पिछली सदी के साठ के दशक का एक कालखण्ड ऐसा भी रहा, जब भवाली की रामलीला में पिता हरिदत्त सनवाल दशरथ के पात्र हुआ करते थे और राम तथा लक्ष्मण का किरदार उनके पुत्र पूरन सनवाल व महेश सनवाल निभाते थे. हरिदत्त सनवाल जी की भवाली में वर्तमान कुंवर मिष्ठान के सामने आढ़त हुआ करती थी, उनकी लम्बी दाढ़ी तथा चेहरे का नाक-नक्श ऐसा था कि ज्यादा मेकअप तथा बनावटी दाढ़ी लगाने की जरूरत नहीं पढ़ती. उनके दशरथ के किरदार की जो छवि बालमन में अन्दर तक बैठ गयी, आज भी दशरथ का स्मरण होने पर उनका चेहरा आँखों पर उतर आता है.
सीता का पात्र हरीश जोशी का रहता और राजेन्द्र बिष्ट अपनी गरजती व दमदार आवाज में रावण के चरित्र को जीवन्त कर देते. अधिक पात्रों का विवरण तो स्मरण नहीं है, लेकिन इतना याद है कि हारमोनियम पर देवी मास्टर (देवी राम ) की तबले पर संगत मनोहर लाल मासाब किया करते. देवी राम जी का तो पिछले वर्षों लखनऊ में निधन हो चुका है लेकिन मनोहर मासाब आज 78 वर्ष की उम्र में भी तबला वादक के रूप में रामलीला मंचन में बदस्तूर अपना योगदान देते आ रहे हैं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी मनोहर मासाब की कला का शब्दांकन अन्य लेख के माध्यम से शीघ्र ही किया जायेगा, फिलहाल रामलीला भवाली के अतीत के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि दौड़ाते हैं.
ज्ञात स्रोतों के अनुसार भवाली में रामलीला का इतिहास 70-80 साल पुराना रहा है. तब भवाली आज की तरह विकसित शहर न होकर एक ग्रामीण कस्बा हुआ करता था और आबादी भी बमुश्किल 2-4 हजार की रही होगी. बुजुर्ग बताते हैं कि शुरूआती दौर में भवाली-भीमताल मार्ग में नैनी बैण्ड पर सड़क पर रामलीला हुआ करती थी, बाद मे कभी पन्त इस्टेट और कभी श्यामखेत में भी लालटेन की रोशनी में रामलीला में मंचन हुआ. पचास अथवा साठ के दशक में ( निश्चित वर्ष ज्ञात नहीं ) रामलीला का मंचन देवी मन्दिर के सामने लकड़ी टाल से सटे मैदान में होने लगा, जिसे साठ के दशक से लगातार इसी जगह पर मंचित किया जाने लगा. जनसंख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी से दर्शकों की संख्या बढ़ती गयी और यह स्थल अपर्याप्त मानकर पिछले 5-7 साल से रामलीला का मंचन नगरपालिका मैदान में होने लगा है. हालांकि परिस्थितिवश बीच में 7-8 वर्षों तक भवाली की रामलीला बाधित रही, लेकिन आज यहां की रामलीला पुनः अपना भव्य रूप ले चुकी है.
आदर्श रामलीला कमेटी भवाली के अध्यक्ष मोहन बिष्ट के नेतृत्व में जोशी वर्तन भण्डार के संजय जोशी तथा मोहन भट्ट जी अपनी पूरी टीम के साथ 15 अगस्त से तालीम में जुट गये हैं. इससे पहले नन्दन सुयाल जी भी पिछले वर्षों में रामलीला निर्देशन में अपना योगदान देते आये हैं. हारमोनियम पर सुरेश भट्ट जी तथा तबले पर मनोहर मासाब बड़ी शिद्दत से तालीम में रात-रात तक तल्लीन रहते हैं. टीम के अन्य सदस्यों में गणेश पन्त, हरिशंकर काण्डपाल, मनीष साह, मनीष बिष्ट, शिवेन्द्र नेगी आदि-आदि पात्रों का मनोबल बढ़ाने देर रात तक पूरे मनोयोग से लगे रहते हैं. साम्प्रदायिक सौहार्द की इससे बड़ी मिशाल क्या हो सकती है कि इस्लाम धर्म से ताल्लुक रखने वाले सद्दा मियां वर्षों से रामलीला पात्रों की रूपसज्जा का जिम्मा बखूबी लिये हुए हैं.
समाज के बदलते नजरिये के साथ आज रामलीला में पात्रों का टोटा अवश्य है, क्योंकि टेलीविजन व मीडिया के इस दौर में न तो बच्चों में रामलीला अभिनय के प्रति उत्सुकता है और नहीं संरक्षकों को बच्चे के कैरियर के दवाब में उसे पढ़ाई छोड़कर अभिनय कराने की मनसा. जहां कभी बच्चों में अभिनय की लालसा रहती थी, आज भौतिकता के दौर में बच्चे भी प्रलोभन से ग्रस्त हो रहे हैं. जबकि ये भूल जाते हैं कि हमारे सामने सिने कलाकार निर्मल पाण्डे प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्होंने रामलीला में अभिनय से शुरूआत कर ही थियेटर तथा बालीवुड में ऊंचा मुकाम हासिल किया.
हमारे समाज में रामलीला मंचन के इतिहास पर नजर डालें तो इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है. कहा तो यहां तक जाता है कि रामलीला मंचन उतना ही पुराना है, जितने मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम. कहा जाता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष के वनवास पर गये तो अयोध्यावासियों ने इस अवधि में भगवान राम की बाल लीलाओं का मंचन किया. लेकिन इतना तो तय है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस की रचना के बाद काशी आदि स्थानों पर रामलीला का मंचन किया जाने लगा. देश के भिन्न-भिन्न भागों में रामलीला मंचन और गायन की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं.
कूर्मांचल को छोड़कर देश के उत्तर भारत में राधेश्याम तर्ज पर रामायण का गायन होता है, जिसकी गायन शैली कूर्मांचलीय रामलीला की अपेक्षा द्रुत है. कूर्मांचल में ज्योतिर्विद पं. रामदत्त जोशी कृत रामलीला का ही प्रायः मंचन किया जाता है. कूर्मांचलीय रामलीला में भी अल्मोड़ा की हुक्का क्लब व अन्य संस्थाओं द्वारा अभिनीत रामलीला, शास्त्रीय राग-रागिनियों पर आधारित है, जिसकी एक अलग पहचान है.
जैसे पहाड़ के लोगों ने देश के महानगरों की ओर पलायन किया, कूर्माचलीय रामलीला का विस्तार भी लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई तथा देश के अन्य शहरों में विस्तार पाता गया. सीमित साधनों के बावजूद भवाली की रामलीला भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा हजार-डेढ़ दर्शकों द्वारा प्रतिदिन रामलीला देखा जाना रामलीला के प्रति दर्शकों की पसन्द को दर्शाता है. समय प्रवाह में यहां की रामलीला भी रंगमंचीय तकनीकों के उच्चतम स्तरों की ओर निरन्तर अग्रसर है. लेकिन अभी पाश्र्वगायन अभिनय की शुरूआत यहां नही हुई है, इसके बावजूद पात्रों की गायन शैली में इसकी कमी कभी नहीं अखरती.
गौर करने की बात हैं, कि हम एक हिट फिल्म अथवा प्रिय नाटक को एक-दो, पांच ज्यादा से ज्यादा 10-12 बार देख लेते होंगे लेकिन एक स्थिति के बाद कई कई बार देखने से ऊब होना स्वाभाविक है. इसके विपरीत रामलीला एक ऐसा दृश्य-श्रव्य मंच है, जिसमें कथानक वही, दृश्य वही, पात्र भी आंशिक फेरबदल के साथ लगभग वही, लेकिन कोई ये कहता नही सुना कि हमने तो पिछले साल रामलीला देख ली है, अब क्या देखना? टीवी,हॉलीवुड, बॉलीवुड और मीडिया की चकाचैंध में भी रामलीला दर्शकों की इसे आस्था कहें या उत्सुकता अथवा रूचि जिसने आयोजकों को सदैव प्रोत्साहित ही किया है जो रामलीला के भविष्य के लिए शुभ संकेत ही कहा जा सकता है.
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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