अपनी उम्र के 84 बसंत पूरा कर पिछले साल आज ही के दिन ज्ञानका (काका) परलोक सिधार गए. ज्ञानका अपने गांव के एक अद्भुत व्यक्ति थे. उनका असली नाम ज्ञान चंद्र पाठक था. वे देखने में थोड़ा ज्यादा ही सांवले थे तो गांव के लोग उन्हें ज्ञान्नू मोसा (काला) बोलते थे. उम्र के हिसाब से थोड़ा कुकड़ा गये थे तो कुछ लोग उनको ज्ञान्नू कुकड़ कहने से भी नहीं चूकते थे. उनकी मां ने उनका निक नेम ज्ञानू रखा था और गांव के लोग रिश्ते के हिसाब से ज्ञानका, ज्ञानदा कहकर ही पुकारते थे. ज्ञानका शायद पुराने जमाने के चौथी फेल रहे होंगे लेकिन पूजा-पाठ, सरकारी खाता-बही और धार्मिक किताबों को वे पढ़ लेते थे. गांव में खेती-बाड़ी के साथ-साथ युवकों को इकट्ठा कर ताश खेलना उन्हें बहुत पसंद था. उसमें भी रमी, दहल पकड़ और जोड़ पत्ती प्रमुख थे. ये काम कभी टाइम पास तो कभी पैसे के लिए होता था. जुआ खेलने का उन्हें बड़ा शौक था. उस जमाने में आस-पास के मेलों जैसे जौलजीबी, बासुकी, बिखौति और उत्तरायणी में जुए के फड़ बैठते थे. सारे क्षेत्र के शौकीन जुआड़ी वहां पहुंच जाते थे. हां, काका बताते थे कि धनाभाव के कारण वे बड़े दांव नहीं लगाते थे. कभी-कभी मेलों में दो-तीन दिन जुए के फड़ों में मसगूल रहते थे. उनके पास एक बुश कंपनी का रेडियो था जो अक्सर उनके साथ चलता था बाद में टीवी के या जाने पर रेडियो को सौतेला व्यवहार झेलना पड़ा. ज्ञानका के पास 2 टॉर्च होते थे. एक 2 सेल वाला जो खेत खलिहान, घर बाहर काम आता था. दूसरा 3 सेली एवररेडी का टार्च था जो किसी को फूंकने (funeral) जाने या गाँव के मेलों के काम आता था. घर में लाइट के लिए लालटीन, गैस की चमाचम व्यवस्था ज्ञानका रखते थे. थोड़ा ग्रामीण ओषधियों, जड़ीबूटियों का भी उनको ज्ञान था. (memoir by Girija Kishore Pathak)
ज्ञानका खानपान के बहुत शौकीन इंसान थे. ज्ञानका को मटन बहुत पसंद था. अगर कहीं दूर-दराज के गांव में कहीं भी बकरा काटा हो, लोग जानते थे कि ज्ञान का को तो चाहिए ही, इसलिए उधारी ही सही उनका हिस्सा जरूर पहुंचा देते थे. ज्ञानका थोड़ा बहुत अंगूर की बेटी के भी शौकीन थे. अगर कोई गांव में फौजी आ गया तो सबसे पहले दुआ-सलाम के लिए ज्ञानका वहां पहुंच जाते थे और पहुंचते भी क्यों नहीं? फौजी भी जानते थे कि मेरे गांव में ज्ञान का ही ऐसे आदमी हैं जो सबसे पहले आएंगे इसलिए वे भी ज्ञानका के लिए एक विशेष बोतल का इंतजाम करके आते थे. कारण, ज्ञानका का साल भर का कोटा ऐसे फौजियों के रम और व्हिस्की के कारण ही चलता था. विपरीत परिस्थिति में ज्ञानका देशी फ्लेवर का भी उपयोग कर लेते थे. लेकिन किसी की मजाल, गांव में कोई बोल दे कि ज्ञानका नशे में टुन्न रहते थे या कभी किसी से उन्होंने दुर्व्यवहार या उस उल्टी-सीधी बात कही हो. गांव के लड़के बताते थे कि ज्ञानका ने अपनी मौत के 2 दिन पहले एक लड़के को बोला था कि उनका आज फिश खाने का बहुत मन कर रहा है, जो किसी तरह लड़कों ने मछली की व्यवस्था की थी. उसके दूसरे ही दिन ज्ञानका चल दिए. मृत्यु पूर्व भी उन्होंने सामिष भोजन ग्रहण किया था. 1979 मई के महीने मे बनारस से गांव जा रहा था ज्ञानका अचानक बागेश्वर बस स्टेंड पर खड़े मिल गये. मैंने चाय पीने का आग्रह किया तो बोले यार चाय छोड़ो. मटन-चावल खिला दो. सो ज्ञानका के आदेश की मैंने तामील की. फिर हम बस में बैठे. पूरी बस में गप-सड़ाका करते-करते कब घर पहुँचे पता ही नहीं चला. गजब के जिंदादिल इंसान थे ज्ञानका. फिकर नॉट, खुशमिजाज. ठहाकों की दुकान. औपचारिकता से कोसों दूर.
खेती-बाड़ी के सीजन के बाद ज्ञानका गांव के ही आसपास मेहनत-मजदूरी कर जीवन यापन करते थे लेकिन अपने जीवन को अपने ढंग से जीते थे. उनके बारे में कौन क्या सोचता है वे बहुत परवाह नहीं करते थे. सबसे अच्छी बात यह थी कि वे दोहरा जीवन नहीं जीते थे. वह शाकाहारी नहीं है, वह मधुशाला प्रेमी है , दूसरे लोग इस बात लेकर क्या सोचेंगे इसकी वे चिंता नहीं करते थे. उनका जीवन एक खुली किताब था और उस किताब को कोई भी बाँच सकता था. इसलिए गांव के अधिकांश लोग उनके साथ खेती-बाड़ी मेहनत-मजदूरी और सारे सामाजिक कार्यों में तालमेल बनाकर चलते थे. उनके जीवन से हमने एक बात सीखी थी कि शाकाहार- मांसाहार ,समिष–निरामिष और शराब पीना न पीना इससे किसी के व्यक्तित्व को नहीं आंका जा सकता है. व्यक्ति के व्यक्तित्व के कई पाये (स्तम्भ) होते हैं और श्रेष्ठ व्यक्तित्व वह है जो संपूर्ण जीवन की सम्पूर्ण कलाओं को चंद्रमा की 64 कलाओं की तरह अपने में आत्मसात कर जी ले.
ज्ञानका अपने पीछे तीन बेटे और एक बेटी का भरा पूरा परिवार छोड़ कर गए और बड़ी शिद्दत से उनकी बच्चों ने विदाई की. तेरही का श्राद्ध और पिंडदान किया वह भी परंपराओं और लीक के अनुसार बहुत ढंग से. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिये श्राद्ध और तर्पण होता है. गरुड पुराण के अनुसार प्राणी 47 दिन लगातार चलकर सोलह पुरियों को पार कर यमराज के घर यमलोक पहुंचता है. इन सोलह पुरियों — सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीतढ्य, बहुभीति को पार कर गरुड़ पुराण के ही अनुसार यमलोक की इस महायात्रा में उसे भोजन के रूप में वही मिलता है जो पिंड रूप में पितरों को अर्पित किया जाता है. इसी पुराण के अनुसार दक्षिणोभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है. जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता. मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं. इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है. पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है. पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं. व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं.
ज्ञानका की बरसी का सनातन परंपरा से समापन और पिंडदान ने एक जटिल प्रश्न मेरे दिमाग मे खड़ा कर दिया. पितरों को क्या समर्पित किया जाए? गरुड़ पुराण द्वारा स्थापित सनातन परंपरा का पिंडदान या पितरों को की पसंद का पिंडदान? क्या मृतात्मा की इच्छा की अभिव्यक्ति गरुड़ पुराण का कोड परिभाषित कर सकता है. ज्ञानका के संदर्भ में ये प्रश्न मेरे मन मस्तिष्क को तब से परेसान कर रहे हैं. ज्ञानका की पिछले माह बरसी हुई लगभग पूरे गांव को भोजन कराया गया और पंडित जी ने सारे सात्विक पकवान बना कर पिंडदान कराया और ज्ञानका की आत्मा के लिए प्रार्थना भी करायी. गरुड़ पुराण के विधान और नियम के बाद ज्ञानका के जीवन, नियम और विधान उनकी अभिरुचि, पसंद ना पसंद, उनके आहार-विहार के बारे में भी जानना आवश्यक है. अब मेरा प्रश्न केवल यह है कि जो ज्ञानका शाकाहार में कतई विश्वास नहीं करते थे जिन्हें मटन, फिश और चिकन बहुत पसंद था और कभी-कभी हफ्ता में एक-दो दिन अंगूर की बेटी का भी रसपान करने में कोई परहेज नहीं रखते थे. अब ज्ञानका को तो गरुड़ पुरणि पिंड कहाँ स्वाद देगा. दही, भात, खीर, पूड़ी, तिल जौ… ये सब.
क्या चित्रगुप्त के पास उनके खान-पान का कोई लेखा-जोखा नहीं होगा? गरुड़ पुराण के अनुसार हम मानते हैं कि जो हम पिंडदान, जो भोजन हम मृतात्मा के नाम अर्पित करते हैं वही परलोक में पितरों को मिलता है. लेकिन ज्ञानका की तो दूध-खीर, चावल-दाल खाने की परंपरा ही नहीं थी. वह चिकन, मटन, फिश बहुत पसंद करते थे. तो क्या यमलोक में उनकी प्रवृत्ति बदल गई होगी? तो क्या ऐसा नहीं होना चाहिए अगर कोई शुद्ध मांसाहारी परलोक सिधार जाए तो उसके बरसी, पिंड दान या भोजन दान में उसकी इच्छा के अनुसार ही भोजन दान होना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि पिंडदान में शुद्ध शाकाहारी रखा जाए? जो व्यक्ति पूरी जिंदगी मांसाहार में जिया उसको मौत की बाद शाकाहारी भोजन अर्पण करना कहां तक न्यायसंगत होगा? मुझे तो पक्का विश्वास है ज्ञानका, बच्चों के इस पिंडदान से खुश नहीं हुए होंगे अगर उनकी चली तो बरसी कराने वाले और घर आने वाले पंडित जी को भी कभी न कभी दंडित करेंगे.
परमपिता परमेश्वर ज्ञानका की आत्मा को शांति दे उन्हें स्वर्ग में भी संपूर्ण सुख-सुविधाएं मुहैया कराए यही कामना है. एक बार ज्ञान का ने मुझसे भी कहा था कि फौजी लोग घर आते हैं तो कुछ न कुछ माल मसाला लाते हैं लेकिन तुम ठहरे पुलिस वाले खाली हाथ आते हो कुछ भी नहीं लाते. ज्ञानका शाकाहारी नहीं थे लेकिन वह गांव के बहुत ही रॉयल इंसान थे कभी किसी से झगड़ा पट्टी, किसी से कड़वे बोल, किसी के खिलाफ मुकदमेबाजी और जमीनों के झगड़े में वे कोई रुचि नहीं रखते थे. बस काम से काम, राम से राम. नये युवाओं से उनकी अखंड दोस्ती रहती थी. उनके लड़के बच्चे पढ़-लिख गए. एक बच्चा अच्छा निकला कहीं बाहर नौकरी में चला गया. दो बच्चे गांव की खेती-बाड़ी से अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं. ज्ञानका मस्त मौला थे. साफ दिल के सही इंसान. जब मैंने उनकी बरसी का मैसेज पढ़ा तो ज्ञान का का चेहरा मेरे सामने या गया. वे जैसे कह रहे हौं “यार सालों ने दाल-भात में निपटा दिया.” सोचता हूँ अगर स्वर्ग- नरक का विचार सही हो तो मुझे पूरा विश्वास है की ज्ञानका को स्वर्ग ही नसीब हुआ होगा. मैं, सोचता हूँ कि पिंडदान, श्राद्ध और बरसी में आखिर मृतक की इच्छा का भी तो कुछ मान होना चाहिए सारे उपवंध गरुड़ पुराण के ही क्यों माने जाय. मैं ज्ञानका जैसे लाखों लोगों की यहाँ वकालत इसलिए कर रहा हूँ कि यह मृतात्मा की तृप्ति और सम्मान का सवाल है. गहन शोध के बाद ज्ञानका के पक्ष में विष्णु पुराण के तृतीय अंश के 16वें अध्याय के श्लोक 1-3 पे 219 में इसका जबाब मिल ही गया. इसमें उल्लेख है कि हवि, मत्स्य, शशक, नकुल, शूकर, छाग, कस्तूरीय मृग, कृष्ण मृग, गवय और मेष के मांस तथा गाय के दूध, घी से पित्रगण एक-एक मास तक प्रसन्न रहते हैं. और वारघरीनस पक्षी के मांस से सदा तृप्त रहते हैं. गैंडे का मांस कालशाक और मधु को अत्यंत तृप्ति दायक बताया है. यद्यपि मनुस्मृति के अध्याय 5 में तथा श्रीमद्भागवाद के सप्तम स्कन्द के 15 अध्याय मे श्राद्ध में मांस भक्षण की घोर निंदा और निरामिष आहार की भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है.
निष्कर्ष ये है कि श्राद्ध में सामिष अथवा निरामिष भोज व्यक्ति के आहार व्यवहार पर ही होना चाहिये. शायद बंगाली और मैथिल लोग जो बिना माछी भात के भोग ही नहीं लगाते उनका भी तो श्राद्ध कर्म होता ही होगा. वह मांस के साथ ही होता होगा.ज्ञानका मांसहारी थे सो उनके श्राद्ध और बरसी में समिष पिंड दान में मेरे मत में कोई गतिरोध नहीं होना चाहिये. सिवा परंपरा और पांडित्य पूर्ण मानसिकता के. सच तो ये है कि मृत्यु के बाद आत्मा की कोई जरूरत नहीं होती जरूरत देह की होती है. आत्मा भोक्ता नहीं है भोक्ता शरीर होता है और ज्ञानका ने शरीर को एक साल पहिले ही त्याग दिया था. उनको तो न सामिष से मतलब न निरामिष से. श्राद्ध में सामिष अथवा निरामिष भोजन की आवश्यकता पर अंतिम निर्णय तो आगे पंडित जी ही करेंगे और उनका ही निर्णय सब मानंगे. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि पौराणिक और सामाजिक मान्यता जो भी हो ज्ञानका के सारे कर्मों की मुख्य लेखाधिकारी चित्रगुप्त समीक्षा करेंगे तो स्वर्गलोक में उनका स्थान पक्का होना चाहिये. सामाजिक और धार्मिक परम्पराओ के संदर्भ में बचपन में संस्कृत में पढ़ी सुभाषितानि का एक श्लोक का मैं यहां उल्लेख करना चाहूँगा –
गतानुगतिको लोको न लोक: पारमार्थिक:
वालुकालिङ्गमात्रेण गतं मे ताम्रभाजनम् ॥
अर्थात् यह ”संसार भेड़ चाल में देखा-देखी कर चलता है, सच्ची-झूठी, अथवा योग्य-अयोग्य बातों पर कतई विचार नहीं करता है.
चट्टान से गिरकर अकाल मृत्यु को प्राप्त पहाड़ी घसियारिनों को समर्पित लोकगाथा ‘देवा’
मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.
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