अभी हाल में हर तरह के बोर्ड के रिजल्ट निकल आए हैं. कुछेक निकलने बांकी हैं. वैसे इस कोरोनाकाल में निकले रिजल्ट में किसी का जैक पॉट लगा तो बांकियों की भी लॉटरी निकल ही आई. जैकपॉट वालों में से कई संतुष्ट नहीं हैं, कि छूटे पेपर में उन्हें कोरोना ने कम नंबर दिए. जबकि उनका इरादा तो जैकपॉट मशीन को ही विस्फोट कर उड़ा सारे कीर्तिमान अपने नाम करने का था. 99.9 प्रतिशत नंबर मिलने के बाद भी वो सुबकने में हैं.
(Memoir of School Results)
वैसे सच कहूं तो जो मुझे याद है, रिजल्ट तो आज से तीसेक साल पहले के जमाने मे आते थे, जब पूरे बोर्ड का रिजल्ट बीसेक प्रतिशत ही होने वाला हुवा. और उसमें जिस किसी ने परीक्षा की वैतरणी पार कर ली हो तो पूरे कुनबे का सीना चौड़ा हो जाने वाला हुवा. तब डिवीजन भी मायने नहीं रखती थी, ऐसे में परसेंटेज को तो फिर कोई पूछने वाला हुवा ही नहीं.
दसवीं का बोर्ड. आठवीं क्लाश से ही इसके नाम से ऐसा डराना शुरू कर दिया जाता था और नवीं में तो साफ-साफ कह दिया जाता था कि आधे तो वहां पहुंचने तक ही पढ़ाई से सन्यास ले लेते हैं. और कुछेक विरले जो हिम्मत करके दसवीं में पहुंच जाते, उनकी हिम्मत गुरुजन और परिजन पूरे साल हिमामजस्ते में अदरक को कूटते हुए से ये कहकर बढ़ाते, ‘बेटा! अब पता चलेगा, कितने पानी में हो, नवीं तक तो कुकुर-बिराउ भी पास हो जाने वाले ठेरे! उस पर तुर्रा ये कि बची-खुची कसर हाईस्कूल में बर्षों से त्रिशंकू की तरह लटके दाढ़ी-मूंछ वाले सांथी भी पूरी कर देते… देख भाई! खाली पढ़ने से कुछ नहीं होगा, इसे पास करना हर किसी के भाग्य में नहीं होता, हमें ही देख लो.
और फिर, समय बीतते-बीतते बोर्ड के पेपर सिर पर आ जाते. इससे पहले जनवरी की छुट्टियों में कुछेक मासाप अपना दुवार्सा का रूप छोड़ संत बन ट्यूश्न की पाठशाला खोल लेते. तब उनका समझाने का तरीका इतना सौम्य हो जाता था कि, मन अपने को ही गरियाता कि, ‘इन भले मानुष को सालभर न जाने कितनी गालियां दीं. सभी गाड़-गधेरे के भूत पिचासों से इन्हें चिपट जाने की मिन्नतें तक भी कर डाली, कि अपने और काम छोड़ो बस इस मासूम बच्चे की बात मान इन्हें सबक सीखा दो…’ और ये तो इतने भले मासाप थे जो हमें आज जान पड़ा. सीधे-साधे गउ की तरह. फीस भी कितनी कम ले रहे हैं मात्र पचास रूपये. तब सरकारी स्कूल में पूरे साल भर की फीस सौ-एक रूपये से कम ही होती थी. उस पर यदि आप फौंजी परिवार से हुए तो कुछेक चार्जों को छोड़ बांकी सब माफ हो जाने वाला हुवा.
(Memoir of School Results)
परीक्षाएं शुरू होती तो उंची कक्षा में पहुंच चुके उर्जावान छात्र, हाईस्कूल के छात्रों को परीक्षा की इस वैतरणी से पार कराने के लिए सुबह से ही स्कूल के रास्ते में, लाठी, पत्थर, ले झाड़ियों में छुप जाते और परीक्षा देने जा रहे अपने परिचितों को समझाते कि भाई के होते चिंता ना कर. देख लेंगे सालों को.
उनके इस आश्वासन से काफी राहत मिलती. दरअसल! परीक्षा के बीच में जब भी बाहर से चैकिंग वाला दल परीक्षा केन्द्र में आता तो उन्हें सबसे पहले इस बड़ी बांधा को पार करना होता था. उनके आते ही सीटीयां बजने लगती और चैकिंग दल पर ‘देवीधूरा के बग्वाल’ की तरह पत्थरों की बरसात होनी शुरू हो जाती. पन्द्रेक मिनट की इस अफरा-तफरी में परीक्षार्थी सतर्क हो उठते और कमरे के बाहर पर्ची-किताबों के पन्ने बिखरे मिलते.
(Memoir of School Results)
चैकिंग दल को चाय-पानी का भोग लगा मान-मनौव्वल कर समझा दिया जाता कि, उज्जड बानर हुए.. फिर इसमें जो पेपर दे रहे हैं वो तो अंदर ही हुए, ये बाहर न जाने कहां से आए हैं.. इस विद्यालय के हैं ही नहीं.. यहां तो सब संस्कारी बच्चे हुए. पूरी परीक्षाएं, चूहा-बिल्ली दौड़ की तरह निपटती थी.
परीक्षा खत्म होने के बाद की छुट्टियों की मस्ती के बाद जब रिजल्ट का दिन नजदीक आता तो सभी की धड़कने बढ़ने लग जाती. तब हर कोई इतना आस्तिक हो उठता कि मंदिर में यदि सचमुच कोई भगवान बैठा होता तो वो उनकी प्रार्थनाओं पर तरस खा मंदिर छोड़ खुद ही उनकी कॉपियां जांच कर उन्हें सौ में से दोएक सौ नंबर तक तो दे ही आता.
बहरहाल! तब आज की तरह ऑनलाइन का जमाना था नहीं. एक दिन पहले ही गांव-शहर के दोएक देवानंद, राजेश खन्ना टाइप हीरो अपनी यजदी-यामाहा में बड़े शहर रिजल्ट वाला अखबार लेने चले जाते. भोर में पहाड़ों में गूंजती उनकी यजदी की आवाज उनके आने की खबर दे देती. नजदीक आने पर वो भी चिल्लाना शुरू कर देते, ‘रिजल्ट-रिजल्ट…’
पूरा का पूरा मौहल्ला उन पर टूट पड़ता. रिजल्ट वाले अखबार को ले वो किसी ऊंची जगह पर चढ़ जाते फिर वहीं से नम्बर पूछ रिजल्ट सुनाया जाता.
चार हजार दो सौ चौरासी… फेल, पिचासी… फेल, छियासी… फेल, सतासी… सप्लीमेंट्री, अठासी, नवासी… पास…थर्ड डिवीजन… साठ… विदल्ड…
(Memoir of School Results)
तब रिजल्ट दिखाने की फीस भी डिवीजन से तय होती थी, हां! फेल होने वालों के लिए ये सेवा पूर्णतया नि:शुल्क होती थी. जो पास हो जाता, उसे ऊपर जाकर अपना नम्बर देखने की अनुमति होती. टॉर्च की लाइट में प्रवेश-पत्र से मिलाकर नम्बर पक्का किया जाता, और फिर 10, 20 या 50 रुपये का पेमेंट कर वो गर्व के साथ नीचे उतर अपने घर को भागता. जिनके नंबर अखबार में नहीं मिलते वो घर जाने को तैयार ही नहीं होते. उस जमाने में लट्ठ, बिच्छू घास और चप्पलें ही बड़े-बुजुर्गों के आंणविक व विध्वसंक हथियार होते थे, जिन्हें जी भर चलाने में वो कोई कोताही नहीं बरतते थे. इन परिवारों के बच्चे अकसर गांव में ही किसी के घर में शरणागत हो रात होने का इंतजार करते रहते ताकि घर से बहिन, बुआ उन्हें चुपचाप लेने आए तो ‘मार’ कम पड़े. वैसे गांव में कुछेक गरीब परिवार ऐसे भी होते थे जो अपने बच्चे को कुछ ऐसे ढांढस बंधाते, ‘अरे! कुम्भ का मेला जो क्या है, जो बारह साल में आएगा, अगले साल फिर दे देना एग्जाम.’
आज के वक्त में एक ही विषय की कई सारी मोटी-मोटी किताबों को देख आश्चर्य होता है कि वो कौन लालची हैं जिन्होंने अपने स्वार्थ के खातिर बच्चों का बचपन ही छीन लिया. अब के जमाने में बच्चों के पास अपने बचपन को जानने-समझने का वक्त ही नहीं है. किताबों के बोझ तले उनकी दुनियां खो सी गई है. अब हमारी एक अजीब सी दुनियां बन गई है, कीड़े-मकौडे की दुनियां. जमीन पर सरकती हुवी दुनियां. हम आकाश में उड़ते नहीं. आकाश की भाषा हमें समझ में आती ही नहीं. ये कुछ इस तरह से हो गया है जैसे, विद्या से लधा गधा, गधा ही रहेगा. एक डंडा मारो वही ढेंचू-ढेंचू बोलेगा… न कि मंत्र-पाठ करेगा.
(Memoir of School Results)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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बहुत ही बढ़िया जी.......