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छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : नैन बिछाए बाहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक रही उमंग भरी

जोगा सिंह मास्साब बहुत देर से अपने चेहरे को हाथ की टेक दिए गुपचुप बैठे दिखे. माथे में छोपी ऊनी टोपी के नीचे भवों तक चार रेखाऐं साफ झलक रहीं थी जिन पर लालटेन की झिलमिल पीली रोशनी कभी धुंधलाती फिर झपकती. अचानक उन्होंने अपना आसन बदला और चौखा मोड़ चकारपाठी में बैठ गए.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

संध्या काल था. खुली खिड़की से आती दूधिया रोशनी उनके चेहरे में पड़ रही थी. रसोई में जलती लकड़ियों का धुंवा बाहर से आती ठंडी हवा से घुल-मिल रहा था. कुछ सोच-सोच के मास्साब उदास पड़ जाते थे. दूसरी तरफ भगवती बाबू कुछ अलग ही खुर-बुर में लगे थे. कमरे में रखे ट्रंक और बक्से सरका-खिसका पीछे रखी काठ की संदूकची में कपड़े से लिपटा हारमोनियम निकाल कर उन्होंने फीणे के ऊपर बिछे कालीन पर रख दिया. अगरवाल के दीदे खुल गए. ये हुई न बात. खट्ट से लपक हारमोनियम को उठा चूल्हे के पास मिट्टी के पटाल में वह बड़ी सज से बैठ गया. धोंकनी को बार-बार आगे-पीछे करने में मगन हो गया. फ़वां-फू के अलावा अभी कोई आवाज नहीं आ रही थी. रसोई से पीछे खिसक अब वह वहाँ आ पहुंचा जहां दीप आंख मूंदे कालीन पर पसरा था,दोनों हाथों को मिला उनका तकिया बना,सिर टिकाए.

अचानक ही हारमोनियम की चलती धोंकनी के साथ अगरवाल की उंगलियां रीड पर मचल उठीं. धुन कुछ जानी पहचानी थी कुछ सुनी सी. सही अंदाज अभी लग नहीं रहा था. वैसे भी वह चलताऊ गीत-गजल से परे कुछ ऐसा राग जमाता कि बहारें खिलने लगती या बेचैनी बर्फ की तरह हौले-हौले जमती महसूस होती. गुनगुनाने लगा वह. अरे ये तो गुलजार साब का गीत है. मैंने भी अपना बदन ढीला कर आंखे उनींदी कर ली.

रहने दो
यूँ हीss
यूँ sss ही मुझको
मुझको sssयूँ ही
मुझको यूँ ही उदास रहने दो
रहने दो sss
दो कदम याद साथ आई
मीलों तक है तन्हाई
इक निशान बस रह गया
गम यहां बस गया sss
मुझको यूँ ही उदास रहने दो
जो भी है आसपास रहने दो

यह एक परफेक्ट शॉट था. बगल में रखे निकॉरमेट को एक बटा तीस पर रख और पांच पॉइंट छह के अपरचर पर चेहरा फोकस कर मैंने क्लिक किया. कैमरे की च्याsssक्क के साथ मास्साब की उदेख भरी मुद्रा बदली.चकारपाठी बदल पाँव सीधे किये. गौर से मुझे देख वह बोले अरे.. मैं तो फिर निसु गया हो. वो याद,पिताई,सब बख्तक फेर,समझो निगाव गुसैंक चलता चलाता निहुणी कर,पट्ट पथरीण कर गया. टैम लग गया ये सब्ब चुड़फुड़ाट निमिने में.

तिब्बत के साथ व्यापार का बन्द होना कई सपने धुंधला गया. उहापोह में फंस गए सब,खुचेण हुई ये. पूरे कुनबे को चलाने के लिए क्या करेंगे अब ? क्या कर सकते हैं ? अब खुड़बुजू वाला जमाना गया “? मास्साब बोलते गए.

“बुबू व्यापार के साथ ऊन के काम से खूब मेहनत का मोल पाए थे. बाबा के समय मैं ऊन के काम के साथ पढ़ाई-लिखाई में खूब मगन था तभी ये बज्र पड़ा. भैम थे पहले से. सयाने यही सोचते अब चक्का थमने वाला है. कुल मिला चाल पहले चमकी और आवाज बाद में आई.ऐसा बज्र फटा कि अदिन आ गए. चली रीत अलझी गई. आचे, बाबा, मां, काका-काकी, आनी, आता क्या? भूली को भी यही फिकर कि झुण्ड-झुण्ड आते हुनकरों पर लादे तिब्बत से ऊन के गेबल, उनकी बेलची-गाठें अब कहाँ उतरेंगी? हमारे बकरियों के ढकरिये और घोड़ों के ड्याबा का क्या होगा? अब कहाँ आएगा सरजी? कौन देगा खबर,कि वो समगों,यानी जोहार के आखिरी गांव तक पहुँच गया है और बस कल -परसों पंहुच जाएगा मिलम. आफी चलनेर वाला कारबार अभुगतुण हो गया. ऐसी अब्याल लगी महाराज. उन दिनों की बहुत बड़ी खुशी होती तब जब सरजी के आने की खबर आती.

उसके आने पर सब ओर उज्याव दिखता. इसरो! वो हम नानतिनों का खितखिताट. ग्वाव गुसें सब खुरखुरीन. चमकिल चलायमान. सरजी के पास जाने, उसे चाने की चुल बुलाट , उससे हाथ भी मिलाते. ‘खामजाङ मूसे’ यानी तिब्बती स्टाइल से आवभगत करते. अब अपने मित्र के लिए तमाख भरना, उसको आलू गुटका खिलाना, हलुवे की प्लेट लगाना, ज्या सत्तू घोट- फांट पिलाना, सब सपना हो गया. ऐसा छव लगा महाराज.

वो सरजी मुझे याद है. उसकी झुकी पीठ गर्दन तक बढ़ आये बाल जिनमें लट पड़ गईं दिखती. वह बदन के ऊपर पुराना सा ‘बोखल’ यानी ओवरकोट गदोड़े आता था,मैला -कुचैला कहीं उधड़ा, कई जगह टांके लगा, बनयान रंग का जिससे बास छूटती , हम्म होती, बसैन आती. तिब्बत से माल ले अपने खिल्त यानी कुरते के ऊपर बोखल गदोढ़ सरजी आता तब से उसे कहीं उतारता नहीं. नीचे घुटने से पाँव तक उसने चमड़े के सोल वाले जूते पहने होते जिनको ‘ल्हम’ कहा जाता. ऐसा अजूबा गमबूट जो घुटनों की तरफ ऊन से बना होता और उसके अस्तर में नमदा लगा होता. सरजी उसे बड़ी देर लगा जब खोलता तो सब भुला-भुली यानी भाई-बहिन उससे आई हमकेंण से नाक कस के बंद कर लेते. वह मुस्काता और बिछे दन पर लधर जाता.

हाथ के इशारे से हमें अपने पास बुला वह सबसे पहले भुली के छोटे हाथ पर छिरपी के टुकड़े रखता. एक हथेली भर जाती तो बैणी और मिलेगा की आस में दूसरी हथेली भी बढ़ा देती. सरजी उसमें ‘थूतू’ यानी पनीर के दाने धर देता. ऐसे ही सबकी बारी आती. जब बाबा और काका उसका लाया सामान ढंग से टांज कमरे में आते तो हम बाहर निकल जाते यह देखने कि वहाँ वह क्या -क्या जो लाया है जो इधर-उधर पटका है.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

आँगन में बकरियों की पीठ से उतारे करबछोँ का चट्टा यानी ‘बांगा’ लगा होता. ऊन के बड़े गेबल और बेलची को बकरियों के ढकरिये स्प्रिंग वाली तराजू यानी ‘कौनठों’ से तोलने में सयाने लगे होते. हुनकरों को खोड़ में बंद कर दिया जाता. कैसी अजूबा ऊन की गठरी जैसी दिखतीं ये भेड़ें. ऊन से गोलमटोल हुई डब्बा जैसी कि आंख, कान, खुर के अलावा कहाँ क्या है का कुछ अंदाज ही न लगता. हमारे कुत्ते उन को बार बार सूंघते और कई बार मूतते. सरजी के साथ आये जबर तिब्बती कुत्ते जानवरों वाली कड़ी से बंधे अलग फटफटाट करते, रह -रह गुर्राते भी.. ऐसी जाबिर आवाज कि कान के परदे फट जाएं. रसोई से मीट की खुश्बू आ रही होती. भीतर काका, बाबा और कई अपने बिरादरों के साथ सरजी के आगे चांदी मढ़ी लकड़ी की प्याली यानी द्वाबा में कट्ठी से निकाल कर दारू रख देते. कट्ठी बड़ी लकड़ी की सुराही हुई. साथ में एक बड़े लोटे में जान यानी बियर भी होती. सरजी को दारू पसंद थी. इस बीच घर के लोग उससे गपशप करते. साथ में लाई चीजों के मोल -भाव पता करते. इन सब के बीच दारू और जान की चुस्की चलती रहती. बरफ पिघला कर उसका कुनकुना पानी बड़े जग में रख दिया जाता.

सरजी से माल लेने के बाद अब बाबा, बुबू के स्वागा जाने की तैयारी में पूरा कुनबा लग जाता. स्वागा के लिए पुरांग तिब्बत की ओर जाना होता जो वहाँ की सुन्दर घाटी थी जिसमें छोटी सरिता बहती, आसपास घास से भरे मैदान. मैं सोचता कुछ साल बाद मैं भी जाऊंगा स्वागा. और जाऊंगा ज्ञानीमा मंडी अपने बुबू, बाबा, आनी, काकी-काका , दादी, माँ को मिस्यो कर-उनके पाँव छू.

पर मेरा ये सोचना तो फालतू गया. जैसे ही हाथ -पैरों में दम आई , पता चला अब मित्र नहीं आएंगे. नहीं दिखेगा सरजी, जो अपने चमकू से थैले से निकाल हमें छिर्पी देता, खौकचू के झोले से निकाल थूतू खिलाता. माई के हाथ में हुनकरे की खाल में पैक हुनिघ्यू देता. अब व्योपार को तिब्बत जाते कहाँ जुटेगी वो बरात. क्यों कर बजेंगे- ढोल दमाऊ? न सुनाई देगी हारमोनियम की आवाज और ढोलक की थाप जिसके साथ झूमते- गाते चलते मिरासियों की टोली और हम बच्चे भाग लगाते. उत्ती ठंड-कित्ती अरड़ में भी पसीना निकलता.

फिटकार पड़े इस चीन को, ध्वागबाज. मन होता कि कोई दिख तो जाए चीनी गांठा.चपकोंण दें हरामी को. अब कहाँ ज्ञानीमा की मंडी? कौन जाये ठाजांग, दरचिन, गर्तोक, छाकरा और दारमा व व्यास वालों की मंडी तकलाकोट? सब बजीण निहुँणी कर ग्या. हुणिन दगड़ न्यारहुँण कर ग्यो साल. बखतक फेर भै. घात तो पड़ी बासठ में, खबर सरकार तक पहुँच गई पहले ही कि चीनी जो रास्ता तिब्बत से सिकियाँग होते बना रहे वो हमारी ही धरती अकसाईचिन हो गुजरती है.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

आपको मालूम है सैबो कि वह बैग कौन हुआ जिसने चीन का यह भेद दिल्ली राजधानी तक पहुंचा दिया था? सबका असहमति में सर हिला.

“वो हुआ लक्ष्मण सिंह जंगपागी. इसी जोहार में 24 जुलाई 1904 को जन्मा. बुनियादी लिखाई-पढ़ाई बुर्फू, रांथी और मवानी दबानी गाँवो में की. आगे की पढ़ाई के लिए पहले अल्मोड़ा और फिर इलाहाबाद. चौबीस साल के हुए तो ब्रिटिश ट्रेड एजेंसी शिमला में लेखाकार बने. 1947 में यह एजेंसी शिमला से गंगतोक आ गई. आगे तो 1959 में उनका ट्रांसफर दक्षिणी तिब्बत में यांगतू हुआ जहां वो 1962 में रिटायर होने तक रहे. काम हुआ पश्चिमी तिब्बत की मंडियों के दौरे के साथ कैलास मानसरोवर यात्रा करने वाले देशवासियों की सुरक्षा के साथ व्यापारियों की सुविधा का इंतज़ाम. कठिन रास्तों व दर्रो पर घोड़े-याक की सवारी से और इससे ज्यादा पैदल चले.कम भी नहीं तीस साल से ज्यादा.

कुलदीप नय्यर ने अपनी किताब ‘इण्डिया द क्रिटिकल इयर्स’ में लिखा है कि भारत की जमीन पर चीन के अतिक्रमण व सड़क बनाने की सूचना लक्ष्मण सिंह ने समय पर भारत सरकार को दे दी थी पर सरकार चेती नहीं.

उनकी कार्यकुशलता, कठिन परिश्रम और सद्भावना प्रवृति से प्रभावित हो भारत सरकार ने उन्हें “पद्मश्री” प्रदान की. उनके पिताजी श्री सोबन सिंह जंगपागी पूर्ववत ब्रिटिश सरकार द्वारा राय साहिब की उपाधि से अलंकृत किये गए थे. पुरानी यादों में जोगा सिंह मासाब फिर गुम थे.

बेहिसाब रंग बिरंगे फूलपत्तियों से भरी ये घाटियां जिनमें चमकिल चिलमिलाट भरे कारबार पे चुमुवाट लगी. छटपटाट मच गई अपने साथ अपने जानवरों के लिए भी. ये पशु व्यापारी शौका परिवारों और उनके जीवन के व्यवसाय की सहभागिता में बराबर के साथी रहे. इनकी सबसे अधिक उपयोगिता व्यापार का माल इधर से उधर माल बोकने की थी. पहले का दौर था जब भार वाहक मुख्य जानवर ‘जब्बू’ होता जिसकी गर्दन सुराही दार होती और पूँछ झबरी. ये जब्बू चंवर गाय या याक का संकर होता जिससे इसको रोग भी कम लगते , ये सार बदन होता. ढपिल माना जाता और इसे बोकिया बना प्रजनन क्षमता न होने पर भी इसकी चौल तब भी रही जब भेड़-बकरियों, घोड़े-खच्चरों से माल बोका जाने लगा. जब्बू खेतों में हल भी खींच देता. जैसे-जैसे व्यापार बढ़ा सुस्त चलने के कारण इसका उपयोग कम होता गया. गढ़वाल और दानपुर इलाके से बकरी लाईं गईं तो हिमाचल से भी, सबसे ज्यादा बाकरे आए नेपाल के हुमला-जुमला से. हिमाचल से खुन्नू भेड़ लाईं गईं जिनका ऊन नेपाली भेड़ों से बढ़िया दमदार मुलेम होता था.”

जोधा सिंह मास्साब ने अपनी डबडबाई आंखों से हमारी ओर देखा और बोले, ” हमारे खुड़ बुजू के जमाने में हमेशा हजार बार सौ से ज्यादा लाखा और हुनकरे हुए. मेढा भी हुए जिनको ‘म्यानो’ कहा जाता. सबसे बढ़िया नर भेड़ म्यानो के लिए रखते थे. बाकी नर बघिया कर पहले बोझ ढोने और फिर शिकार के काम आते. हर मौसम में खाने के लिए सूखा मीट भी तैयार होता.दैल फैल हुई. धंधपाणि में होड़ हुई,हुसियारी हुई. ऐसी होसुक में नए जतन हुए.

तिब्बत से व्यापार ठप पड़ने के बाद जब माल असबाब भाबर से आने लगा तो उसे ऊपर की बसासात तक पहुँचाने का जरिया घोड़ा-खच्चर हुआ. पहले के समय में चंवर गाय या याक और जब्बू चलन में रहे. व्यापार बढ़ा तो भेड़-बकरी पर निर्भरता बढ़ी. पहले जोहार के लिए रालम दर्रा पार होता. इसके खास गांव रालम, ल्वाँ, बुर्फू और मिलम थे. जो नया रास्ता खुला तो वह बहुत कठिन व असजीला था. हालांकि जब्बू खूब भार उठाता पर उसकी चाल बड़ी धीमी होती. इसलिए याक व जब्बू की चौल कम होती गई. अब बकरियां और भेड़ें साथ चलतीं. यही हमारा खजाना हुआ. इन्हीं से नेमत हुई. आगे त इष्टो तुई छै जे करले जस करले.”

मास्साब आज रात हमारे ही साथ रुके. खाना खा अब सो जाते हैं कह वह पसर गए और उनके नौराट शुरू हो गए. सुबह जल्दी उठ भैंसखाल की तंग पर खूबसूरत घाटी के रस्ते हम आगे बढ़ चले. यहां रामगंगा नदी बहती है. पश्चिम की ओर ऊँची पर्वत श्रेणी खूब हरियाली से भरी थी. पूरब की पहाड़ी में ढलान पर उगे घने पेड़ों में बांज, तुन और चीड़ की बहुलता थी. आगे चलते घरमोरा पड़ा. भैंसखाल से रसियाबगड़ आया तो उससे आगे टिमटिया जो धर्मसत्तूओं का गाँव बताया गया. इससे आगे रावतों का गांव तेजम. तेजम से आगे कक्करसिंग की ओर बढ़ना हुआ. आज रात टिकने की जगह घरमोरा रही.

यहां रुकते हुए हमारे टेंट तन गए और चाय पानी के लिए पहले से मौजूद चूल्हे भी सुलग गए. यहां तक आते-आते बदन पर लादे कई -कई वस्त्र भारी लगने लगे थे. इन्हें उतार भैंस खाल की नदी के करीब जा खूब नहाने और फिर नदी के किनारों से खूब ढेर मछली पकड़ने का कौतुक हुआ. कुंडल सिंह और सोबन के पास ऐसे कई जतन ऐसी कुड़ बुद्धि मौजूद थी, जिनसे टोकरा भर मछली जुटने में कोई देर नहीं लगी. भगवती बाबू और पुलिस वाले पांडे जी ने पहले ही जता दिया कि वह तो बस रोटी और आलू के थेचूऐ से ही काम चला लेंगे. प्याज़ लसुन भी नहीं चलेगा और आज के दिन भात भी नहीं खाएंगे. एकादशी वाला विधान जो हुआ.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

पांडे जी ने बताया कि नदी के पार बाग भी हैं सो उन्हें भी देख लेना. जहां टेंट लगाया था उसके ऊपर खेत थे और फिर कच्ची सड़क जिसके इनारे-किनारे रोजमर्रा की जरुरत की छोलदारी भी जिसमें आम उपयोग की कई चीजें मौजूद थीं. आज का हमारा कैंपिंग स्थल यानी “थोर” यही था. जल-जमीन-जंगल के साथ ऊँचे पहाड़ की तलहटी पर.

तेजम से आगे चल ककरसिंग होते घरमोरा का सफर तय किया था जहां अनायास ही रामगंगा का प्रवाह तेज दिखता है. नदी से काफी दूर हट रात्रि विश्राम के लिए टेंट लगा. कुण्डल सोबन और गोपाल खटाखट काम में जुट गए. सलाह और टोकाटोकी भगवती बाबू करते रहे और मुझे लगते लगाते मुझे समझाते रहे कि टेंट यहां ‘तरकेप’ कहा जाता है. इनमें छोटा वाला दो पाट का होता है जिसके बीचों-बीच दो सिरों पर डंडियाँ लगती है जिनके सहारे यह खड़ा रहता है. इन डंडियों को “का” कहा जाता है. इस इलाके में अचानक ही बड़ी तेज हवा बहती है, आंधी तूफान का दौर रहता है, ऐसे में “का” को हटा देते हैं जिससे टेंट गिर जाता है. यह क्रिया “तरकेप झपकाना” कही जाती है. गिरे टेंट के ऊपर बड़े पत्थर भी रखे जाते हैं और ओने-कोने कीलें भी ठोक दी जाती हैं. ऐसा न करें तो आंधी तूफान से टेंट के साथ ही खाने पीने ओढ़ने-बिछाने का सारा माल-असबाब न जाने कितनी दूर की पहाड़ियों तक उड़ जाये.

शुक्र है कि उस दिन न तो कोई झंझावत आया और न ही बारिश पड़ी. एक ही टेंट में हम सब अटा गए. कुण्डल और सोबन मछली साफ करने और उन्हें तलने-भूनने के काम में जुटे. दूसरे चूल्हे में पहाड़ी आलू पत्थर से थेच हल्द-खुशाणी का घोल बना पांडे जी थेचुवा तैयार करते दिखे. मछली के साथ लाल चावल का भात बना खूब गीला-गीला तो लसदार भी. भगवती बाबू ने रोटियां सेंकी अपने और पांडे जी के लिए. उनके झोले से काले चूख की शीशी भी निकली जिनसे बनी चटपट खूब ही खट्टी चटनी. मैं तो देख कर ही हैरान था कि जिस रफ़्तार से मछली तली जा रही थी उससे कहीं तेज अपनी पार्टी उन्हें उदरस्त कर कढ़ाई की ओर टूंगने लगती जिससे सरसों के तेल की झांस आ रही थी. मेरी और दीप की फरमाइश पर झोल भी बना जिसे भात में मिला खूब सपोड़ा गया. रात चांदनी थी. घरमोरा गाँव में बहती नदी की मंद-मंद सरकने-बहने की आवाज लोरी सुना रही थी.बस रात भर कई सेकिंडों तक सड़ेन पादें अगरवाला के तले से फूटती रहीं जिसने मछली की ओवरडोज़ भस्का ऐसी भूम भट्ट की कि उसे बीच से हटा टेंट के कोने को थोड़ा खोल हवा आने लायक छेद बना कर ठेल दिया गया.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

महाडरपोक हुआ वह जानवरों के भय से. जब चलता-चढ़ता तो हमेशा बीच में बने रहता और सोता भी बीच वाली जगह में. कुण्डल ने अलग उसे डरा रखा था कि यहां तो ‘च्यान्गु’ आता है बस सीधे टपकाता है. डरते-सहमे उसने दीप से पूछा कि भाई ये च्यान्गु क्या बला है तो उसने कहा ये हुआ स्नो लेपॉर्ड. कुण्डल ने हमें भी चेताया कि गाना भले ही बढ़िया गादें साब, पर हुए पक्क अलीत. खूब स्वेर बेर चढ़म्म चड़के बेर ऐसी ढयरैन, गुवेंन बास ऊँ कि,के कूँ. पक्क हुणिनोक बिरादर भै हो. पहली ही रात साथ टेंट में सोये तभी कुण्डल ने सावधान कर दिया कि ये त सैबो नीदम घोंणाठ-भौणाठ करनेर भै, बाब्बा हो. बस अपने पुलिस पांडे जी की अगरवाला से हर पल पटी रहती. इसकी वजह साफ थी कि जब भी मौका मिलता वह विविध भारती में मस्त रहते और बिनाका गीत माला की याद और अमीन सयानी की आवाज को बसाए रखते. अगरवाला से इसलिए भी मोहित कि उनकी नजर में शायद वह पहला रमपुरिया लाला होगा जो मिलम चढ़े जा रहा. साथ में उसकी कैपेसिटी जाँचने के प्रयोग में वह पांच लीटर वाला जेरीकेन खतम करते जा रहे. सब भेंट करते रहते हैं, कौन बोके फालतू और प्रेम से दी चीज को बामण मना क्यों करे. हर जगह का टेस्ट करते चलो, बस खोपड़ा न सटके, कदम न भटके.

अगरवाला सारी शायरी और रोमांटिक गीत सुनाते यह उदघोषणा कई बार कर चुका कि अब से वह पियेगा तो बस ये ही बॉर्डर वाली. इसके सामने अंग्रेजी क्या चीज है. ओवर डोज़ की परिणति हर घंटे दो घंटे में टेंट के बाहर जा ठोस द्रव के निष्काषन में होती रही. बिना किसी चूं चां के वह सोबन को ठुसका मारता और सोबन चलो आप सर, मैं पीछे हूं कह जाता रहा. उसने अपना शिष्य धर्म पूरा निभाया इसलिए उसे छेरुआ बॉडीगार्ड की उपाधि से नवाजा गया. हमने पांडे जी से कहा अब कल से इसे चखती मत देना तो उनने भी झूमते हुए वचन दिया कि ऐसी जड़ी देंगे कि कुछ रिसेगा बहेगा नहीं. कूट-कुटकी का ऐसा संयोग जो हर किसम के छेरुए को सॉलिड में बदल दे.

घरमोरा और रामगंगा से आगे भैंसखाल की इस तंग सी घाटी में अनोखी सी बेचैनी, अनगढ़ सी खूबसूरती उस जैव-विविधता में रची बसी दिखी कि डाने-काने,गाड़-गध्यार, गाड़-भिड़, गार-माट, बोट-डाव, ढुँग-डाव सब स्वान हो गए. एकदम नई सी मिजात भरे. इनको देखते कदम आगे बढ़ते गए. एकदम तरोताजा जोत थी जो खींचे जा रही थी. दूर दिखते टुक पास आ रहे थे. इस अनूठे सौंदर्य को पार कर अब हम आगे मल्ला भैंस खाल होते हुए रसियाबगड़ और फिर टिमटिया पहुंच गए.

यहीं हमारी भेंट देवराज के काका लक्ष्मण सिंह जी से हुई जो हमारी अगवानी के लिए खाने-पीने का सारा इंतज़ाम कर बेचैनी से इंतज़ार कर रहे थे. उनकी चिंता उस बाघ को ले कर थी जो हफ्ते भर पहले दिन दोपहरी गांव की तरफ सामान बोकते दो डोटियालों को बुरी तरह झिझोड़ गया.झपटा होगा गले पर किन्तु पीठ में रस्सी से बंधे डोके से संतुलन बिगड़ गया. खून चूस न पाया तो चिंगारे मार खुन्योल कर गया. किस्मत भली थी जो चीख पुकार परली धार से चढ़ते लोगों ने सुन ली. तुरंत गांव ले जा घाव साफ कर कित्ती हरी पत्तियों के रस डाले. चकले पाथर पर डोलू घिसी. ‘हजुरो, तुमरो द्यापता देंण हज जौ’ की असीस देते रहे वो दोनों बेतड़ी अंचल के मेट. लक्ष्मण सिंह जी ने हमको चेता दिया कि मुँह में खून लगा बाघ फिर घात में रहता है फरक के आता जरूर है इसलिए अकेले दुकेले न चलें, न रहें. वैसे आगे जो गांव हैं वो खूब भरे पूरे हैं. आबादी भी हुई पर बाघ तो बाघ ही हुआ.

‘तो पता कैसे चले भइये! कि आसपास बाघ है’? थोड़ा झसक गए अगरवाला ने फुसफुसा कर पूछा.

बाघ आस पास होगा तो जले कम्बल जैसी बासैन आएगी. पंछी फड़फड़ा उड़ जायेंगे. चौपाये भी रेस लगा देंगे. आपुँ अल्बलाट मत करो. अपने अड़यॉट कुकुरों की जोड़ी उसे सूंघते ही भभोड़ने के लिए ख्यात कर देगी हां. टिमटिया के शेर हुए ये.

टिमटिया धर्मसत्तूओं का गांव हुआ तो गांव क्वीटी में रावत रहते रहे. क्वीटी का हरा-भरा फैलाव खूब आकर्षक है जहां बड़े फैले हुए खेत हैं तो पश्चिमी भाग की ओर बने हुए सुन्दर घर-कुड़ियाँ. यहां रावत राठ का बसाव ज्यादा था. लक्ष्मण सिंह जी अब इस इलाके के सोशियल स्ट्रेटिफिकेशन को विस्तार देते बताने लगे कि यहां के जो रावत परिवार हैं वह मिलम के श्री धाम सिंह रावत की वंश बेल हैं. आर्थिक रूप से समृद्ध होने के साथ ही यहां की वित्त व्यवस्था व राजस्व प्रणाली पर हमेशा इनका दखल बना रहा. इलाके की कानून व्यवस्था संभालने के साथ ही कर उगाहने का दायित्व भी उन्होंने संभाला. गंभीर आपराधिक मामलों में मौत की सजा देने तक का फैसला भी उनके हाथ में रहा.

धाम सिंह रावत पंडित नैन सिंह रावत के दादा हुए जिन्हें कुमाऊँ के नरेश दीप चंद ने सन 1735 में गोलमा और कोटाल गांव नजराने में बक्शे. धामा बूढ़ा पट्टी तल्ला के व बिचला जोहार के थोकदार ‘राज-बूढ़ा’ कहे जाते थे. इनके बेटे अमर सिंह ‘लाटा बूढ़ा’ के नाम से जाने गए. इसी जोहार घाटी में 21 अक्टूबर 1830 को जन्मे नैन सिंह ने तिब्बत जा दो हजार मील से अधिक के व्यापार मार्ग का सर्वेक्षण किया. इससे पहले 1859 से 1862 तक वह मिलम के पहले तहसील स्कूल में पढ़ाते रहे. तब अध्यापकों को पंडित नाम से सम्बोधित किया जाता था इसलिए उन्हें पंडित नैन सिंह कहा गया.
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दिसंबर 1864 में नैन सिंह को ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे, देहरादून में नियुक्ति मिली. तिब्बत में किसी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित होने से नैन सिंह को सर्वेक्षण की जिम्मेदारी सरकार ने दी. दिसंबर 1864 से उन्होंने मानी के साथ भेष बदल हाथ में प्रार्थना चक्र व माला ले लामा बन अपनी जिम्मेदारी निभाई. 1865 से 1877 तक की गई पांच यात्राओं के अपने तकनीकी व वैज्ञानिक अवलोकन को उन्होंने “अक्षांस दर्पण” में लिपिबद्ध किया. अरबी-फारसी के साथ संस्कृत की तत्सम शब्दावली युक्त यह रचना हिंदी की मौलिक वैज्ञानिक कृति का गौरव प्राप्त करती है.डॉ राम सिंह जी पंडित नैन सिंह पर जो किताब लिख रहे थे उसमें उन्होंने अक्षांस दर्पण पर बहुत विस्तार से वर्णन किया था. उनके घर में वह पाण्डुलिपि पलटते उन पन्नों पर मेरा ध्यान अटक गया था जो त्रिकोणमिति यानी ट्रिग्नोमेट्री के सिद्धांतों से भरी पड़ी थी. इसका व्यवहारिक प्रयोग कर पंडित नैन सिंह ने अथक मेहनत से भरा सर्वेक्षण कर डाला था. मुझे अनायास ही भोज मास्साब याद आ गए जो हमें गणित पढ़ाते थे और निकट पड़ोसी भी थे. साथ में याद आई लोनी की ट्रिग्नोमेट्री पर किताब जो आज भी मैंने जिल्द लगा सुरक्षित रखी है.

जोहार के साथ देश विदेश में अपनी सोच व नवप्रवर्तन से नाम कमाने वाले दूसरे अन्वेषक पंडित किशन सिंह थे जिनका जन्म सन् 1850 में मिलम में हुआ. सन् 1862 में परगना व्यास की सरकारी पाठशाला में पढ़ने के बाद वह अपने बड़े चचेरे भाई पंडित नैन सिंह के साथ उनके ही स्कूल में सहायक रहे. फिर नार्मल स्कूल अल्मोड़ा से तहसील मुदर्रिसी का प्रमाण पत्र ले दो साल मिलम की कन्या पाठशाला व फिर साल भर गर्बयांग में पढ़ाते रहे. सन 1867 में उन्होंने भारतीय सर्वेक्षण विभाग देहरादून में सेवा कार्य आरम्भ किया. नौ वर्षो से अधिक अवधि में की गई उनकी चार सर्वेक्षण यात्राओं से ऐसी साहसिक खोजबीन दिखी जिसके लिए उन्हें राय बहादुर का ख़िताब दिया गया.साथ ही सीतापुर यूनाइटेड प्रोविन्स में एक गांव जागीर में मिला. इसके साथ ही लंदन की ज्योग्रेफिकल सोसाइटी से सोने की घड़ी व पांच सौ रूपये नगद, पेरिस व इटली की ज्योग्रे फिकल सोसाइटी से गोल्ड मैडल मिले जो उनके मिलम से ‘रावण ह्रद’ या मान सरोवर व करनाली नदी से आगे कटाई घाट मायापुर की 1877 में संपन्न यात्रा व 1878 से 1882 तक दार्जिलिंग से ल्हासा व मंगोलिया की दो हजार आठ सौ किलोमीटर लम्बी यात्रा का पुरस्कार थीं.

यह इस इलाके का पहला सर्वेक्षण था जिसमें खोज -परख एशिया की तीन महत्वपूर्ण नदियों -मेकांग, सालबीन व इरावदी के उदगम क्षेत्र तक जा कर की गई थी. इन यात्राओं में पंडित किशन सिंह ने लुटेरों का भी सामना किया. यॉरकंद से काशगर के बीच तो दो सौ मील के सर्वे में उन्हें ऐसा वीरान इलाका भी मिला जहां कोई बसासात न थी. इन दो मुख्य यात्राओं के बीच वह 1872 में मिलम से मानसरोवर होते शिगाचे, नमंछे पिंड रीनार होते ल्हासा व वापसी में शिमांचे होते मिलम पहुंचे.फिर अगले ही वर्ष 1873 में वह लद्दाख से यारकंद व सीरदयांग गोल्ड फील्ड तक गए व सर्वेक्षण करते मेलम्यू होते पाङ गाङ छो तालाब होते लद्दाख लौटे. पंडित ए. के. के छद्म नाम से भी जाने गए. राय बहादुर किशन सिंह रावत ने जोहार इलाके के सामाजिक व आर्थिक सुधार कार्य ऐसी भावना से आरम्भ किये जिन्हें अमली जामा पहनाने के लिए लोग एकजुट होते गए. वह 1913 में जोहार उपकारिणी महासभा के संरक्षक चुने गए.

टिमटिया से लक्ष्मण सिंह जी से विदा ले हम अगली सुबह क्वीटी से आगे बढ़े. नदी के दूसरी ओर यहां के खास मेल-मिलाप की बानगी पेश करता नजारा दिखा जो नदी के वार से ऊपर बड़ी पर्वत श्रृंखला से झरता ‘छीण’ यानी झरना था.एकटक देखे रह गए. लगा कि आसमान से निकल आकाशगंगा इठलाती-बलखाती जमीन से मिलने को बेकरार हो और फिसल- फिसल आए. ऐसी रिमझिम ऐसी फुहार जो बस धीरे-धीरे भिगोये और फिर थुरथुरा दे. कपड़ों की कितनी तहों के सबसे भीतर गाँधी आश्रम की बंडी में रखे नोट तक भिगा दिए इस फुहार ने. दीप भी खूब तर हुआ. इतना भीग के चलने से असज हो चीड़ मच गई. भला हो नदी के किनारे होते बगड़ के सीधे से बाट और बदन सेकते देते सूरज का जिसने सारी आद सब गीलापन हर लिया.

आगे बढ़ते गए तो आया फूली गांव,जो नदी के इनारे-किनारे बसा है. दूर लम्बे पतले खेत या कात दिखते हैं, उबड़ खाबड़ पत्थर पसरे हैं जिन्हें रिहड़ कहते हैं तो नीचे भ्योल. यहां दूसरा प्रपात है जो आगे रातापानी की ओर चलते हुए दिखने लगता है. “पखाण से झरते पाणित्वाप पूरा नाणध्वेण करा देते हैं”. जी भर के पानी से तरबतर हो कुण्डल बोला.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

यह प्रपात गिरगांव की चढ़ाई चढ़ते बिर्थी गांव के पास है. हजार फिट की ऊंचाई से भी कहीं अधिक से झरता हुआ इसका एकदम दूधिया पानी नीचे उतरती बूंदो को खंडित करता त्युशार में बदल देता है. वहीं नीचे इसके स्पर्श में बैठ जाओ तो लगता है कि द्यो पड़ने लगा है त्वाप-त्वाप,छिटमिट-छिटमिट जैसे झुमझुमी बारिश हो रही हो. तौरान कर देने वाली. जगह ऐसी कि गिरगांव तक खड़ी चढ़ाई चढ़ने में बदन से चूता पसीना यहां बहती शीतल हवा के झोंको से सूख शरीर को तरोताजा कर ही दे.

इससे आगे पड़ता है बनीक तो और आगे रातापानी. कई जगहों के कई नाम उनकी विशेषताओं को देख रखे जाते हैं जैसे रातापानी में पानी भी खूब ठंडा तो ठंड की कुड़कुड़ाट भी खूब ,चाहे कितना ही पहन लो ढक लो ओढ़ लो. चलते चलाते, लोगों से बात करते, परियोजना की प्रश्नावली भरते, आज के ठहराव का स्थल आ गया. तरकेप यानी टेंट डालने में उस्ताद कुण्डल, सोबन और भगवती बाबू जुटे तो चाय का जिम्मा पांडे जू पुलिस व दीप ने संभाला. दीप तो चूल्हे में लकड़ी डाल, झिकड़े-मिकड़े आड़े -तिरछे कर, ऐसी फू-फू करता कि चूल्हा फौरन आग पकड़ता.चाय चढ़ते देख पांडे जू ने थैले से खजूरे निकाले. आटे के साथ सूजी-गुड़-तिल मिले. दाँतों से कुट्ट टूटें और खट्ट मुँह में घुलें. खजूरों की तारीफ हुई तो जरा शरमाते हुए बताया कि आजकल उनकी घरवाली पिथौरागढ़ ही हैं साथ. उन्ने ही बनाए. पुठपीड़ से परेशान हो गईं थी सो अल्मोड़ा अपने पिलखा गांव से बुला लिया और डॉ नवीन चंद्र पाठक के इलाज से बड़ा फायदा हो गया. पिथौरागढ़ रहते गांव में छूटे अपनी गैया-बाछ-कुकुरे-बिराऊ की नराई लगती है तो उसांस भर बाटुली लगाती है.

ये बाठुली क्या हुआ भइये? अपने झोले में थोड़ी-थोड़ी देर बाद हाथ डाल ,मुँह में चपैण की चबौण करता अगरवाला पूछ बैठा.काजू बादाम टूंगता रहता है वक्त बेवक़्त.

“बाटुकी याने हिचकी जिसके आने पर, रह-रह आने पर कोई वह याद करे जिसका नाम लेते ही बाटुकी आना थम जाये”. पांडे जी ने त्वरित समाधान किया.

 “भई पांडेजी, हमें तो ना आई ये बाटू s ली, वैसे है भी कौन जो हमारी याद करे.”

“दिल से कोई याद करे तब लगती है ये प्यारे “. दीप ने मुस्कुरा कर उसके कंधे पर हाथ रख कहा.

 “अरेss’! ये बात जान अगरवाला इत्ता उदास हो गया कि उसकी एक बड़ी व दूसरी कुछ छोटी,भूरे-लाल डोरे पड़ी आँखों ने, ‘कफस उदास है यारो,सबा से कुछ तो कहो’ बिखेरना शुरू कर दिया.

अब उसके नयन एक ही जगह टिक गए ,मानो त्राटक सध रहा हो. ये वही बदगुमां -बदनाम आँखें रहीं जिनके एकटक ताड़ने के इतिहास व दीर्घ समय अवधि भंगिमा से खास तौर पर महाविद्यालय स्टॉफ की महिलाएं चिढ़ी- भुनी रहतीं तो छात्राएं खिस- खिस कर मजे लेतीं.

आँखों के इस दंश से यात्रा में कोई बखेड़ा न हो ये हमारी मेजर प्रॉब्लम थी. अब यार हमारा हुआ भले ही थोड़ा चकाल-चकान, इस घुरण अदा से घुराल निक नेम पाया. गिदंण से योगक्षेम हासिल किया. कितनों को खुस्याणी लगाएगा लम्बे सफर में, इसकी प्रोबेबिलिटी बहुत ज्यादा हुई. फिर हम सब लोग अकादमिक हुए जिनकी कोई भी अदा कुनैत-कुपाणी तो होनी ही नहीं चाहिए. इसी के तोड़ के लिए दीप ने ऐसा ट्रम्प कार्ड चला कि प्रॉब्लम जड़ से खतम होती दिखी. दीप ने कहा कि भाई हम तो हुए पहाड़ी, बचपन से पहाड़ पे चढ़े-उतरे. पर तुम इतना ऊँचा पहली बार अपनी जिद से चढ़ रहे हो. इत्ती ऊंचाई पे कहीं सन बर्न न हो जाये. साथ ही तेज चमकते घाम से आँखों की रोशनी मंद न पड़े.

अतः सावधानी चाहिए. खोपड़ी पर कैप, कान और गले में ऊनी मफलर और मदहोश सी आँखों में काला चश्मा जरूर रहे. क्या जमोगे तुम गोगल चश्मे में. ऐसी तुर्रम तारीफ से उसका पोर-पोर खिल-खिल गया. किसी के कहने की देर हो कि क्या गाया भई? आज तो पूरे रामपुरिये टशन में हो, तो अगरवाला बदन खुशी से ऐसा चटक-मटक जाता जैसे कि चीड़ के ठीठे आग पाड़ने पर खुल-खुल जाते हैं. फौरन उसकी तरफ से दावत का भी फरमान जारी हो जाता. सूखा-गीला सब. पिथौरागढ़ के छावनी इलाके में भी उसकी घुसपैठ पक्की थी. फौजियों की धर्मपत्नियों की इंग्लिश रवां करने की क्लासेज वाला मार्केट उसने खोल डाला ही था. सो उसके स्टॉक तरल रहते. जो भी प्रतिदान मिल जाये भले ही वह नवल हो हर्कुलिस या कोई और घोड़िया रम, बस बाटली भरी हो.फिलवख्त इस बाटुली इपिसोड ने उसे इतना गमजदा कर दिया कि उसकी केंद्रीय लक्ष्य साधती आंखे जिसका एकनिष्ट जोग,अज्ञानी घूरना समझ लेते शीशे पर जमते कोहरे की टपकन भरी नमी वाली उदासी फैलाने लगी.

‘ओ ईजा! कस निगाव गुसैँक ज हैगो म्यर पोथी’. पांडे जी कुनमुनाये. बागड़ बिल्ला रो पड़ा सोच वह सावधान भी हो गए. उस पर तरस खा उन्होंने अमल पाणि के सफेद जेरिकन पर ढक्कन की जगह ठूंसे आलू को खींच कर बड़े गिलास में छलकाना ठीक समझा. झम्म से बलमा बूटी से खमीरित द्रव्य की सुवास फैल गई.बाटुली की वेदना बाटली ने हर ली.

फूली गांव से उत्तर पूर्व की ओर मुंशियारी का खलिया टॉप हमें वहीं से दिखाते हुए भगवती बाबू ने कढ़ाई में ढेर आलू और गेठी डाल चूल्हे में उबालने को रख खुर-बुरि शुरू कर दी थी. कुण्डल और सोबन छोटी छापरी ले माछ पकड़ने चल दिए. यहाँ नदी छोटी संकरी सी थी पर उसमें मिलने वाली मछली बड़ी स्वाद होती है जैसी फसक के साथ कुण्डल बोला.यहां सिल बट्टा दिख गया था इसलिए भगवती बाबू को मलासा गया कि आठ-दस लाल मिर्च के साथ दो मुट्ठी राई पीस दें, थोड़ा साबुत धनिया डालना न भूलें. हो जायेगा कह भगवती बाबू ने चेताया कि जल्दी जाओ और तुरत-फुरत आओ, यहां तो खट्ट रात ही पड़ जाती है.

रातापानी तक पहुंचते और निढाल हो थोड़ी देर के लिए बदन को जमीन पर फेंक देने यानी पटै बिसूण से बढ़ कर और सुख कुछ था ही नहीं.सो मैं और दीप तो लधर गए. पांडे जी बड़े ध्यान से कोई रोमांटिक पोएट्री सुन रहे थे जो अगरवाला की कम्पित जिह्वा से फूट रही थी. पांडे जी जिस मंद-मंद मुस्की में थे उस कारण का अनुमान मैं लगा न पाया कि ये आसव की इनरैणी-इंद्रधनुषी आभा से फूट पड़ी है या किसी के लिए सपड़ जाने वाली व दूसरे के लिए नरै लगने वाली बाटुली का दर्द. कुछ देर पड़े रह दीप ने बताया कि पांडे जी की श्रीमती यानी अपनी भौजी ने अंग्रेजी में ऍम ए अल्मोड़ा कॉलेज से किया और वो वहाँ के दिग्गज लेक्चरर बी पी पाण्डे और वहीद ज़फर खान की खास स्टूडेंट रहींथीं. अब बी पी पांडे हुए दीप के बिरादर. पांडे खोला में पडोसी भी, एकदम भलमेंस और हर तरह की खुरबुर में माहिर. होली के साथ शास्त्रीय संगीत के रसिया. दूसरी तरफ ज़फर खान रामपुर के नवाबी खानदान वाला, गर्दन तक लहराते बालों वाला,शेरो शायरी का दीवाना. अब शेरो शायरी और अंग्रेजी में पुख्ता पकड़ बनाए रखने को पैदा करने को अपने पुलिस पांडे अगरवाला की शरण में हैं. किसी भी एंगिल से एहसासे -कमतरी न रहे.तभी देख कैसे तन्मय हो पोएट्री में ध्यान लगा है. वो भी सुनाती होंगी पोएट्री.उसके आंग्ल भाषा में रिस्पॉन्स के लिए भी तो गुरु कृपा चाहिए. आजकल अल्मोड़े से सोर आ गईं हैं पुलिस लाइन.अब होगा दो टप्पे का खेल.

इधर भगवती बाबू के साथ अब उनका एक गुमास्ता भी चला आया था जिसे वो लचकू कह पुकार रहे थे और वह उनके इशारों पर अपनी पूरी फुर्ती से हुक्म की तामील कर रहा था. भगवती बाबू ने बताया कि वह अणवाल था और उसके परिवार के मर्द रसूखदार शौकाओं के जानवर चराते, लाते- ले जाते रहे. अब हुआ ये कि बकरियों के साथ हकाहाक करते एक डाने से घुरी गया. बायें पाँव की कटोरी में चोट पड़ी. बदन में मुख में चिंगारे ही चिंगारे भूड़ में पड़ने से लग गए. पों में छनीचर हुआ पहले से इस लछम के. कदम तो एक जगह टिकें ही नहीं रनकरे के. साल भर गुजरा घिसट-लचक रह गई. अब चौपायों के साथ बहुत लम्बी दूरी तय न कर पाता. जब ज्वान हो गया जुन्ग उगते दिखे तो भगवती बाबू ने गांव में डाक बोकने के लिए सही मान उसे साथ रख लिया. हर महिने तन्खा भी मिलेगी पोस्ट ऑफिस से,यह तो तय हुआ ही.यह बात उसके बाज्यू की अकल में भी समा गई तो अपनी सात औलादों में नंबर तीन के क्रम वाले को उन्होंने सरकार के हवाले किया. अपाहिज का ठप्पा पिथौरागढ़ अस्पताल से भगवती बाबू ने सब सटर-पटर कर लगवा दिया. साफ बता दिया कि ये लछम लचकुवा तो उनके ही साथ चलेगा, खायेगा रहेगा.उसने भी विश्वस्त परिचारक बनने में कोई कसर न छोड़ी.मोहिला तो था ही. टेंट लगा, चूल्हे पर लकड़ी सुलगा अभी उसने फौरन बड़े से गिलास में चाय पेश की जिसका अजीब सा रंग देख मैं कुछ पूछता तो पहले ही उसने बताया कि तुमुरे लिए ये स्पेसयल चा बना दी अज्वेन वाली, चाखो त*** .

चाय पान के बीच भगवती बाबू का आदेश हुआ कि लचकू डियर, खूब लकड़ी बटोर के लगा दे. रातापानी के इलाके में खूब ठंड होती है. हाड़ों में कुड़कुड़ाट वाली. फिर मुझसे बोले अभी तो सूरज ढला नहीं है,थोड़ी देर में वो छुपा तो फिर एकदम ही अन्यारा हुआ. हां!हो. आप तो फोटो वाले हुए. बस कैमरा तैयार रक्खो. रातापानी सा सूर्यास्त कहीं नहीं मिलेगा.

आज के दिन प्रकृति के इतने अनोखे किनिखौरे रूप दिख गए जो एक साथ एक ही इलाके में पहले कभी देखे न थे. आसमान छूते पहाड़ थे. जंगल से भरी पहाड़ी, दूर तक फैले खेत, बीच बीच में शिलाखंडो के बीच दिखती गह्वर गुफाएं -‘उडयार ‘, अलग अलग किसम के पत्थर, जिनके रंगों में भी भारी विभिन्नता थी. नदी के किनारे बिल्कुल चिकने सपाट हो गए गोल वरतुला कार पाथर.

यहां तीव्र वेग से बहती नदी तो कल-कल मंद विचरण करती सरिता, छोटे-मोटे गाड़ गधेरे तो हुए ही. नदी के दूसरी तरफ हजारों फिट ऊपर से छलकता झरना. अभी तक हौला फैल रहा था अब हाव यानी हवा का सुसाट. होते होते तेज हवा जिसे पहाड़ी में सैट कहते हैं बही फिर उमड़ पड़े बदरा और हवा के तेज-तेज होते झोंके,जो थमे तो बरस पड़ी तड़ -तड़ बारिश-सतरौव कहते जिसे. बादलों का टकराना, बज्र की कान फोड़ आवाज के साथ जमीन में कम्प. अचानक ही बरखा का थम जाना और फिर धूप के दर्शन. ये हुआ ऊपरी  हिमाल का इंद्रजाल.

फरको हो शाब जल्दी. खट्ट अनियारा होता है यहाँ. नीचे गाड़ में पानी खाने भी आते हैं जनावर. करते तो कुछ नी. पर जनावर ही हुए. फिर वो कमिनजात खसम खाणा भालु हुआ स्साला. ख्यात पड़ता है, चिड़ गया तो चींथ के रख देता है. सैणीयों को तो पकड़ चिक देता है रांडी जात. लचकू बोला. तीन गिंडे बांध उसने अपने सर पर मुझसे टिकवा दिए. पतली टहनियों का गट्ठर अभी जमीन पर ज्योड़े से बंधा पड़ा था. लाओ हो साब अब इस गट्टे को मिरे हाथ में थमाओ.

लचकू जंगल की तरफ रस्सी पकड़े लकड़ी बटोरने चला तभी मैं भी अपना कैमरा स्टैंड पकड़ उसका दगडुआ हो लिया. मेरे साथ चलने पर खुशी से उसके दीदे खुल गए. जहां टेंट लगा था उससे करीब सौ मीटर ही आगे जाने पर नीचे जमीन पर पड़ी सूखी लकड़ियाँ दिखने लगीं और लचकू ने देखते ही देखते उनका गट्ठा भी बटोर लिया.

सामने पहाड़ की वह श्रृंखला थी जिसमें सूर्यास्त होने जा रहा था. उससे कैसे-कैसे वह रंग कुछ देर हुई मूसलाधार बारिश के बाद चटक नीले आसमान में प्रकट होने लगे थे जिनमें गुलाबी परछाई थी, सूरज के इर्द गिर्द बनता सिंदूरी रंग का घेरा था जो धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा था. अचानक ही फिर पीले-बसंती रंग का गोला उभरा और छितरने लगा. सूर्यास्त को खींचने के लिए मैंने कैमरा स्टैंड लगा दिया और उसमें निकोर्मेट एफटी टू पीतल की बॉडी वाला कैमरा फिट कर दिया जिसमें ट्रांसपेरेंसी थी. दूसरे निकोन में ब्लैक एंड व्हाइट 35 एम.एम. फ़िल्म थी जिसे गले में लटका लिया. दो-तीन राउंड में ही लचकू ने खूब मोटी लकड़ियों के गिंडे एकबट्या दिए और अब वह कैमरे के साथ की जा रही मेरी हरकतों को  कौतूहल से एकटक देख रहा था .

रातापानी की हरी भरी पहाड़ियों में एक ओर खूब-खूब सारे आकाश छूते पेड़ों की श्रृंखलाऐं थीं. उनमें मल्ली तरफ देवदार का वन था, सुरई थी. नीचे की ओर पेड़ों के बीच से झाँकते बुरांश के कुछ नाटे से पेड़ थे जो जब मौसम के हिसाब से लाल फूलों से भर जाते होंगे तो यह सारी धरती हरे-लाल रंग के कालीन में बदलती कितना रिझाती होगी.

लचकू की कैमरे पर टिकी कौतुहल मुद्रा को ताड़ मैंने उससे पूछा कि यहां और ऊपर की तरफ क्या क्या है? देखण छाल. कौन से पेड़-बोट हुए यहां ?देखूँ जरा. खट्ट उसने मुझसे कैमरे की ओर इशारा कर सवाल दागा कि कौन-कौन जानवर मरेंगे आपुनकी छोटी बंदूक से. यहां तो भालू-सुंगर भी हुए खूंखार वो नीचे रीगु-मदकोट तक. कितने किसम के बागुण. अपनी हंसी रोक मैंने उसे बताया कि ये तो कैमरा है जिससे फोटो खिंचती हैं. अपने खुले मुँह पर हाथ लगा तब उसकी आवाज आई-फोटुक? जैसी थल मेले में खींचता है डब्बावाला. काला घाघरा डाल बेर. उसकी काला घाघरा डाल फोटो खींचने की उपमा पर मुझे हंसी आ गई. स्टैंड वाले कैमरा में फोटो खींचते फोटोग्राफर लेंस के एक तरफ आँख लगा अपना मुँह काले परदे के भीतर रखते तो दाएं हाथ से लेंस कवर हटा निगेटिव को एक्सपोज़ करते. यही उसने मेले में देखा.

अरेsss ऐसा हुआ ये? मल्लब स्याट्ट से फोटूक निकलेगी यहाँ से? और आपुँ खैँचोगे क्या?

ये सूर्यास्त

मल्लब

जब सूरज डूबेगा उसे खींचूंगा

वो तो रोज ही डूबने वाला ठेरा!

सामने अद्भुत नजारा था. रातापानी से हो रहे सूर्यास्त का. धुंधलाते जा रहे सुर्ख लाल सिंदूरी रंग का गोला धीमे धीमे गुलाबी पीले बसंती में बदल उस चोटी के पीछे गुम हो गया.

उसके कई फ्रेम मैंने कैद कर लिए.

रातापानी से आगे अब कालापानी की चढ़ाई शुरू होती है. कालापानी की चोटी-उसकी धार सूर्यास्त के बाद भी काफी ऊंचाई पर दिख धीरे-धीरे धुंधला रही है. अचानक ही ठंड बढ़ने लगी है और देखते ही देखते अंधेरा छा गया है. खूब लकड़ी बटोर लचकू ने दो जगह आग सुलगाने के जतन कर दिए. सूखी लकड़ी के पूरे-पूरे गिंडे लगा दिए. ये देखो साब धनतारी भड़केगी अब्ब. इसके क्वेले भी खूब गर्मी देंगे. सुबे तक सब ध्वाँस.

इधर खाने पीने की काट-कूट के बीच दो बार चाय कुण्डल दा और सोबन ने लेसुआ गुड़ की कटकी के साथ पिला दी. अगरवाला को ये लेसू गुड़ पसंद न था जो दांतों में चिपकता था. ना ही स्टील के बड़े गिलास में दी हुई चाय जिसे पकड़ने में उसके हाथ जलते थे. अब तामचीनी का एक मग्गू था पांडे जी के पास जिसे वो दिशा मैदान में ले जाते थे. बोतल से छल्ल कर कहाँ होती है धुलाई. दीप ने उसी मग्गू की ओर इशारा किया तो गिलास वाली चाय के साथ मग को हिराकत से देख वह टेंट के भीतर घुस गया.

“चिढ़ी गो दगडू तुमर हो पांडेजू. और त जे ले भै अलीत त पुर छु यो”. कुण्डल ने अपनी कही.

“ठंड में नहाने की तो छोड़ मुख में पाणी भी कहाँ लगाता है?”

दीप मंद स्वर में बोला, “ब्रश करते भी नहीं दिखा. सामने बैठ बात करे या गजल गीत गाये तो ऐसी हमक आए कि छि ss. ऐसे रंडुओं की तरह भी रहते हैं सात वचन निभाए लोग”.  

पांडेजी पुलिस गीत गजल और अंग्रेजी कविता सुनने के रसिया हुए जिसके प्रतिफल में अपने द्रोणाचार्य के लिए लोकल आसव और सूखे मीट की झर-फर में उनने कोई कसर नहीं छोड़ी. उस पर भगवती बाबू का चाकर अपना लचकू, जिसने कल साँझ अपने भाई बन्धुओं के छाने ले जा अगरवाला को पहली धार वाली भभकते ही गरम-गरम घुटका दी. ताजा-ताजा जो थाली में टपकाई जा रही थी. गिलास में डालने की क्या जरुरत. अगरवाला भी औरों को देख गरम-गरम पी गया. किनारे उभरी पीतल की थाली से ही घुट्ट—ुट्ट. खाप भी जली पर उफ़ न की. ऐसी सुपर सेवा से खुश हो रमपुरिये ने पांच की कड़क पत्ती लचकू के हाथ में थमा दी. इतना ही नहीं उसकी भुक्की भी खुले आम ले डाली. दीप ने प्रश्नवाचक नजर से मुझे देख आंख मारी और सिगरेट सुलगा मेरे बगल में बैठ फुसफुसाया, “इस कमचड़ को लौंडेबाजी का शौक तो नहीं होगा कहीं”?

लचकू अब ज्या सत्तू वाली चाय के गिलास ले सबको बाँटने लगा था. दीप ने अपना गिलास पकड़ते उससे चुहल की “तो मजे हो गये तेरे. खूब बड़ा नोट दिया है साब ने.”

एक दश का भी दिया है चखती के वास्ते कि गों पन झाँ मिले ले लेना पूरा कंटर. वो तो मील ही जाती है. ये साब तो खाता भी कम थोड़ी है और हो! खाते ही डायनामेट भी छोड़ता है. गंधरेनी भी खिलानी पड़ेगी इसको. बहुत ही बदबू मारता है sहो स्यार की पाद जैसी”.

“हां! तू दूर ही रहना इससे बहुत लिपट-चिपट मत करना. रमपुरिया खुजली चढ़ती है इसे”.दीप ने उसे बचाये रखने का अस्त्र छोड़ दिया.

“हांsहो! कुण्डल दा भी कै रै थे कि ईश को अलग टेंट में सुलाएंगे अब से. इत्ती गन कौन सूंघे रात भर होss. खाप से भी आती है सड़े छुरी मुस जैसी बास”.

“तीमुरे के दाने तोड़ दूंगा मी. चाबेगा तो जिबड़ी साफ हो जाएगी”.

सुहाने मौसम के साथ रातापानी में विश्राम रहा. कुण्डल दा और सोबन ने पूरी बनाई. तीन चार पूरी के बराबर एक हुई वो भी कडुए तेल में तली. पूरी तरह से फूली और मुलायम भी बनी. भगवती बाबू ने पहले ही कह दिया था कि मुलायम बनाना हो ठाकुर साब,ज्यादा तलोगे तो कड़-कड़ हो जाएंगी. अपने तो दाँत हिलने लगे हैं, चबा नहीं पाएंगे. कुण्डल ने पूरा सर हिलाते आटे को रात के बचे दूध से गूंथते बताया कि बामण के लायक फराल जैसा आटा गूंथ दिया है. मुलायम भी बनेंगे लगड़ और पूरा फूलेंगे तेल में. भगवती बाबू के जिम्मे आलू का थेचुआ बनाने की जिम्मेदारी थी. खूब सारे लम्बे मुंशियारी वाले आलू उबाल के लचकू लोहे के चाकू से उन्हें काटने में लगा था. फिर उसने चार दाने लम्बी बेल में लगने वाले टमाटर काटे.इनका कुछ नाम भी बताया जो मुझे याद न रहा. भगवती बाबू ने पहले ही कह दिया कि ज्यादा मत डालना ये बहुत ही खट्टे होते हैं. लचकू हुआ बड़ा उस्ताद,देखते ही देखते जरा दूर के एक ठिगने से पेड़ के चौड़े पात तोड़ उनको मोड़ पतली टहनी के झाड़ू जैसे डंडो से सटा,उसने पत्तल भी बना दी.

रातापानी से ऊपर कालापानी की धार चढ़नी थी. दूरी भी बहुत ज्यादा न थी इसलिए आराम -आराम से सब तैयारी में थे. बस अगरवाला टेंशन में कि कित्ता पैदल चलना होता है पहाड़ में. इतना मर खप के क्या जीना?

“अब तेरे रामपुर में तो बसेंगे नहीं यहां से हट कर. रमपुरिये चक्कू के अलावा और बनता क्या है वहाँ. कतल वाले सुपारी वाले सब तेरे पड़ोसी. बित्ते-बित्ते लौंडों की जबान पर ठुँसी गाली गलौज. एक हो गये नवाब और तेरे से मिरासी”.

दीप उबल पड़ता जब कोई पहाड़ को ले कर हाय-हाय करता. दीप बहुत शांत स्वभाव का अपने में खोये रहने वाला, अपनी चमकीली आँखों में पलते अनगिनत भावों में मगन रहता. पहाड़ चढ़ने को हमेशा तैयार. अब कोई उसके इस पहले प्रतिमान को खंडित करने की कोशिश करे तो वह ऐसी बातों पर अपने आक्रोश का ऐसा खट्टा मट्ठा डालता कि किच – किचुवे पट्ट.

“इसे लगड़ खिलाओ खूब ठूंसा के, तब आएगी ताकत चढ़ने की. और ये काजू बादाम जो हर घंटे चाब्ता रहता है बंद करे. चना गुड़ खा तब हगेगा जी भर. मार कब्ज के पादता फिर रहा. भगवती बाबू साबुत हरड़ दो इसे”. दीप गणमणाया.

“सब ठीक है हाजमा हमारा. सुबे एक गिलास और चढ़ा गये थे और फ़ारिग भी हो गये”. अब पान मसाले के साथ रामपुरी काला तमाखू मुँह में डालते वह बोला.

“यहां चरने वाले जानवर भी आस-पास नहीं फटकेंगे जहां हग के आया होगा तू. बास तो ऐसी भरी है तेरे भीतर, पूरा अलीत हुआ”.

दीप ने फिर बाण मारा और मेरा एक कैमरा पकड़ बोला,

“चलो सुबह का टाइम है. खींचते हैं अब. आगे से पंचचूली दिखेगी”.

सभी तैयार थे. सोबन अपनी कॉपी में कुछ लिखने में व्यस्त था. उसे बंद कर उसने झोले से प्रश्नवलियाँ निकाली और उनके ऊपर उन गावों के नाम पेंसिल से लिख डाले जहां साग सब्जी, फल,आलू, मसाले, चूवा-फाफर-गेहूं-धान होते. फिर भगवती बाबू से राय ले कुछ और जगहें जोड़ी गई.

पांडेजी ने सुबह सवेरे ही एक बुजुर्ग सज्जन मान सिंह जी से मिलाया जो जूनियर हाई स्कूल में बरसों अध्यापक रहे. अपना कुछ मौका-मुआयना करने पांडे जी चाय पीने के बाद निकल गये थे. मान सिंह जी के बच्चे सब पढ़ लिख ऊँची नौकरियों में थे. बस कुछ दिन उनके साथ रह फिर यहीं अपने गांव लौट आते हैं. पढ़ाई लिखाई से कहाँ से कहाँ पहुँच गए. अब पढ़ने लिखने का चलन भी जोहार में पुराना रहा. आगे बातों में उन्होंने बताया कि मिलम में सन 1825 में इमदादी यानी वेर्नाकुलर स्कूल खुल गया था जिसके पीछे कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल की प्रेरणा थी. अल्मोड़ा में लंदन मिशन का काम संभाले मिस्टर वुडन थे जिनकी कोशिशों से सन 1853 से मिलम के निवासियों के उत्क्रमण के साथ दरकोट एवम वास कुनधार, भैंस खाल में माइग्रेटरी प्राइमरी स्कूल चलने लगा. मिस्टर वुडन की बेटी मेरी ने सन 1892 में इसे पूरी तरह मिशन स्कूल बनाया जो सन 1917 तक उनकी छत्र छाया में चलते रहा. 1917 में मिस मेरी की अचानक मृत्यु हो गई पर अल्मोड़ा मिशन जनवरी 1926 तक इसे संचालित करते रहा. जब अल्मोड़ा के लंदन मिशन का स्थानांतरण अमेरिकन मेथोडिस्ट चर्च को हुआ तो उसने अपनी मिलम की संपत्ति बेच दी और भैंस खाल व वासकुंधार में स्कूल बंद हो गया. बाद में ये स्कूल मिलम निवासियों के जाड़ों में रहने वाले गांव तेजम, टिमटिया और भैंस खाल के बीच रसिया बगड़ से चला पर कौन से बरस से, इसकी सही जानकारी नहीं मिलती.

मिलम के स्कूल में तो पंडित नैन सिंह कम्पासी 1859 से 1861 तक पहले प्रधानाध्यापक रहे. बाद में तो बुर्फू और फिर अनेक गाँवों में स्कूल खुले. जब ये स्कूल मिशन चलाता था तो दर्जा एक से तीन तक इसमें अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी और ऐच्छिक विषय तिब्बती भी था.

उधर दर्जा पांच से आगे की पढ़ाई के लिए जोहार उपकारिणी सभा और पादरी उत्तम सिंह ने केमचौरा, जलथ में एक माइग्रेटरी स्कूल खोल दिया था 1920 में जो मिलम, केमचौरा व वासकुँधार में मौसम के हिसाब से चलता फिरता था. फिर अल्मोड़ा के मिशन ने दिसंबर 1925 में मिलम स्कूल को बन्द कर इसे डीडीहाट स्थानांतरित कर दिया. कई सालों के बाद स्वामी विद्यानंद सरस्वती ने जुलाई 1946 में तिकसेन में मिडिल स्कूल खोला जिसे अल्मोड़ा के जिला बोर्ड ने नमजला स्थानाँतरित कर दिया.1954 तक इसके प्रधानाध्यापक खुशाल सिंह रावत जी रहे. फिर 1954 से उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे हाई स्कूल व जनवरी 1960 से उच्चीकरण कर इंटर कॉलेज बना दिया. नमजला में जमीन सम्बन्धी विवाद होने से इसे मुंशियारी के एक कोने डांडाधार से चलाया गया. इस विद्यालय की खुशकिस्मती थी कि इसे 1954 से 1964 और फिर 1974 से 1976 तक बिपिन चंद्र जोशी जैसे कर्मठ प्रधानाध्यापक मिले.

खास बात जोहार में ये रही कि कुमाऊँ में अल्मोड़े के बाद लड़कियों की पढ़ाई के लिए यहां 1867 में ही अलग से कन्या पाठशाला खोली गई थी. इसे 1954 में स्थायी रूप से मिलम स्कूल में मिला दिया गया था. फिर बुर्फू में भी बालिका विद्यालय खोला गया पर कई अटक -बटक लगने से वह नहीं चला. आखिर नमजला में 1960 में बालिका विद्यालय खोला गया जिसका भवन खराब होने से विद्यालय रांथी ले जाया गया जो 1965 में हाईस्कूल हो गया. नई बिल्डिंग बनने से यह फिर नमजला से चला व 1989 में इंटर कॉलेज बन गया.पढ़ाई लिखाई की इस लहर से इस इलाके में बाल बच्चों की सही परवरिश हुई. अब साथ में परिवार के साथ चला ऊन के कारबार का हुनर भी हुआ. कुछ नया करने की ललक यहां के सयाने, बड़े बूढ़े और स्कूल विद्यालय के मास्साब जो एक से एक इस दूर दराज के इलाके में आ कर जगा गए वो सब नन्दा भगवती की आशीष हुई. यहां के बच्चे पढ़ लिख इस इलाके से नए काम करने का जोखिम भी उठाते रहे.एक से एक चिराग हुए यहां.

इसी मुनस्यारी तहसील में सिरमोली गाँव हुआ जहां 1934 में अल्मोड़ा जिला बोर्ड के उपाध्यक्ष श्री शेर सिंह रावत जी के घर जिस सपूत ने जन्म लिया उसने तो एवरेस्ट फतह कर दी. हरीश नाम हुआ उसका, हरीश चंद्र सिंह रावत. अठाइस हजार फिट की ऊंचाई के शिखरों पर चढ़ने चलने वाला साहसी. तीस साल की उम्र में त्रिशूली व नंदादेवी पूर्व के आरोहण दल में शामिल तो इससे पहले 1962 में बीस हजार फिट उच्च कांगला शिखर व अगले ही बरस बाइस हजार फिट ऊंचाई पर हाथी पर्वत पर चढ़ गए. फिर 1964 में इक्कीस हजार फिट पर राथेसांग शिखर पर पंहुचे. 1965 में तो कमाल ही कर दिया जब उनतीस हजार फिट पर एवरेस्ट चढ़ गए. इसी क्रम में 1972 में वह नन्दा खाट तथा 1979 में गोमुख स्थित शिवलिंग पर्वत पर चढ़े. पर्वत शिखरों पर जीवट और साहस के साथ विजय प्राप्त करने की उनकी उपलब्धियों से उन्हें अर्जुन पुरस्कार व आई. एम. एफ पदक व पद्मश्री के गौरव से अलंकृत किया गया. पर्वतारोही हरीश चंद्र सिंह रावत भारतीय पर्वतरोहण संस्थान के सचिव व केंद्र सरकार में वरिष्ठ अधिकारी के पद पर आसीन रहे.

मान सिंह जी से हुई बातचीत से उन खास विभूतियों के बारे में जाना जिन्होंने जोखिम और अनिश्चितता के बावजूद नए कीर्तिमान स्थापित किये. मैंने उनसे यहां के बारे में और खास बातें जानने की उत्सुकता जाहिर की जिनका सम्बन्ध यहां के सामाजिक परिवेश से हो.यहां की पढ़ाई लिखाई के बारे में उन्होंने बहुत खास बातें बताई थी. वह विनम्रता से बोले कि जितना उन्होंने देखा समझा है उसे जरूर बताएंगे. सब मुख से कहा कान से सुना ठेहरा, बाकी खोज बीन तो आप लगातार करते रहें.

तीनों तरफ पहाड़ियों से घिरे घर के पत्थर के चबूतरे पर हम दोनों बैठे थे. मान सिंह जी की आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा चढ़ा था. चश्मा उतार उन्होंने हाथ में ले लिया और दूर कालामुनि की चोटी की ओर देखने लगे. काफी देर चुप्पी छाई रही. फिर मंद-मंद उनके स्वर उभरे.

“हमारे यहां औरतों की खूब इज्जत और उनका सम्मान रहा. घर की जो मुखिया महिला हुई उसका घर के पधान सा पहला और हर मामले में बराबरी का अधिकार रहा. औरतों की एकजुटता और उनके लिए आदर भाव से हमारे परिवार मजबूत बने”.

“पानी के धारे देखे होंगे आपने यहां. उनके इनारे-किनारे लगे विलो के पेड़ जिसे ‘मंछानी’ कहते हैं सब शौकाओं ने लगाए ठहरे. जंगल में जो भी बाज-बान-बोट बचाया जा सके वहाँ कुछ पत्थर रख उसे देव को भेट कर दिया. बस जानवरों के लिए सौ बचा रहे, डान कान से चूल्हा जलता रहे. भोजपत्र और कोंल कप्पू के फूलों को पवित्र मान इन्हें सीमित मात्रा में तोडना, बनाए -बचाये रखना और अपने जोहार में बिल्ल की झाड़ियों के बचाव के लिए संरक्षित इलाका बनाना, आसपास रिंगाल लगाना शौकाओं के खून में रचा बसा था”.

“हमारे यहां हर गांव में हर कौम की अपनी कचहरी रही जहां मिल बैठ सब खबर बात पता चलती, नया क्या होना है पर चर्चा होती, कोई वाद-विवाद हो, पेंच फंसा हो वह सुलझता. किसी तरह मारपीट हाथापाई किये बिना सब शांति से अहिंसा से सुलझा लें हर मसला, ये कोशिश रहती. चोरी डकैती भी गाँवों में नहीं होती जो बहुत बड़ी बात रही. ये कचहरी ल्योयोल-मस्योल से बचाती रही”.

कंधे से बड़ा सा झोला उतार लचकू को थमा पांडे जी बोले लो मिल गया गों पन का माल. अगरवाला को इसकी एक झलक दिखाई गई और कडक स्वर में एलान हुआ कि ये होता है पहली धार का आसव. ये तो लाला को तब चखाया जायगा जब उसकी खाप से कोई गीत भजन निकलेगा. ये तो गजल गा-गा ढ्याँ-ढ्याँ कर अरबी फारसी की जुगाली में लग जाता है. क्यों भई सुना? झोले का माल देख अगरवाला के दीदे पूरे खुल गये. क्यों शैलेन्द्र, नीरज, भरत व्यास, प्रदीप के गीत न गाने की कसम खाई है क्या? पांडे जी पुलिस फिर तने.

अजी हम तो छून्नू लाल मिश्रा, भीमसेन जोशी भी गा दें बस क़द्रदान चाहिए. तो आपके वास्ते इतना जुगाड़ करने वाले भी तो कद्रदान हूए. देख़ते रहियो, आज तो कबीर दास सुनाएंगे पांडेजू आपको. अगरवाल झूम उठा.

“कबीर सुनाएगा तू चड़का के? सुन! खुद तो राधा बनी बावरी, हमको उमर खय्याम कर गई.. क्यों? मुफ्त हमें बदनाम कर दिया. ये सुनाएगा “.

“चलिये ये भी गा देंगे. अब आपकी फरमाइश वो भी इतनी टंच, अमा कोई ढोलक बजा दे इस पे तो…” अगरवाला खुश.

रातापानी से कालामुनि धार की चढ़ाई चढ़ने में कोई थकान नहीं हुई. इस इलाके में सदाबहार घने पेड़ थे जो रातापानी की घाटी को आद्र बनाने के साथ ठंडी हवा के झोंको से भर दे रहे थे. पहले धीमी बयार चलती,लगता कि ठंडी वाष्प बदन को छू रही है फिर शीतल किये जाने का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया है. जैसे जैसे ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे, पेड़ों की संख्या कम होती जा रही थी. अब निंगाल-रिंगाल की झाड़ियाँ शुरू हो गईं थीं जो नीचे ही नीचे खूब फैलती हैं, इनारे-किनारे में इसकी नई कोंपलें फूटती दिख रहीं थीं और ऊंचाई पर इसकी लम्बी पतली पत्तियों के झुरमुट हिलते-डोलते हवा को और ठंडा बनाए थे.

सबसे आगे पांडे जी पुलिस और भगवती बाबू थे. चढ़ाई पर एक समतल सी जगह पर ठहर उन्होंने अपना हाथ ऊपर एक पर्वत श्रृंखला की ओर किया और बोले, “वो देखिये वो है खलिया टॉप. वहाँ झाड़ी पेड़ कुछ नहीं, बस घास के तप्पड़ हैं – दूर-दूर तक फैले बुग्याल. अब ये जो ऊपर का इलाका है इसकी तो हर वनस्पति, तना, फूल पत्ती, जड़ भेषज है. कायदे से इन्हें जानने वाले सही मौसम में इनकी कटाई-खुदाई करते हैं. अब बाहर वाले आ कर इनकी खुदाई का ठेका भी देने लगे हैं. खून खच्चर होने लगा है. ऐसे ही कुछ दिन पहले दो लौंडे मार नदी में डाल दिए. पांच सात मील दूर जहां नदी मोड़ लेती है वहां की चट्टान में अटके मिले. बड्याट घोंपा था. खच्च- खच्च,कई घाव. अब माहौल खराब हो गया है बाबू.

आगे बढ़ते पांडे जी अचानक ही रुके और उत्साह से चीखे, “वो देखो सामने पंचाचूली”.
(Munsiyari Trekking Mrigesh Pande)

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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