कला साहित्य

मुरली सी सरसता वाला दीवाना कवि : मुरली दीवान

मुरली दीवान. एक ऐसा नाम जो समकालीन गढ़वाली कवियों में किसी परिचय का मोहताज़ नहीं. एक ऐसा कवि जो कबीर की तरह व्यंग्य को हथियार बनाता है और उन्हीं की तरह ठेठ लोक समाज से शब्द, बिम्ब और विषय भी उठाता है. एक ऐसा कवि जो कविता के सभी फार्मेट्स में लोकप्रिय है, चाहे वो मंचीय कविता हो, पाठकों की कविता हो या नुक्कड़-चौपाल की गप्प-गोष्ठी में शामिल कविता. एक ऐसा कवि जो फुल टाइम कवि नहीं है, जिसके लिए कविता खाए-अघाए लोगों सरीका शौक भी नहीं है. मुरली दीवान गाँव में रहकर खेती-किसानी से जुड़े हुए हैं और चुराये हुए लम्हों में मन के उद्गार को कविता के रूप में व्यक्त करते हैं. Murli Diwan Garhwali Kavi Uttarakhand

अपर गढ़वाल में सबसे पुराने मिडिल स्कूल नागनाथ के समीप के देवर गाँव में 1952 में जन्मे थे मुरली दीवान. औपचारिक शिक्षा उनकी भले ही मात्र इण्टरमीडिएट हो पर समाज को समझने-विश्लेषित करने और लोक की आवाज को कविता में ढालने के हिसाब से उनका कौशल, शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियों पर भारी पड़ता है. मुरली दीवान का गढ़वाली कविता में वही स्थान है जो कुमाँउनी कविता में शेरसिंह बिष्ट अनपढ़ का है. वे अपने सटीक शब्दों, जीवंत शब्दचित्रों और मौलिक बिम्बों के द्वारा ऐसा सम्मोहन सृजित कर देते हैं कि पाठकों-श्रोताओं का उन्हें छोड़ने का मन ही नहीं करता है. दीवान-ए-आम हो या दीवान-ए-खास, मंचीय गढ़वाली कविता के वे ऐसे बेताज़ बादशाह हैं जिनके इस मुकाम पर पहुँचने में स्वर (तरन्नुम), सूरत और सिफारिश की कोई भूमिका नहीं है.

मुरली दीवान की दर्जनों कविताओं के वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं. फुल संगरान्द नाम से एक कविता-संग्रह 2010 में प्रकाशित हो चुका है. इस संग्रह में कुल 29 कविताएँ शामिल हैं. संग्रह की भूमिका में ही दीवान साफगोई से लिखते हैं कि कविता लिखना और फाड़ के फेंक देना का सिलसिला तो बहुत पहले शुरू हो गया था. कविता सुनाना, पहले-पहल शादी-विवाह या चाय-पान की दुकानों की महफिलों तक सीमित रहा पर इन्हें सहेजने की जरूरत तब महसूस हुई जब लोग वही वाली कविता दुबारा सुनाने की मांग करने लगे. ये उनकी कविता की ही ताकत थी कि राजनीतिक रूप से प्रतिद्वंद्वी रह चुके पूर्व काबीना मंत्री राजेन्द्र सिंह भण्डारी और भू-वैज्ञानिक डॉ. एस.पी.सती ने उन्हें प्रमोट किया. दोनों प्रमोटर्स अपने समय में छात्र-राजनीति के भी सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं.

बैकुंठ चतुर्दशी मेला श्रीनगर के मंच से काव्यमंच पर औपचारिक पदार्पण करने वाले मुरली दीवान कलश, उत्सव जैसे मंचों के भी अभिन्न अंग हैं. आज मंचीय गढ़वाली कविता का परिदृश्य ये है कि किसी कवि-सम्मेलन की सूचना पर लोगों की पहली जिज्ञासा यही होती है कि क्या नरेन्द्र सिंह नेगी और मुरली दीवान भी हैं इस कवि सम्मेलन में. Murli Diwan Garhwali Kavi Uttarakhand

फुल संग्रांद में शामिल कविताओं में महिला-विमर्श संग्रह का प्रमुख स्वर दिखायी देता है. कवि ने न सिर्फ पर्वतीय-महिलाओं की कठिन परिस्थितियों को शब्द-चित्रों के माध्यम से उभारा है बल्कि उन्हें पहाड़ के विकास और जीवन की रीढ़ भी माना है. एक पहाड़ी महिला की नियति जो किशोरावस्था में ही विवाहित होकर युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखते ही अभावों और कष्टों में पिसती हुई दुनिया से ही विदा हो जाती है –

रामि तैका घौर आइ छै मेलुड़ी-न्योलि बणीं
आज से छतीस बरस पैलि वैकि ब्योलि बणीं.
डेळि माँ रन्दा छा बैठ्यां, सन्तोष अर धीत जख
पेट भरी भूख खांण ये किसमैं रीत जख.
चैदा बर्स माँ स्य ब्योलि बणीक ससरूड़ा चली
बीस बर्स पूरा नि ह्वे छा स्य पितरकूड़ा चली.

खत कविता में दीवान निरर्थक कर्मकाण्ड पर एक बुढ़िया के जीवन-मरण का शब्दचित्र खींच कर ऐसा व्यंग्य पैदा करते हैं जो कसक पैदा करता है –

जैं बु़ड़ळिन अपणि उमर लोण-र्वटि मां बिताई
तैंकु मुण्ड-गात सब्बि घ्यू मा लत्त-पत्त ह्वैगी.
निमंतरण चिट्ठा-पतरा, इष्टमित्र धी-धियाण
तिरिसु बरसोटि बरमभोज भागवत ह्वैगी.
जिन्दगि भर जथ्या भुज्जि, बुड़ळिन नि खाई होली
तौ द्यौखा खौळा तिर्वाळ, तै से ज्यादा खत ह्वैगी.
यि लड़ीक ब्वारि भौत ज्यादा धरमि-करमि छन
बूड़ छै खराब सिर्फ, परजा एकमत ह्वैगी.

और फिर उम्मीद भी कवि महिलाओं से ही रखते हैं ये समझाते हुए कि तुम्हारे रहते ही इन पहाड़ों में जीवन की चहलकदमी बनी रहेगी. तुम बीजवृक्ष बन कर जो टिकी रहोगी तो देखना पूरा पहाड़ हरा-भरा हो जाएगा.

तु रैली त् मुछाळयूं माँ आग रैली, जाग रैली
नतरि चुलु-चुलु रैंण पड़ीं निरबुस्यांण भुली.
तु रैली त् वखळयूं माँ गंज्याळि ब्वलाणीं रैंली
जान्दरि हिटणीं रैली फजल रतब्यांण भुली.
तु रैली त् धार-गदरू धुवां माँ किरांण रैली
छळयटा पुज्यणां रैला, यखुट्य मसाण भुली.
तु रैली त् बारामास बसंत की भान रैली
पतझ़ड़ भी सुर्र टकस्वीणुं माँ बीति जाण भुली.
तु रैली त् यु डक्वान कौवा, आन्दु जान्दु रैलू
माळुकि घुघतिन घुट, बाडुळि दी जाण भुली.
बौंण-बोट साळि-गोठ, नखर्याळ छुयांळ म्वारि
त्वी नि रैलि जब त् यूंन, बाटु बिरड़ि जाण भुली
तु एक संस्कारवान बिजोर डाळि त् बण
तैका बाद अफ्वी बण्दा, केळाणां-केळाण भुली.

युवा खासकर बेरोजगारों की मनस्थिति और मजबूरियों को भी कवि ने अपनी कविताओं का विषय बनाया है. युवा पीढ़ी की अकर्मण्यता पर करारा व्यंग्य भी किया है.

मजदुरि मां सरम होणीं, रोजगार भी खास चैणू
नरसरि मा गैंति लाणों, मालि बी.ए. पास चैणू.
मन्तरि जी का ध्वौरा जाणौ, पैलि क्वे बदमास चैणू
तै कु मूड सहि कनौ गमगमु गिलास चैणू.
अहो! भगीरथै याद ऐगि ये दिमाग माँ
यरां! कत्ति बर्स रै सु बिचारू जाग-जाग माँ.
पैल्यो भगीरथ सो अज्यूं कैदा से बेकैदा नि ह्वे
तैकि चार क्वी माई कु लाल अज्यूं पैदा नि ह्वे.
आजकला भगीरथ न गणति मां न गांणि मां
नांगै नहेणां सि भितर जल निगमा पांणि मां.
नौकरि न चाकरि भजराम हवलदार होयां
हैळ लगौणौं ब्वना त् बिलकणौ तैयार होयां.
द्वी से जादा भगीरथ भी होला जौं मूं आजकल
पाण्यू लोट्या नीं औटै सक्यणूं तौं मूं आजकल.

पर्यावरण जागरूकता भी उनका वण्र्य विषय है –

हमुनैं लगायि आग, चैपासि यूं बणुं मा
हम त मेल्यौ अफ्वी कना अपड़ु किरियाकरम दिदा
जौड़ै बी काटणूं पापि, निरजड़ु यीं डाळि तैं
अपड़ी औलाद पर, न दया च न धरम दिदा.

कवि ने कुछ दोहे भी लिखे हैं जो अत्यंत प्रभावपूर्ण हैं और ये बताने के लिए काफी हैं कि कवि छोटे छंद में भी अपनी बात प्रभावी और तार्किक रूप में रखने में समर्थ है-

कातिक मास बग्वाळ की, खाडू करदू जाग.
बीच पड़्यां नवरातरा, बिसरि जान्दू निरभाग…
चन्द्रग्रहण-सूरजग्रहण, पल भर कू उकताट.
धरती पर बैठ्याँ छन गरण तीन सौ साठ..
भक्क नि देंण जुबान कभी, गलत होंद परिणाम.
चली गयाँ बनवास माँ, सीता-लछमन-राम..

निचंत कविता की इन पंक्तियों की कलात्मकता और अर्थवत्ता तो देखते ही बनती है. यहाँ न सिर्फ फ्यूंली के कोमल हाथों में र्वींण (पीले अस्थाई निशान जो धनागमन, प्रिय मिलन या मिष्ठान्न प्राप्ति आदि की सूचक मानी जाते हैं) पड़ने का खूबसूरत बिम्ब सृजित किया गया है बल्कि फ्यूंली के बेवफा प्रेमी को दुष्यंत से जोड़ने का भी सुंदर प्रयोग किया है.

वैकु न रैबार न क्वी रंत अब
डरि-डरी आणूं यु बसंत अब
फ्यूंलि कि कौंळि हाथ्यों मा, र्वींणि पड़ीं-पड़ीं रैगि
कति निरदयी ह्वे यु दुष्यंत अब.

परजातंत्र कविता में प्रजातंत्र की विसंगति पर करारा तंज़ है –

परजा पर कसूर लग्यूं चैबाटा मां खाम-खाम
राजा अपणु कत्वौळ्यूं लुकैगि दिदा.
ये डरामा देखि-देखि लालकिला सांका पर
इण्डियागेट कत्ति बक्त र्वेगि दिदा.

कवि पारम्परिक छंदों में रचना करने में भी सिद्धहस्त है. रतब्याँण माँ कविता में मंदाक्रांता छंद का प्रयोग प्रभात का सुंदर वर्णन करने में किया गया है –

उठ खड़ू अब देर न कर बबा, निन्दरा त्याग, अबेर न कर बबा
दस दिशा सब ह्वेगिन हुरमुरी, उजम्याळी अब पूरब की दिशा
घिन्दुड़ि छाँति भितर अब बीजिगे, फुर उड़ैगिन चैक डिपाळ माँ
कुछ कळयौप-खुळ्यांस तखी छना, टुरपुर देखणां छन जिन्दगी.
सुरणि दाबुका बोट भितर बटी, फुर उड़ी अब पेट जुगाड़ माँ
अब नि रैण सुनिन्द दिस्याण माँ, अब नि तोपण मुखड़ि ढिक्याण माँ.

अंग्रेजी के प्रोफेसर और प्रख्यात हिंदी ग़ज़लकार डाॅ.राकेश जोशी, मुरली दीवान की दो-तीन कविताएँ सुनकर ही अत्यंत प्रभावित होकर टिप्पणी करते हैं कि उनको सुनकर कहीं नहीं लगता कि वे कविताएँ सुना रहे हैं. ऐसा लगता है कि बातचीत कर रहे हैं. और, जब कविता और बातचीत दोनों एक हो जाएँ तो कविता जनधर्मी हो जाती है. Murli Diwan Garhwali Kavi Uttarakhand

मुरली दीवान को मंचीय कविता के माध्यम से जानने वालों के दिमाग में उनकी छवि एक ऐसे हास्य कवि की है जो अपनी कविता में व्यंग्य का कुशल प्रयोग करते हुए श्रोताओं को देर तक मंत्रमुग्ध करने में समर्थ हैं. यूट्यूब पर भी उनकी मंगतू, मोबाइल, भरत मिलाप, धार मंगौ गैणुं आदि जो लम्बी कविताएं हैं वे भी उनकी छवि हास्य-व्यंग्य कवि की ही बनाती हैं जबकि वास्तविकता ये है कि मुरली दीवान नौ सुरों वाली मुरली की सरसता वाले ऐसे कवि हैं जिनमें दीवाने सी दीवानगी भी है और सादगी भी. ये दीवानगी कविता के लिए है, समाज से लेकर समाज को लौटाने के लिए है और जैसा देखा वैसा कविता में बताने को लेकर है. उनकी काव्यभाषा आम बोलचाल की सीधी-सहज भाषा है और ऐसा लगता है कि सटीक शब्द और सुविचारित बिम्ब स्वतः ही उनकी जिह्वा-कलम पर प्रकट हो रहे हों. अगर मुरली दीवान जी कविता में लम्बी कविताओं से इतर विविध प्रयोगों वाली छोटी-छोटी कविताएँ भी लिखते रहें तो कोई संदेह नहीं कि उनकी कविताओं के आगामी संग्रह गढ़वाली साहित्य के महत्वपूर्ण विरासत के रूप में संजोए जाएंगे. फूल संगरान्द, कविता संग्रह को पढ़ते हुए एक ऐसी वाटिका में विचरण की अनुभूति होती है जिसमें खिले हुए विविधरंगी, सुगंधित पुष्प अपनी महक से पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं.

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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  • Sir
    Me v kavyamanch join karna chhhta hu iski pocess kya hogi please ye mera bht bada sapna he ❤🙏
    Uttralhandi

  • Sir
    Me v kavyamanch join karna chhhta hu iski pocess kya hogi please ye mera bht bada sapna he ❤🙏
    Uttralhandi
    7037982156

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