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कंचों के खेल ने साबित किया कि मैं कृष्ण जैसा अवतार था

पहाड़ और मेरा बचपन – 8

(पिछली क़िस्त : अमीर अंकलों की खैरात से जब दिल्ली में मैंने मौज उड़ाई )

(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर  के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)

दिल्ली में अपने बचपन को याद करते हुए मुझे खेल ही खेल याद आते हैं. पढ़ाई की बाबत कुछ याद नहीं आता सिवाय इसके कि हम खाने से ठीक पहले गोद में किताब खोलकर बैठे होते थे. जैसा कि मैं बता ही चुका हूं कि पढ़ाने के मसले पर पिताजी का ज्यादा ध्यान बड़े भाई पर रहता था. मैं अभी उनकी जद में नहीं आया था. मैं किताब जांघ पर रख बहुत ही बेसब्री से मां की आवाज का इंतजार करता था कि कब वह खाने की मुनादी लगाए, चलो आ जाओ, खाना लग गया है और कब मैं किताब बंद कर भूख से बिलबिलाते पेट को शांत करूं.

मुझे भूख की भी याद है कि कैसे किताब हाथ में लेते ही वह मुझे परेशान करने लगती थी. भूख लगती भी क्यों न. मैं सुबह से ही तो खेलने लगता था.

खेल भी सब सीजन के हिसाब से होते थे. जैसे बारिशों में हम अलग खेल खेलते थे, गर्मियों में अलग और जाड़ों में अलग. लेकिन कंचों का खेल सदाबहार था. मेरे पास दो डिब्बे थे, जो कंचों से भरे हुए थे. इनमें से एक भी कंचा खरीदा हुआ नहीं था, सारे जीते हुए थे. कंचे के जितने भी खेल होते थे, मैं लगभग हर खेल में निपुण था और मेरी धाक पास वाली गलियों के बच्चों में भी थी. किसी भी खेल में अव्वल होने के लिए अभ्यास के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता. मैंने भी कोई समझौता नहीं किया.

मुझे जब भी समय मिला मैंने कंचे खेलने का अभ्यास किया. समय निकालकर मैंने अभ्यास किया. मेरी बीच वाली उंगली का लचीलापन देखते बनता था. वह गुलेल के रबड़ की तरह खिंचती चली जाती थी. इसी उंगली पर कंचा फंसाया जाता था. मैं दस-दस फुट दूर कंचों पर भी तड़ाक-तड़ाक सीधा निशाना मारता था. ऐसा निशाना लगाने की काबिलियत घंटों-घंटों लंबे अभ्यास की देन थी. मैं कंचों से निशाना लगाने में उसी तरह पारंगत हो गया था, जिस तरह कि जंगल में साधना करके एकलव्य तीर चलाने में पारंगत हुआ था.

दिल्ली में गर्मियों के दिनों में दोपहर में सभी लंच के बाद सो जाते हैं. पर मुझे नींद नहीं आती थी. मैं पिता की घर में अनुपस्थिति का हर हाल पर सुख भोगने की फिराक में रहता था. लेकिन अकेला खेलूं भी तो क्या. तब ये कंचे ही मेरे काम आते थे. यह किसी तपती दोपहर में इसी तरह अकेले ही कंचों से खेलने के दौरान मेरे मन में यह खयाल आया कि मैं कृष्ण की तरह ही मनुष्य के रूप में ईश्वर का कोई अवतार हूं. लेकिन यह बात साबित कैसे होती. तो इसे साबित करने के लिए मैंने शर्त रखी कि अगर मैं एक निश्चित दूरी पर रखे कंचे पर दस बार सही निशाना लगा दूं, तो भगवान का अवतार होने वाली यह बात सही होगी और अगर एक बार भी निशाना चूक गया, तो मैं इसे गलत मान लूंगा.

अब जब दांव पर खुद का भगवान होना लगा हुआ हो, तो जाहिर था कि मैं साम दाम दंड भेद कुछ भी करके दांव जीतने की कोशिश करता. शुरू में मैं कंचे और अपने बीच ज्यादा दूरी रखकर चुनौती को कठिन बना देता, पर जब दस के दस निशाने नहीं लग पाते, तो ईश्वर से एक और मौका देने की दरख्वास्त करते हुए दूरी को थोड़ा कम कर देता. जाहिर है कि ऐसा साथ खेलने वाले किसी लड़के के साथ करता, तो वह मुझपर चीटिंग का इल्जाम लगाते हुए उठकर चल देता, पर ईश्वर की मजबूरी थी कि वह कहीं जा नहीं सकता था. उसे हर जगह जो मौजूद रहना होता है. चुनौती देने का यह खेल तब तक चलता रहता जब तक कि दस के दस निशाने सही नहीं लग जाते, चाहे इसके लिए कंचे की दूरी चुनौतीपूर्ण कहे जाने की सीमा को लांघने लगती और मैं आश्वस्त नहीं हो जाता कि हां, मैं कृष्ण की तरह वाकई ईश्वर का एक अवतार हूं. जिन्होंने मेरा ज्ञानपीठ से प्रकाशित दूसरा कविता संग्रह ‘एक दुनिया है असंख्य’ पढ़ा है, उन्होंने उसमें एक कविता ‘कृष्ण और मैं’ जरूर पढ़ी होगी. इस कविता में मैंने कंचों वाले इस किस्से को बयां किया है.

बरसात के दिनों में जब कंचों का खेल नहीं चल रहा होता था, क्योंकि गीली जमीन पर कंचे खेलने में मजा नहीं आता था, हालांकि बरसात में भी मैंने खूब कंचे खेले, मैं किसी न किसी दूसरे खेल में डूबा रहता. दिल्ली में पंद्रह अगस्त आने से पहले आसमान में तिरंगी पतंगें लहराने लगती. मेरी मां मुझे इतने पैसे नहीं देती थी कि मैं घर में दस-बारह पतंगों का स्टॉक रख सकूं, पर इतनी पतंगें भी जिस बच्चे के पास नहीं हुई वह क्या स्वतंत्रता दिवस मनाएगा क्योंकि उस दिन तो सुबह से ही पेंचे लड़ाने शुरू हो जाते थे और कुछ पता नहीं होता था कि कितनी पतंगे कटेंगी. इसलिए अपना स्टॉक खुद बनाने के लिए मुझे दो बातें सुनिश्चित करनी पड़ती थीं. पहली कि मैं ज्यादा से ज्यादा कटी हुई पतंगें लूटूं और दूसरा यह कि इन पतंगों को उड़ाते हुए जब मैं पेचे लड़ाऊं, तो मांजा ऐसा हो कि दूसरों की पतंग ज्यादा कटे मेरी कम.

पतंग लूटने के लिए छतों में गश्त करनी पड़ती थी. कई बार कटी हुई पतंग लहराते हुए सामने की सड़क के दूसरी ओर गन्ने के खेतों में चली जाती या पेड़ों और बिजली के तारों में अटक जाती. मैं चूंकि सात-आठ साल का ही था और लूटने वालों में नवीं-दसवीं में पढ़ने वाले मुझसे कहीं लंबे लड़के भी शामिल होते थे, इसलिए पतंग लूटने के कार्यक्रम के दौरान मैं हमेशा किसी पेड़ की टहनी या बांस के लंबे बंबू से लैस रहता था. बिजली के तारों में फंसी हुई पतंग को निकालने का भी हमारे पास तरीका था. हम धागे में पत्थर बांधकर उसे बार-बार ऊपर फेंकते और किसी तरह तार में अटकी पतंग की डोर में फंसा देते और नीचे खींच लेते.

पतंग लूटने के लिए मैंने जाने कितनी बार सड़क पर चलती गाड़ियों के ड्राइवरों से गाली खाई याद नहीं. वे ड्राइवर कैसे समझते कि मामला छोटा-मोटा नहीं था, इतने लड़कों के बीच पतंग लूटने का था, दांव पर पूरी प्रतिष्ठा लगी हुई रहती थी. कई बार कटी हुई पतंग हाथ नहीं आती, तो मैं टूटी हुई सद्दी (सफेद रंग का पतंग उड़ाने वाला धागा) या टूटा मांजा लूटकर अपनी प्रतिष्ठा बचाता था. ईमानदारी से कहूं तो पतंग लूटने के मामले में मेरा कोई सानी न था क्योंकि मैं बहुत जोखिम उठाता था. पाइपों के जरिए छतों पर चढ़ने से लेकर पेड़ों पर चढ़ने और दीवारों से कूदने तक ऐसा कुछ न था, जो मैं नहीं करता था. यानी कटी पतंगें लूटकर मैं अपना स्टॉक अच्छा बना लेता था. अब बारी थी पेचे लड़ाकर दूसरों की पतंग काटने की. असली इज्जत तो यहीं दांव पर लगी रहती थी क्योंकि सब छज्जों पर चढ़कर पतंग उड़ाते थे और सबको पता चल जाता था कि किसकी पतंग कटी है. पहले तो काटने वाला ही जोर से चिल्लाता – वो काटा! और फिर बाकी लोग भी एक साथ चिल्लाते और जिसकी पतंग कटती वह दोनों हाथों से तेजी से मांजा और सद्दी सपेटता क्योंकि उसका सिरा मेरे जैसे किसी के हाथ पड़ जाता, तो धागा भी लुट जाता.

सारा खेल धागे का ही तो था. जिसका धागा जितना मजबूत वह उतना बड़ा बादशाह. यह यूं ही नहीं था कि मैं पेचे लड़ाने के मामले में दूसरों पर भारी पड़ता था. पेचे लड़ाने की अपनी कला थी. शुरू में ढील देनी होती है ताकि दूसरे का मांजा हमारे मांजे पर फिसलता रहे, एक ही जगह पर असर न करे. ढील देकर फिर अचानक धागे में तेज खिंचाव पैदा करना पड़ता है. मैं अपने मांजे को कड़क बनाने के लिए बहुत मेहनत करता था. इसके लिए मुझे कूड़ेदान से फ्यूज पड़े बल्ब ढूंढकर लाने पड़ते थे. उन बल्बों को तोड़कर और उनके कांच का बारीक बुरादा बनाकर उसे आटे में मिलाया जाता और तब मैं मांजे को उसके लेप में डुबोकर निकालता. बड़ा भाई इस काम में मेरी कतई मदद न करता था, तो मुझे अपने दोस्तों को कोई न कोई लालच देकर बुलाना पड़ता.

यह सब क्रियाकलाप पिता से तो खैर छिपाना ही पड़ता था, मां को भी मैं भनक नहीं लगने देता कि उसके आटे के कनस्तर से मैंने चार-चार कटोरे भरकर आटा इस्तेमाल कर लिया है. पता चलने पर मेरे गालों पर उसकी उंगलियों के निशान तय थे. मांजे को बल्ब के शीशे के चूरे की मदद से एकदम कड़क बनाने के बाद सद्दी पर भी मोम लगाई जाती क्योंकि दुश्मन हमला सद्दी पर ही करने की कोशिश करता है. पंद्रह अगस्त के आसपास मैं सिर्फ और सिर्फ पतंगों की दुनिया में खोया रहता. मैंने खराब वक्त आने पर अखबार और पन्नियों की भी पतंग बनाकर उड़ाई और अच्छा वक्त आने पर कटी हुई पतंगें बेचकर पैसे भी कमाए.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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