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कहो देबी, कथा कहो – 8

पिछली कड़ी

उस दिल्ली में वे दिन

मन में कृषि वैज्ञानिक और एक साहित्यकार बनने का सपना बुनते-बुनते पहाड़ से दिन भर की लंबी यात्रा के बाद तपती दिल्ली पहुंचा. साथी कैलाश पंत यानी के. सी. साथ था. दोनों खोजते-खोजते नैनीताल के ही पुराने परिचित रमेश जोशी के डेरे में पहुंचे, पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर चिड़िया कालोनी में. वहां कतार में क्वार्टर बने थे जिनमें पूसा इंस्टिट्यूट के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी रहते थे. पता लगा दो-दो कमरों के घर में से वे दो पैसे कमाने के लिए एक कमरा किराए पर दे देते थे. एक कमरे के घर में भी किराए पर कमरा मिल जाता था. घर में रहने वाला बाहर बरामदे में गुजारा कर लेता था. सौभाग्य से रमेश के किराए के कमरे में हमें भी कुछ दिन सिर छिपाने की जगह मिल गई. उसमें रमेश और तपीश रह रहे थे.

अब पहला काम था, नौकरी ज्वाइन करना. इसलिए शनिवार, 30 जुलाई 1966 को सुबह पूसा इंस्टिट्यूट के ‘पादप प्रजनन तथा आनुवंशिकी’ विभाग पहुंचे. मेरी नियुक्ति मक्का प्रजनन सैक्शन में हुई और मुझे सीरियल लैब भेज दिया गया. वहां मक्का प्रजनन की अखिल भारतीय परियोजना के प्रमुख डॉ. एन. एल. धवन और मक्का प्रजनक डॉ. जोगिंदर सिंह अपने साथ जीप में बिठा कर ले गए और विशाल फार्म में मक्का की फसल के वे ब्लाक दिखाए जहां उस पर शोध कार्य किया जा रहा था. कैलाश पंत की नियुक्ति कपास प्रजनन सैक्शन में हो गई. अगला दिन रविवार था. डॉ. जोगिंदर सिंह बोले, “आज ही आए हो, इसलिए कल आराम कर लो. परसों से खेतों में काम करेंगे.”

मैंने पूछा, “सर, कितने बजे आना है?”

“डॉ. जोगेंदर सिंह ने कहा, मक्का के पास कोई घड़ी नहीं है. वह सुबह-सुबह जाग जाती है और रात घिरने पर ही सोती है. इसलिए हमारा ऑफिस टाइम भी यही है. सुबह 8 बजे तक लैब में आ जाएं, यहां से साथ चलेंगे. अभी आपको पता नहीं है कि किस ब्लॉक में जाना है.”

फिर हंस कर बोले, “असल में मक्का की फसल के पास घड़ी नहीं है. इसलिए उसका कोई आफिस टाइम नहीं है. उसे कभी भी हमारी जरूरत पड़ सकती है. हम कोशिश करते हैं कि जितनी जल्दी हो सके, उसके पास पहुंच जाएं. हमारा आफिस टाइम है, सूरज निकलने से सूरज ढलने तक. क्यों एन एन?”

“बिल्कुल,” साथ खड़े चुस्त-दुरुस्त साथी नरसिंह नारायणसिंह यानी एन. एन. ने कहा.

“एन. एन. तो रातों में भी ड्यूटी देता है. मक्का की फसल में रात को सिंचाई करवाता है.”

अगस्त के पहले दिन सुबह मक्का के खेतों में पहुंचे. डॉ. जोगिंदर सिंह ने बताया कि हमें मक्का की कतारों में थिनिंग करनी है ताकि पौधे लगभग बराबर दूरी पर हों और हर पौधे को बराबर भोजन-पानी मिल सके. उन्होंने लाठीनुमा थिनिंग उपकरण देकर बताया कि इसके एक सिरे पर चाकू लगा है जिससे घने, बीमार या कीड़े लगे पौधे को जड़ से काट देना.

हम उन बालिश्त भर पौधों पर आंखें गड़ाए उनकी छंटाई करते रहे, करते रहे. धीरे-धीरे सूरज सिर पर चढ़ आया. उस तीखी, कड़ी धूप और उमस में पहाड़ की ठंडी हवा याद आती रही. इस बीच एक बार सैक्शन का रामाशीष लैब से केतली में चाय बना कर लाया. हमने वहीं बैठ कर चाय पी और फिर काम में जुट गए और अचानक… मैं कड़ी धूप की तपन और उमस के कारण चक्कर खाकर गिर पड़ा. साथी मुझे उठा कर लाए होंगे. आंख खुली तो देखा शीशम के पेड़ की छांव में लेटा हूं. एक साथी मुंह पर पानी के छींटे दे रहा था. डाॅ. जोगिंदर सिंह ने कहा, “पानी पी लो मेवाड़ी.” मैंने पानी पिया. एन. एन. ने कहा, “लैब में भेज दें क्या?” डॉ. जोगिंदर सिंह बोले, “नहीं-नहीं, जवान लड़का है. पानी पीकर चलते हैं खेत में. धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी धूप सहने की. हम लोग छांव में से फिर खेत की ओर चल पड़े. उन्होंने हिदायत दी- खेत में आने से पहले खूब पानी पी लेना चाहिए, धूप में पेट खाली न रहे, नाश्ता करके या खाना खाकर आएं.”

साथियो के कमरे में रहते हुए मुझे और कैलाश पंत को सुबह का खाना बनाने की ड्यूटी मिली. इसलिए बहुत सुबह उठना पड़ता था. खाने के बनाने के साथ ही बर्तन धोना भी हमारी ड्यूटी में शामिल था. तपीश और रमेश रात का खाना बनाते थे.

कुछ दिन बाद क्वार्टरों की उसी कतार में हमें एक कमरा किराए पर मिल गया. वह एक लौहार कर्मचारी का एक कमरे का क्वार्टर था. उसने कमरा हमें दे दिया और खुद बाहर बरामदे में सोने लगा. कमरे में पंखा भी नहीं था. भूतल पर होने के कारण उसमें खिड़की-दरवाजे से नाना प्रकार के कीट-पतंगे आ जाते थे. इसलिए के.सी. ने उस कमरे का नाम कीट विज्ञान विभाग रख दिया था.

अक्सर साथी कहते, “तुम्हारी नई नौकरी लगी है और रहने की जगह भी मिल गई है. लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक दावत नहीं दी.”

हमने पूछा, “दावत में क्या करना होगा?”

“अरे मीट बनेगा, रोटियां बनेंगी और पीने के लिए तुम्हें एक बोतल भी लानी पड़ेगी.”

“कहां से?”

“उसकी फिक्र मत करो. इन्हीं क्वार्टरों में फौज से रिटायर हुए दो-एक गार्ड, ड्राइवर हैं. उनसे हम दिला देंगे. तुम्हें तो बस पैसे देने हैं.” हमने पैसे दिए. दो-एक दिन बाद एक रम की बोतल आ गई. उस दिन ‘बड़ा’ खाना बना. हमरी नौकरी की खुशी में रम पी गई. खाना खाने के बाद हम अपने कीट विज्ञान विभाग में लौट आए. गर्मी और घुटन इतनी अधिक थी कि मैं चादर लपेट कर ‘वहां कौन है तेरा मुसाफिर, जाएगा कहां’ गुनगुनाते हुए देर रात पुराने साथियों के कमरे की छत पर चला गया. वहीं रात गुजारी. उन दिनों दिल्ली में बाहर सोने का काफी रिवाज था.

मक्के की फसल. फोटो देवेन मेवाड़ी

रोज सुबह-सुबह मक्का के खेतों में जाना पड़ता था. हमारे पास चाय-नाश्ता और खाना बनाने का न इंतजाम था, न समय. इसलिए द, किसका नाश्ता और किसका भोजन? छड़े थे, खाना कौन बनाता इतनी सुबह? सुबह तो बस दूधवाला डी एम एस के दूध की नीले ढक्कन वाली बोतल रख जाता था. उसे गर्म करने का भी समय नहीं था, यों ही गटागट पीकर खेत की ओर भागता था. कभी ब्रेड हुई तो दो-एक पीस उसी ठंडे दूध के साथ खा लेता था. सुबह नाश्ता या खाना बनाने की ड्यूटी रमेश और तपीश की थी लेकिन उतनी सुबह भला कौन बनाता. शाम को खाना बनाने की ड्यूटी हमारी थी. खेत से थके-मांदे लौटते और फिर खाना बनाते. खाते, बर्तन धोते-धोते ऊंघने-सोने लगते. सुबह-सुबह फिर खेतों की ओर भगाता.

आने-जाने की दिक्कत थी. इसलिए कुछ माह बाद पैसे जोड़ कर एक साइकिल खरीद ली. उसे चलाना सीखा और तब आने-जाने में सहूलियत हो गई. पुराने साथियों ने सुझाव दिया, रिसर्च के काम से हैदराबाद जाओगे तो वहां से बड़ा-सा फेल्ट-हैट खरीद लेना. धूप से भी बचोगे और मक्का में फूल खिल जाने पर पराग से भी. कई लोगों का पराग से एलर्जी होती है. मैंने मन ही मन सोचा-मुझे कैसी एलर्जी? मैं तो पहाड़ में अपनी मक्का की फसल की बालें हिला कर पराग झरते हुए देखा करता था. एन एन ने कहा, “लेकिन, हंटर शू तो खरीद ही लो वरना खेत की मिट्टी-कीचड़ में तुम्हारे चमड़े के जूते बर्बाद हो जाएंगे.”

देवेंद्र मेवाड़ी और एस.एस. बिष्ट.

बढ़ती फसल के साथ मेरा अनुभव भी बढ़ता गया. मक्का के पौधे कतारों में सावधान की मुद्रा में खड़े सैनिकों की तरह सीधे खड़े होते गए. धीरे-धीरे कतारों में खड़े पौधों का रहस्य भी खुलता गया. पता लगा, उन कतारों में देश-विदेश की चुनिंदा प्रजातियों की मक्का उगाई गई है. इस तरह कि फूल आ जाने पर उनमें पाॅलीनेशन करके उनका ब्याह रचाया जा सके. फिर उनकी संतानों के गुण परखे जा सकें कि कौन-सी संतान अधिक उपज देगी किसमें बीमारियां और कीड़े कम लग रहे हैं और किसके पौधे आंधी-पानी में भी जम कर खड़े रहते हैं. उनमें हमारी देशी प्रजातियां भी थीं और एंटिगुआ 2 डी, बार्बेडोस, चिहुआ हुआ जैसे नामों वाली लैटिन अमेरिकी देशों की प्रजातियां भी. जिन पौधों को दुल्हन बनाना था उनकी ऊपरी पत्तियों के बीच निकल रहे टसल यानी मंजरी को हम खींच कर तोड़ देते. डी-टसलिंग का यह काम बड़ी सावधानी से किया जाता ताकि उन पौधों मे पराग कतई न बने सके. और, बढ़ते भुट्टों के सिरे काट कर उन पर सफेद मक्खनी लिफाफे चढ़ा देते ताकि उन तक पराग का कोई कण भी न पहुंच सके. यानी, केवल वहां पराग पहुंचेगा जो हम डालेंगे. जिन कतारों में नर मंजरियां बढ़ने दी जातीं, उन मंजरियों पर भूरे-बादामी लिफाफे कस दिए जाते ताकि लिफाफे में केवल उसी प्रजाति का शुद्ध पराग लिया जा सके.

फिर हम पुरोहित की भूमिका निभाते. चुनी हुई कतार के पौधों का पराग, मक्खनी लिफाफे में बैठी वधू के रेशमी लाल-गुलाबी रेशों पर डाल कर बाहर से पराग का लिफाफा कस देते. भुट्टे बनते, जिनमें उन्हीं दो कतारों के मां-बाप के गुण होते. फूल खिलने से लेकर कटाई तक उन पौधों के गुणों का पता लगाते. कतारों में घुस कर एक ही बार में कई-कई गिनतियां करते कि कब फूल खिले, कितने पौधे टूटे, कितने बीमार पड़े, कितने कीड़ों का शिकार हुए, कतार में कुल कितने पौधे हैं, वगैरह. कोई गिनती टेलीकाउंटर पर, कोई, अंगुलियों के पोरों पर, कोई मन में तो कोई बोल कर! दिन भर में हजारों पौधों की, हजारों गिनतियां नोट करते.

कतारों के भीतर हवा भी नहीं चलती थी. गिनती करते-करते पसीने में नहा जाते. बाहर आकर अंडरशर्ट निचोड़ते और पहन कर फिर कतार में घुस जाते. काम का एक जुनून सवार था और एक संकल्प भी कुछ कर दिखाना है. उन्हीं दिनों की बात है. मुझे और बिष्ट को जुनून के साथ काम करते हुए देख कर शुरू में एकाध बार एक पुराने साथी ने बुला कर समझाया, “ओए चूजो, इत्थे आओ, बैठो. क्या आज ही पूरा काम खतम कर देणा है? बात सुणो, तुम्हारी नई-नई नौकरी लगी है, जवाण हो, खून गरम है, पर ये काम तो प्यारे जिंदगी भर करणा है. आराम नाल करो. और सुणो,  ये तुम्हारे ऐश के दिन हैं, ऐश करो. ये काम तो चलता रहेगा. ”  सुन कर पहली बार धक्का लगा. मैं तो बड़े-बड़े सपने लेकर आया था. सोचता रहा, क्या इन्हें कुछ नहीं बनना है? आराम या ढील के मायने हैं, आंकड़ों में गड़बड़ी होगी. एकाध बार तो पौधों में फूल आने की कुछ अगली तारीखें भी अनुमान से लिखी दिखाई दीं. पर कहते किससे, कौन सुनता क्योंकि वे तो पुराने और भरोसे के आदमी थे. हमने मन में एन एन को अपना आदर्श मान लिया.

सबसे अच्छी बात यह थी कि कोई साहबी माहौल नहीं था. हर कोई टीम के सदस्य की तरह काम करता. सीरियल लैब जल्दी ही प्रसिद्ध कृषि विज्ञानी डा. कुमिंग के सम्मान में कुमिंग्स लैब कहलाने लगी. पहली मंजिल पर गैलरी में हमारा चाय क्लब था. रामाशीष चाय बनाता और बता देता कि चाय तैयार है. हम कप लेकर वहां जाते और चाय पीते. फिर अपना-अपना कप धोकर रामाशीष के पास रख देते. वरिष्ठ से वरिष्ठ वैज्ञानिक भी वहीं आकर चाय पीते और कप धोकर रख जाते. किसी के कमरे में चाय नहीं दी जाती थी. काम करने में भी अनौपचारिक माहौल था. डॉ. जोगिंदर सिंह तो खेतों में हमारे साथ काम करते ही थे, डॉ. रेनफ्रो भी मक्का के खेत में दराती लेकर बीमार पौधों को काटते-जांचते देखे जा सकते थे. डॉ. एंडर्सन तक कटाई के समय पीठ पर गेहूं का थैला लाद कर ट्राली में डालते देखे जाते. वे डॉ. नार्मन अर्नेस्ट बोरलाग के घनिष्ठ सहयोगी और दोस्त थे. काम करने में बड़े-छोटे का कोई फर्क नहीं किया जाता था.

खेतों में मजदूरों से काम कराने में फील्ड मैन हमारी मदद करते थे. हमारे साथ तीन फील्ड मैन थे- दीपचंद, करनसिंह, बलजीत और धरमू. धरमू निदेशक डॉ. एम.एस. स्वामिनाथन की कोठी के आउट हाउस में रहता था. मनीप्लांट के पौधे के लिए मेरा प्यार देख कर एक दिन उसने कोठी में से मुझे उसकी बेल का एक टुकड़ा दिया था जो बाद में इंद्रपुरी में मेरे कमरे की दीवार पर खूब फैला. करन सिंह तो एक बार मेरे साथ टूर पर हैदराबाद भी गया.

(जारी है)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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