पहाड़ और मेरा बचपन – 10
(पिछली क़िस्त : हां मैंने चलाए साइकल के लचक मारते, पुराने टायर और भरपूर मजा लूटा)
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
मेरे दिल्ली से दूसरी कक्षा पास करने के बाद हमारा परिवार जम्मू आ गया. तब तक परिवार में चार भाई बहन हो गए थे. पर मुझे छोटे भाई, जिसका नाम भीम रखा गया था, की सिर्फ जम्मू की स्मृति है. मेरे पिताजी भारतीय सेना की कोर ऑफ सिग्नल्स में थे. उनकी पोस्टिंग उधमपुर में हुई थी. हम मुख्य उधमपुर से कुछ ही पहले चोपड़ा शॉप नाम की जगह के पास रह रहे थे. हमारा घर एक टीले जैसी जगह पर था. दोनों ओर खाई जैसी थी. एक ओर तो बड़ा-सा नाला बहता था, जबकि दूसरी ओर पहाड़ी गाड़ थी, जिसे मैं हमेशा नदी ही समझता रहा. जब मैं खुद फौज में गया और मेरी आखिरी पोस्टिंग भी उधमपुर ही हुई. उधमपुर जाते हुए मुझे अपने बचपन की जगह को देखने की बहुत उत्सुकता हुई. उधमपुर के करीब पहुंचने पर मैंने फौजी गाड़ी के ड्राइवर को आराम से चलने को कहा ताकि मैं उस जगह को पहचान सकूं जहां मैं बचपन में रहा था. पर बहुत कोशिश के बाद भी मैं उस जगह को पहचान न सका क्योंकि जिस छोटी की टिकड़ी पर हम रहते थे और जिसके एक ओर नाला व दूसरी ओर नदी थी, वह बेशुमार मकानों से पट चुकी थी.
बहरहाल बचपन में मैं जितने समय यहां रहा, मैंने नाले और नदी दोनों ही जगह से मछलियां पकड़ीं. मैं सुबह-शाम मछलियां पकड़ता था, सो इस काम में जल्दी ही बहुत पारंगत हो गया. हम नायलॉन की डोर खरीद के ले आते और उसके आगे हुक बांधकर करीब दो फुट पीछे एक सूखी हुई लकड़ी का टुकड़ा बांध देते. यह लकड़ी का टुकड़ा पानी में तैरता रहता जबकि हुक इसीसे बंधा हुआ पानी में चला जाता. हमारी नजर सूखी लकड़ी पर बनी रहती. कांटे की नोक में हम कभी आटा लगाते, तो कभी केंचुआ. चूंकि मां आटा देने में आनाकानी करती थी, सो ज्यादातर मैं केंचुओं से ही काम चलाता था. यानी मुझे मछलियां पकड़ने से पहले केंचुए पकड़ने पड़ते. बरसातों में तो वे खूब मिलते, पर सूखे मौसम में हमें पत्थरों को उठाकर उनकी नीचे की गीली मिट्टी खोद-खोदकर उन्हें निकालना पड़ता. मछली जब कांटे के मुंह पर लगा आटा या केंचुआ मुंह में लेकर भागती, तो ऊपर पानी के तल पर वह सूखी लकड़ी भी साथ में खिंचती जाती और हम डोर को अपनी ओर खींच लेते. वैसे उधमपुर में बचपन की उस छोटी-सी नदी में मैंने सामान्य मछलियों से कहीं ज्यादा ग्राउज कहे जाने वाले जीव का शिकार किया. यह पतला और लंबा होता था और इसके शरीर में बीचोंबीच सिर्फ रीढ़ दौड़ती थी, पतली कांटेनुमा हड्डियों से बनी. ग्राउज को खाना ज्यादा सुविधाजनक था क्योंकि एक बार बीच का कांटा निकालने के बाद आप निश्चिंत होकर कौर को निगल सकते थे. चूंकि मछली खाते हुए एक बार मेरे गले में कांटा फंस चुका था, इसलिए मैं सावधान रहता और हमेशा ग्राउज पकड़ने की फिराक में रहता ताकि आराम से खा सकूं. मैं ग्राउज पकड़कर घर लाता और मां उन्हें कुछ ही देर में तल देती. छुट्टी के दिन और स्कूल वाले दिन भी मौका मिलते ही मैं नदी की ओर भागता और मछलियां जरूर पकड़ता.
इस नदी के किनारे मुझे सांपों के भी खूब दर्शन हुए. वे किनारे पर पड़े मिलते. एक बार तो मैंने एक साथ दस-बारह सांप देखे. वे हल्के पीले रंग के पतले और छोटे सांप थे. शायद ताजा ही अंडों से फूटकर बाहर निकले थे. मुझे पता नहीं क्यों मछलियां पकड़ते हुए इस बात को लेकर डर लगता था कि कभी कांटे में कोई सांप फंसकर न आ जाए. हालांकि ऐसा कभी हुआ नहीं, लेकिन मैं कांटे को बाहर खींचते हुए बहुत सतर्क रहता था. ज्यादातर समय नदी का पानी मटमैला रहता था. लेकिन वैसे पानी में भी हम अक्सर नदी में उतरकर नहाते थे. तैरने का पहला प्रयास मैंने इसी नदी में किया था. साथ में खेलने वाले कुछ लोकल लड़के तैराकी में उस्ताद थे. उन्हीं में से किसी ने एक दिन मुझे तैराकी सिखाने के बहाने गहरे पानी में ले जाकर छोड़ दिया. मैं किसी तरह हाथ-पैर मारकर किनारे पहुंचा. लड़के को मैंने गालियां तो बहुत बकीं, पर अगले दिन से पानी का डर चला गया और मैं छपाक-छपाक हाथ मारकर की जाने वाले देसी अंदाज में तैराकी सीखने लगा.
जम्मू में खेल के अलावा पढ़ाई की भी कुछ स्मृतियां हैं. पहली यही कि नदी के किनारे खेलते हुए मेरी नजर दूर पुल पर बनी रहती क्योंकि मेरे पिता अपनी साइकल पर इसी पुल से होते हुए आते थे. मैं उतनी दूर से भी पिताजी का साइकल चलाना पहचान जाता. वे बहुत शरीफों की तरह साइकल चलाते थे. वहां से उन्हें घर पहुंचने में जितना समय लगता, वह मेरे लिए नदी के किनारे से भागकर घर पहुंचने और फटाफट हाथ-मुंह धोकर किताब गोद में लेकर बैठने के लिए पर्याप्त होता था. रविवार को छोड़कर लगभग रोज ही यह दृश्य देखने को मिलता. पिता घर में घुसते तो मैं उन्हें पढ़ता हुआ ही मिलता. लेकिन मैं सिर्फ किताब ही खोलकर बैठा होता था. मेरा ध्यान तो खेलने में ही बना रहता. नतीजा यह हुआ कि मुझे लगभग हर टेस्ट में डबल अंडा मिलने लगा. गणित में मैं सबसे ज्यादा कमजोर था. मुझे याद है एक बार मैंने गणित के यूनिट टेस्ट में साथ बैठी हुई लड़की से नकल कर कई सवाल सही कर दिए. मेरे दस में से छह नंबर आए, पर मुझे अपने टीचर से शाबासी की जगह मिली मार क्योंकि वह मेरे नालायक होने को लेकर इतने विश्वास से भरे हुए थे मेरे सही सवाल देखकर ही समझ गए कि मैंने सारे सवाल नकल करके किए हैं. टीचर के हाथ मिली उस मार का सीधा असर मेरे नकल करने के आत्मविश्वास पर पड़ा. वह थोड़ा डिग गया.
यहां एक बहुत ही दिलचस्प घटनाक्रम है, जिसने बहुत बचपन में ही मुझे यह सिखाया कि दुनिया बहुत छोटी है और वक्त के साथ चीजें कई बार बिल्कुल पलट जाती हैं. मैंने गणित के उस टेस्ट में जिस लड़की की कॉपी से नकल की थी, मेरे पिथौरागढ़ जाने के दो साल बाद, उसके पिता का भी वहीं तबादला हो गया और एक बार वह फिर मेरी कक्षा में मेरे साथ बैठने लगी. लेकिन अब तक चीजें बदल चुकी थीं. वह लड़का जो जम्मू में पढ़ाई के मामले में कभी सिफर से आगे नहीं बढ़ा, अब कक्षा के तीन सबसे मेधावी छात्रों में शामिल हो गया था. उस लड़की का नाम अर्चना वर्मा था और उसके पिता डीजीबीआर के तहत काम करते थे. अर्चना वर्मा के साथ पांचवीं कक्षा की बातें विस्तार से बाद में बताता हूं क्योंकि वे बहुत ही रोचक हैं. रोचक इस मायने में कि मुझे कई सालों तक ऐसा लगता रहा कि जैसे वह मन ही मन मुझे बहुत खास मानती थी. उसने मुझे खास माना या नहीं पर यह जरूर है कि मैं उसे बहुत खास मानता रहा. मैं उसका नाम यहां लिख रहा हूं कि क्या मालूम वह पढ़ ले और मुझसे संपर्क करे. बहुत बचपन के किसी ऐसे सहपाठी से इस उम्र में आकर मिलना जिसके लिए आपके अबोध मन में खास भावनाएं रही हों कितना सुखद और विस्मयकारी हो सकता है, मैं महसूस करना चाहता हूं.
(जारी)
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