में जाना चाहिए था, वह अब बिस्तरों पर पड़े गुजरता है और हम अपने बच्चों को फिजियोथेरेपिस्टों के पास ले जा रहे होते हैं कि वे लगातार मोबाइल पर रहने के चलते उनके कंधों, पीठ और गर्दन की मांसपेशियों में स्थायी रूप से बस गए दर्द से किसी तरह उन्हें छुटकारा दिलवाएं. सोचो तो कितना भयानक है यह. खैर इसका निदान आने वाली पीढ़ी को खुद ही खोजना होगा.

मैं तो पहाड़ों में गुजारे स्कूली दिनों में अपने पैदल चलने को याद कर रहा हूं. याद करने की बात पर याद आया कि मैं जितनी बार भी अपने गांव यानी खड़कू भल्या गया पैदल चलकर ही गया. लेकिन उस पैदल चलने की बहुत मीठी स्मृतियां हैं मेरे पास. वह पैदल चलना नदी के किनारे पैदल चलना होता था. वह चलना गांव के घरों के बीच से पैदल चलना होता था. वह किसी पहचानी हुई जगह और प्यार करने वाले लोगों के बीच पहुंचने के लिए पैदल चलना होता था और इसका क्या कि वह सफर की थकान की वजह से बढ़ने वाले जिंदगी के स्वाद को लेने के लिए पैदल चलना होता था.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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